Monday, January 1, 2024

कविता - जन्म दिवस पर - 30 सितम्बर 2013 ,उपलब्धि नहीं है वक्त बिताना अब संसार बिताना होगा अब तक तो सब किया बहिर्मुख अब अन्दर आना होगा

जन्म दिवस पर - 30 सितम्बर 2013
अंत्यंत आभारी हूँ आप सभी का जिन्होंने स्नेह प्रदान किया , व्यक्त किया।
उम्र बढ़ती है , हम बुड्ढे होते हें , कुछ और नहीं तो लोग इस झुर्रियों दार चेहरे का और सफ़ेद बालों का ही आदर करने लगते हें।
क्या यह आदरणीय हैं ?
these people are gainer or looser ?
उपलब्धि नहीं है वक्त बिताना
अब संसार बिताना होगा
अब तक तो सब किया बहिर्मुख
अब अन्दर आना होगा
ढलने का निश्चित क्रम लेकर ही
सूरज उगता है
चड़ता सा भी दिखे यदि
पर यह प्रतिपल ढलता है
कहने को यह जन्मदिवस है
मुझको मौत नजर आती है
दैदीप्यमान दीपक की बाती
कुछ पल में ही तो बुझ जाती है
नकारात्मक सोच नहीं यह
यह तो जीवन का सच है
आँख मूंदकर बैठे रहने का
यूं तो सबको ही हक है
शेखचिल्ली के सपनों को क्या
सकारात्मक सोच कहोगे
रमणीय ख़्वाबों में रच बस कर
क्या सब कुछ यूं ही लुटबा दोगे
जीवन में यदि सचमुच ही
तुमको कुछ पाना है
दौड़ भाग तो बहुत हुई
बस अब तो थम ही जाना है
उछला कूदा , मदमस्त रहा
जग भर में घूमा , इठलाया
चैन शुकून न मिला पल को
मैंने खुद को निष्फल पाया
थकहारकर मन मारकर जब
संध्याकाल में निज घर आया
उद्विग्नता तब शांत हुई
मर्म मुझको समझ आया
वहिर्गमन ही हार है
अंतर्रमण ही जीत
आत्मा ही है शरण
शांति का संगीत
jaipur, friday,१३ nov २०१५, ८.41 am

मुद्दतों से वेगाना 
ये आत्मा मेरा
अबतक रहा अन्जाना 
ये आत्मा मेरा
नये जनम लेता रहा मैं 
नई माँ की कोख से 
क्यों याद ना आया कभी 
ये आत्मा मेरा 

Sunday, August 27, 2023

लिखनी है - कविता - अब सन्ध्या को नमन करूं या नवप्रभात के गीत सुनाऊं खिलूँ जलज सा भोर मानकर या सांझ समझकर कुमलाऊं

यह जीवन इक बहती धारा


अब सन्ध्या को नमन करूं या 
नवप्रभात के गीत सुनाऊं 
खिलूँ जलज सा भोर मानकर 
या सांझ समझकर कुमलाऊं

अभी अभी तो बीता था यह 
जन्मदिवस फिर से आया है 


Saturday, April 8, 2023

"कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले"

"कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले" 
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल 


वर्तमान विद्वानों और साहित्यकारों में से एक बाबू जुगलकिशोरजी "युगल" पर यह उक्ति सम्पूर्णत: चरितार्थ होती है.
यूं यदि उनके दीर्घ जीवनक्रम पर द्रष्टिपात किया जाए तो उनकी साहित्य साधना अपर्याप्त ही प्रतीत होगी, पर साहित्य का मूल्यांकन उसकी मात्रा से नहीं, उसके पैनेपन से किया जाता है, उसके सौन्दर्य से, उसके लालित्य से, उसकी भाषा और शैली की तीक्ष्णता और उसके कथ्य से किया जाता है.
उक्त कसौटी पर उनका साहित्य निश्चित ही खरा उतरता है.
यदि यह कहा जाए तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वे मात्र  "कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले साहित्यकार ही न थे वरन वे  "कमसे कम कहकर अधिक से अधिक कह देने बाले "साहित्यकार भी थे.

अपने उक्त कथन के समर्थन में मैं उनकी देव-शास्त्र-गुरु पूजन प्रस्तुत करना चाहूंगा, जहां मात्र कुछ ही छंदों के माध्यम से उन्होंने देव-शास्त्र-गुरु का सम्पूर्ण स्वरूप विल्कुल सही परिपेक्ष्य में इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया है मानो साक्षात मुनिराज हमारे समक्ष बिराजमान हों.

वे इस सिद्धांत के मूर्तरूप थे कि - 
"धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है".
पूज्य गुरुदेवश्री के संपर्क में आने पर उन्होंने धर्म का सही स्वरूप समझा और अपने लिए वही मार्ग चुना.
पूज्य गुरुदेवश्री के प्रति संबोधित उनकी वे पंक्तियां स्वयं उनके चरित्र का भी दिग्दर्शन करती हें कि - 
"धर्म शिशु जननी के आँचल में नहीं पलता है, और मातपिता की परम्परा से बंधकर धर्म नहीं चलता है"

वे साधनों की पवित्रता के प्रवल प्रवक्ता थे व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की साधना के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए अपने व्याख्यानों में वे सदैव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की पात्रता के बारे में विस्तार से बड़ी सूक्ष्मता के साथ चर्चा किया करते थे.

जिज्ञासु, पात्र श्रोताओं को उनका संबोधन बड़ा सटीक, स्पष्ट और द्रढ़तापूर्ण हुआ करता था जिसमें अन्यथाप्ररूपण के लिए अवकाश नहीं रहता था.
उनकी धाराप्रवाह भाषा एवं शैली मात्र भी सहज ही श्रोताओं का मन मोह लेने और उन्हें बांधे रखने में सक्षम थी.
वे उन चंद भाग्यशाली पात्रों में से एक थे जिनका आदर स्वयं पूज्य गुरुदेवश्री भी करते थे.

तन से अत्यंत कोमल बाबूजी अपने विचारों में अत्यंत कठोर थे और अवसर आने पर किसी भी प्रकार की परवाह के बिना अपने विचार बड़ी द्रढ़ता के साथ प्रस्तुत करते थे.
उनके व्यक्तित्व ने ऊँचाइयों को छुआ पर वे सदा ही जमीन से जुड़े रहे, जनसामान्य ने कभी भी उन्हें अपने से प्रथक अनुभव नहीं किया.
वे ऐसे जीवंततीर्थ थे जिनके समक्ष उनके जीवनकाल में सदा ही मेले से लगे रहे.
आज उनका महाप्रयाण हम सभी के लिए निश्चित ही एक अपूरणीय क्षति है.
वे शीघ्र भवभ्रमण से मुक्त होकर मुक्ति वधु का वरण करें यही मंगल कामना है .

Friday, March 24, 2023

लिखना है - देव शास्त्र गुरु पूजन - वीतराग सर्वज्ञ जिन , मंगल जिनकी वाणि निस्प्रही निर्ग्रन्थ गुरु, बिराजो हिय में आनि

देव शास्त्र गुरु पूजन
-      परमात्म प्रकाश भारिल्ल


    वीतराग सर्वज्ञ जिन , मंगल जिनकी वाणि
    निस्प्रही निर्ग्रन्थ गुरु, बिराजो हिय में आनि

                    (जल)
शीतलजल का सेवन जग में, शीतलता कारक कहलाता   
कहते हें हरता कालुष को, क्या मन उज्जवल हो पाता   
अधरोंकी प्यास बुझाने को, जलपान किया संतुष्ट हुआ
ये जल ही जीवन दाता है, ऐसा विचार नित पुष्ट हुआ
पर भव संताप मिटाने में, क्या इसने कोई योग दिया
जिसने भी इससे सुख चाहा, इसने सदैव निराश किया  
जलसे ही सुख की आशा में, भवकूप में  डूबा-उतराया
पर व्यर्थ रहा जलसंग्रह ये, मेरे समकित सावन आया 

                  (चन्दन)
क्यों चन्दन जग में कहलाता, व्यर्थ सुगन्धी का दाता
ना चित्त कोदेता शीतलता, ना पंक सुगन्धित होपाता
चंदन की शीतलता चंदन में, कोई कैसे लेगा उसकोपा
अपनी सुरभि में डूबा वह, उसके वैभव से तुझको क्या
सुख अनन्त है गुण मेरा, निर्गंध स्वभाव का धारी का
मैं निर्बन्ध, निर्ग्रन्थ प्रभु हूँ, क्यों इससे करता यारी मैं
चन्दन की माया में अबतक, भूला स्वरूप मैं झुलसाया
अब चन्दन की आश ताजी, मैंने समकित चन्दन पाया

                  (अक्षत)
अबतक अक्षत जीवन का, मुझको लगता था आलम्बन
दिखता अक्षत आधार मुझे, बिन अक्षत, विक्षत जीवन  
अक्षत से तृप्ती की चाहत में, भटका मेरा जीवन बीता
साबित हुई यहबस म्रगतृष्णा, हर दाव गया रीता रीता
मेरा स्वभाव तो है अक्षत, अक्षत द्रव्य,  गुण अक्षत है
अक्षत के अक्षत सेवनसे, नित पर्याय प्रकटती अक्षत है
जड़ अक्षत में अटक प्रभो, क्षतविक्षत अबतक तन पाया
अब अक्षत की चाह त्यागकर, मैंने अक्षय  संवल पाया

                    (पुष्प)
मनभावन इनकी सुन्दरता, वा दिल छूनेवाली कोमलता
मादक इनकी सुरभि चितमें, बस पैदा करती आकुलता
हें क्षणभंगुर ये प्रसून सभी, ये आजखिलें कल मुरझाएं
शाश्वत सुख के चाहक जो, वे क्योंकर इनको अपनाएँ
निजात्म लोकमें सुन्दरतम, परमें क्योंफिर अटके मन
जिसको रुचती कोमलता, कभी न हुआ बो अपना तन
सुमनोंपर मोहित मैं अबतक,ना निजकी ओर लुभापाया  
निज स्वरूप पर मुग्ध हुआ मैं, अबतज पुष्पोंकी माया

                  (नैवेध्य)
अन्यान्य जगत की सामग्री ये,भर न सकी मेरी गगरी
परसे तो कुछ पा न सका, मेरी अपनी निधियां बिखरीं
भोगों से सुख की अभिलाषा, भोगों से तृप्ति की चाहत
भोगों की भ्रामक म्रगतृष्णा, मुझको करती रहती आहत
स्वयंपूर्ण निजआतम है तब, है पर से क्यों, क्या चाहत
अपनी ओर निहारूं मैं तो, तत्क्षण मिलती मुझको राहत
दौड़ा इनके पीछे अब तक, पर ना इनको पा मैं तडपाया

अनाथ हुआ यह नैवद्य आज, मैं निज नाथ पा हर्षाया

                  (दीप)
जग की भूलभुलैया में जग, ले दीपक पथ खोजा करता
जग में भरमाये जग का पथ, उससे कैसे शिव मिलता
यूं भी दीपक से पथ पानेको, है नयनों की आवश्यक्ता
है चक्षु तो दीपक पथदर्शक, नैनहीन को दीपक क्या
चैतन्य स्वयं है ज्ञानसूर्य, आतम स्वपर प्रकाशक है
तन्मय निज का हो अनुभव, अन्य स्वयं ही भासत है
तब क्यों दीपक की रहे चाह, जब मेरी दुनिया मुझमें सिमटी
अंधियारा जगपर राज करे, मेरे ज्ञान ज्योति प्रकटी

                                  (धूप)
ज्यों संयोग अग्नि का पाकर, यह धुप धूममय हो जाता
यों संयोग रागद्वेष का, निज  चेतन को झुलसाता
यह धुप सुगंधी तथाकथित, बस मादक करती है मनको
संयोग सुखी करते मुझको, ये पोषाकरती इस भ्रमको
ये धूमसी चंचल पर्यायें, स्थिर स्वरूप कैसे पायें
ध्रुवधाम में स्थित साधक को, ध्रुव ही प्रकटें पर्यायें
लक्ष्यहीन यह धूम धूप का, और नहीं मुझको भाता
ताज कालिख से ओतप्रोत पथ, अब मैं शिवपथ पर जाता

                                    (फल)
यों भ्रमते मकरन्दों ने कुछ, न जग को दिया ना खुद पाया
पहुँच सका जो केन्द्रक में, वह सुन्दर सा फल बन पाया
अनंत ज्ञान पर्यायें भी यों, अटकी-भटकी नष्ट हुईं
आतम को उनने मलिन किया, स्वयं मलिन वा भ्रष्ट हुईं
रे! छिनाल बहिर्मुख पर्यायें, क्या अबतक कभी निहाल हुईं
निज द्रव्य बना जिनका स्वामी, पर्याय वही त्रिकाल हुईं
यह भेंट जगत को भंगुर फल, जिसने भव में ही भरमाया
क्या उसको इसकी चाह रहे, जिसने मोक्ष महल पाया

                             (अर्घ्य)
मैं तो अनादि से अपने को, पाता था रीता रीता
क्षतिपूर्ति की चाहत में, हरपल मेरा दुखमय बीता
जग के अर्घ्य जुटाने में मैं , जीवन अर्पित कर बैठा
कंचन की हेराफेरी में, मेरा वैभव मुझसे रूठा
आज विमुख होकर इससे, अब मैं जाता चेतन में
इसकी क्या आवशयक्ता अब, मेरे मोक्ष निकेतन में  
उपयोग ज्ञान का अब मेरा, निज की और समर्पित है
जग का यह सम्पूर्ण अर्घ्य, आज जगत को अर्पित है

                           (जयमाला)
भवसागर में अनादिकाल से, भटका, डूबा-उतराया
आशा त्रण पर टिका रहा, अबतक न मैंने तट पाया
तृष्णा तंद्रा भंग हुई अब, पार उतरने की ठानी
लक्ष्य बने जिनवर मेरे, मारग गुरु दीपक जिनवाणी

श्री जिनवर की प्रतिमा में , मम स्वरूप प्रतिबिम्बित है
द्रव्य निरंतर रहे त्रिकाल ही, पर्याय मात्र ही दूषित है
निर्ग्रथ दिगम्बर मुनिवरों के, पद चिन्हों पर चल पाऊं
पर द्रव्यों से द्रष्टि हटा, अब मैं निजआतम ध्याऊं
श्री जिनवर की वाणी ही अब, मेरे पथ का दीपक हो
हो रागभाव का लोप अभी, वीतरागता विकसित हो
निज वैभव को भूला भटका, जीता था जीवन विस्थापित
अब द्रष्टि को अंतर्मुख कर, करता जीवन में स्थापित
निज स्वभाव से विमुख रहा मैं, संयोगों पर द्रष्टि डारी
छेदन भेदन की पीर सही, ज्यों केलों की कंटक से यारी
संयोगों से आच्छादित पर, उनसे अलिप्त अस्पर्श्य प्रभू
ज्यों कीच कुम्भ में पड़े-पड़े, ना कंचन में आती उसकी बू
आतम की ज्ञान पर्यायों में, पर ज्ञेय स्वयं झलका करता
उस पर्याय का ज्ञाता आतम है, कुछ और नहीं कर्ता-धर्ता
आसक्ती पर ज्ञेयों की, करती ह्वास निज शक्ति का
अनन्तवीर्य परिणाम प्रभु, निज भगवान् की भक्ती का
स्वलक्ष्यी ज्ञान पर्यायें तो, स्वयं स्वयंमय हो जातीं
एक सामान रहा करतीं, यद्यपि इक जाती दूजी आती

देव शास्त्र औ गुरु मिले, लक्ष्य का है निर्धार
निज स्वभाव की है नैया, फिर क्यों ना उतरे पार 

Friday, March 17, 2023

धर्म क्या, क्यों ,कैसे और किसके लिए (बीसबीं कड़ी)

धर्म क्या, क्यों ,कैसे और किसके लिए (बीसबीं कड़ी)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि- “तीन कारणों से यह व्यक्ति आत्मा की अनादि-अनन्तता को स्वीकार करने से हिचकता हें. अपने दुष्कर्मों का फल भोगने से बचने के लिए, प्रमाद के कारण आत्मकल्याण के पुरुषार्थ से बचने के लिए और अपने उज्जवल भविष्य का विश्वास न होने के कारण.”
यदि हमें आत्मा के आनंदमय, सुखी भविष्य का विश्वास हो जाए तो आत्मा की अनन्तता स्वीकार करने के प्रति हमारी अरुचि, उपेक्षा और प्रतिरोध स्वत: समाप्त हो जाएगा. 
तबतो यह हमें अभीष्ट होगा, समझ में भी आने लगेगा और स्वीकृत भी होने लगेगा. 
ऐसा ही हो इसके लिए आवश्यक है कि हम मात्र आत्मा की अनादि-अनन्तता की ही चर्चा न करें, उसके साथ-साथ आत्मा के अनंत गुणों, यथा अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, अनन्तज्ञान आदि की भी स्थापना करें.
हम इस तथ्य की स्थापना करें कि अनादि-अनंत यह आत्मा अनन्त गुणों का स्वामी, अनन्त वीर्यवान, सुख का सागर और शक्तियों का संग्रहालय है. तब अनन्तकाल तक के लिए अनन्तसुखी यह "मैं" भगवान् आत्माभला किसे स्वीकृत नहीं होगा?
अब आगे पढ़िए –

इससे पूर्व कि हम आत्मा के अस्तित्व की, उसकी अनादि-अनन्तता की तथा सर्वगुणसम्पन्नता की स्थापना करें, हम इस तथ्य पर भी तो विचार करलें कि यदि हम ऐसा (उपरोक्त प्रकार) नहीं मानते हें तो हम पर क्या प्रभाव पडेगा?
मैं एक उदाहरण से अपना आभिप्राय स्पष्ट करना चाहता हूँ.
मान लीजिये कि हमें एक इंटरव्यू देने के लिए जाना है, हम सज-संबरकर तैयार हें और अब जाने की जल्दी में भी हें. हम नहीं चाहते हें कि अब कोई भी बाधा हमें समय पर पहुँचने से रोके क्योंकि यह मामूली सी देरी हमारे दीर्घकालीन भविष्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती है.
हमारे सामने दो संभावनाएं हें कि बरसात हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है; दोनों ही संभावनाएं 50-50 प्रतिशत (fifty-fifty) हें अब हम क्या करें?
छाता लेकर जाएँ या न लेजायें?
ऐसे में आप क्या करेंगे?
कोई भी समझदार व्यक्ति छाता लेकर जाना ही पसंद करेगा; क्योंकि छाता लेकर गए और बरसात न भी हुई तो हमारा क्या बिगड़ेगा? पर यदि छाता न ले गए और बरसात होगई तो हमारा क्या होगा? तबतो हम कहीं के न रहेंगे न!
इसलिए उचित यही है कि हम पूरी तैयारी के साथ जाएँ ताकि किसी भी स्थिति का सामना करने में सक्षम हों. हम छले न जाएँ, परेशान न हों, बिफल न हों.
एक और उदाहरण लें-
एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. मेरे सामने एक सरदारजी बैठे थे, मस्तमौला. वे अपना जीवन भलीभांति जीना चाहते थे, जीवन का हरपल जीना चाहते थे, अपनी तरह से, आनन्दपूर्वक; कहीं कोई कसर न रह जाए.
वे निसंकोच होकर सबसे इस प्रकार घुलमिलकर बातें करते, बतियाते, हंसी-मजाक करते हुये जा रहे थे मानों जनम-जनम के साथी हों.
जिस भी स्टेशन पर गाडी रुकती, वे नीचे उतरते, वहां जो कुछ भी मिलता वह खरीद लाते, खुदभी खाते व सबको खिलाते व मस्त होजाते.
मैं उनके सामने की सीट पर बैठा हुआ अपने अध्ययन में व्यस्त था और उनकी मस्ती में शामिल नहीं हो रहा था. खानेपीने की वस्तुएं वे मुझे भी प्रस्तुत करते तो मैं दोनों हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक इन्कार कर देता और फिर अपने अध्ययन में व्यस्त होजाता.
वे अपने में मस्त थे और मैं अपने में व्यस्त. हम दोनों में एक बात कॉमन थी, उनसे मेरा दुखदर्द नहीं देखा जारहा था और मुझसे उनका. दोनों एक दूसरे के बारे में चिन्तित थे, एक दूसरे के दुःख से दुखी थे.
संध्याकाळ हुआ, सूर्यास्त से पहिले मैंने अपने बैग से अपना टिफिन निकाला व भोजन किया, अपने साथ लाया हुआ अपना पानी का वर्तन निकालकर पानी पिया और फिर अपने बैग में से अपनी पुस्तक निकाली और जैसे ही पढने के लिए उद्धत हुआ तो उनसे नहीं रहा गया. वे मुझपर व्यंग सा करते हुए बोले-
“महात्माजी बड़े कंजूस मालूम होते हो! अपने घरसे खाना ले आये, घरसे ही पानी ले आये और तो और किसी से अखबार तक तो नहीं खरीदा, किताब भी घरसे ही ले आये?
लगते तो खाते-पीते घर के हो, क्या करोगे इतनी बचत करके?
कहाँ ले जाओगे सारा धन?
कुछ खर्चा करो, मौजमस्ती करो.
जीवन में और रक्खा ही क्या है? बस किसी तरह हँसते-खेलते कट जाए, और क्या चाहिए?--------”
वे धाराप्रवाह बोलते ही जारहे थे कि मैंने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा कि-
“नहीं बात यह नहीं है. दरअसल मैं जैन हूँ और मेरे योग्य भोजन बाहर नहीं मिलता है इसलिए घर से ही भोजन और छना हुआ पानी साथ लेआता हूँ और सूर्यास्त से पहिले ही भोजन कर लेता हूँ व समय का सदुपयोग हो सके इसीलिये अपने आत्मकल्याणकारी ग्रन्थ साथ में लाता हूँ ताकि स्वाध्याय कर सकूं.------”
वे बोल पड़े कि –
“पंडितजी ये तो ठीक है, पर तुम तो सारी जिन्दगी ये दुःख-दर्द झेलते हुए, भूंखे रहकर उपवास करते हुए, धर्म करते-करते मर जाओगे और फिर अगर पुनर्जन्म होता ही नहीं होगा तब क्या होगा?
क्या यह सब व्यर्थ नहीं चला जाएगा?
तब आपका क्या होगा?
मैंने उनसे कहा कि सरदारजी! मैं कहाँ दुखी हूँ?
मैं आपको किस एंगल से दुखी दिखाई देरहा हूँ?
मैं तो अत्यन्त शान्ति पूर्वक अपने स्थान पर बैठा हुआ अपने स्वाध्याय में मगन, अत्यन्त आनन्द में हूँ. दुखी तो मुझे आप दिखाई दे रहे हें जो कि गर्मागर्म कढाई में तले जाते हुए पकौड़े की भाँति लगातार यहाँ से बहाँ फुदक रहे हें, सुख की खोज में ये-बो खारहे हें, न भक्ष्य-अभक्ष्य की चिंता है न स्वास्थ्य की चिंता, न पेट का ख्याल. बस लेटरबाक्स की तरह उसमें कुछभी ठूँसे जारहे हें.
यदि आप दुखी न होते तो इस सब वस्तुओं में सुख की तालाश क्यों करते?
और रही बात यह कि यदि पुनर्जन्म नहीं होता होगा तो मेरा क्या होगा? सो मैं भी तो आपसे पूंछ सकता हूँ कि अगर पुनर्जन्म होता होगा तो आपका क्या होगा?
मैं तो अभीभी सुखी ही हूँ और भविष्य के सुखों की तैयारी में व्यस्त हूँ पर आपतो अभीभी दुखी हें और आपके पास भविष्य का भी कोई इंतजाम नहीं है, आपका क्या होगा?  
मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि हम मानते हें कि आत्मा अनादि-अनन्त है और आप इस बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं रखते हें, आप कहते हें कि ऐसा होभी सकता है और नहीं भी हो सकता है. ऐसे में यदि आत्मा की अनादि-अनन्तता की संभावना 50-50 (फिफ्टी-फिफ्टी) ही मानलें तब भी समझदारी तो इसी में है न कि हम इसप्रकार का जीवन जियें, अपने जीवन में इसप्रकार के कार्य करें कि तैयारी पूर्वक अगले जीवन में जा सकें. क्या यही समझदारी भरा कार्य नहीं है? यदि हम बिना छाता लिए ही चल दिए और बरसात होगई तो हमारा क्या होगा?
यदि आप हमसे कहते हें कि साबित करिए कि “आत्मा अनादि-अनन्त है और पुनर्जन्म होता है” तो हमभी तो आपसे कह सकते हें कि आप साबित करिये कि “आत्मा अनादि-अनन्त नहीं है व पुनर्जन्म नहीं होता है.”
आप साबित नहीं कर सकते हें न?
तब क्या यह उचित नहीं है कि हम तबतक आत्मा के अनादि-अनन्त स्वरूप को ही स्वीकार करें जबतक कि यह साबित नहीं होजाता है कि आत्मा अनादि-अनन्त नहीं वरन नश्वर है. तब क्यों नहीं हम आत्मा के आगामी अनंतकाल के लिए तैयार रहें; क्योंकि यही हमारे हित में है.
संदेह का लाभ किसे मिलना चाहिए?
यदि हम सुरक्षा के लिए तैयार रहें और फिर खतरा उत्पन्न ही न हो तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा? पर यदि बिना तैयारी के खतरा उत्पन्न होगया तो विचार कीजिये कि हमारा क्या होगा?

सच्चाई तो यह है कि हमें शाश्वत सुख का वास्तविक लाभ तो तभी होगा जब हमें आत्मा के अनादि-अनन्त अस्तित्व का संशय रहित असंदिग्ध विश्वास होगा. ऐसा कैसे हो यह जानने के लिए पढ़ें, इस श्रंखला की अगली कड़ी, आगामी अंक में.


अरे जगत की फ़ूडचैन में सब हें इकदूजे के भक्षक 
यहाँ किसी की कौन सुनेगा 
कौन बनेगा किसका रक्षक 

लाठी वाले की भेंस यहाँ पर 
बस ऐसा ही न्याय मिलता है 
है कौन यहाँ जो हरिश्चन्द्र के 
पावनपदचिन्हों पर चलता है 

जोड़तोड़ के गणित निराले 
दो चार मिले बारह