धर्म क्या, क्यों ,कैसे और किसके लिए (बीसबीं कड़ी)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
पिछले अंक में हमने पढ़ा कि- “तीन कारणों से यह
व्यक्ति आत्मा की अनादि-अनन्तता को स्वीकार करने से हिचकता हें. अपने दुष्कर्मों
का फल भोगने से बचने के लिए, प्रमाद के कारण आत्मकल्याण के पुरुषार्थ से बचने के
लिए और अपने उज्जवल भविष्य का विश्वास न होने के कारण.”
यदि हमें आत्मा के आनंदमय, सुखी भविष्य का विश्वास हो जाए तो आत्मा की अनन्तता स्वीकार
करने के प्रति हमारी अरुचि, उपेक्षा और प्रतिरोध स्वत: समाप्त हो जाएगा.
तबतो यह हमें अभीष्ट होगा, समझ में भी आने लगेगा और स्वीकृत भी होने लगेगा.
ऐसा ही हो इसके लिए आवश्यक है कि हम मात्र
आत्मा की अनादि-अनन्तता की ही चर्चा न करें, उसके साथ-साथ
आत्मा के अनंत गुणों, यथा अनन्तसुख, अनन्तवीर्य,
अनन्तज्ञान आदि की भी स्थापना करें.
हम इस तथ्य की स्थापना करें कि अनादि-अनंत यह आत्मा अनन्त गुणों का स्वामी, अनन्त वीर्यवान, सुख का सागर और शक्तियों का संग्रहालय है. तब “अनन्तकाल तक के लिए अनन्तसुखी यह "मैं" भगवान् आत्मा”
भला किसे स्वीकृत नहीं होगा?
अब आगे पढ़िए –
इससे पूर्व कि हम आत्मा के अस्तित्व की, उसकी
अनादि-अनन्तता की तथा सर्वगुणसम्पन्नता की स्थापना करें, हम इस तथ्य पर भी तो विचार
करलें कि यदि हम ऐसा (उपरोक्त प्रकार) नहीं मानते हें तो हम पर क्या प्रभाव पडेगा?
मैं एक उदाहरण से अपना आभिप्राय स्पष्ट करना चाहता
हूँ.
मान लीजिये कि हमें एक इंटरव्यू देने के लिए जाना है,
हम सज-संबरकर तैयार हें और अब जाने की जल्दी में भी हें. हम नहीं चाहते हें कि अब
कोई भी बाधा हमें समय पर पहुँचने से रोके क्योंकि यह मामूली सी देरी हमारे
दीर्घकालीन भविष्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती है.
हमारे सामने दो संभावनाएं हें कि बरसात हो भी सकती है
और नहीं भी हो सकती है; दोनों ही संभावनाएं 50-50 प्रतिशत (fifty-fifty) हें अब हम
क्या करें?
छाता लेकर जाएँ या न लेजायें?
ऐसे में आप क्या करेंगे?
कोई भी समझदार व्यक्ति छाता लेकर जाना ही पसंद करेगा;
क्योंकि छाता लेकर गए और बरसात न भी हुई तो हमारा क्या बिगड़ेगा? पर यदि छाता न
ले गए और बरसात होगई तो हमारा क्या होगा? तबतो हम कहीं के न रहेंगे न!
इसलिए उचित यही है कि हम पूरी तैयारी के साथ जाएँ
ताकि किसी भी स्थिति का सामना करने में सक्षम हों. हम छले न जाएँ, परेशान न हों,
बिफल न हों.
एक और उदाहरण लें-
एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. मेरे सामने एक
सरदारजी बैठे थे, मस्तमौला. वे अपना जीवन भलीभांति जीना चाहते थे, जीवन का हरपल
जीना चाहते थे, अपनी तरह से, आनन्दपूर्वक; कहीं कोई कसर न रह जाए.
वे निसंकोच होकर सबसे इस प्रकार घुलमिलकर बातें करते,
बतियाते, हंसी-मजाक करते हुये जा रहे थे मानों जनम-जनम के साथी हों.
जिस भी स्टेशन पर गाडी रुकती, वे नीचे उतरते, वहां जो
कुछ भी मिलता वह खरीद लाते, खुदभी खाते व सबको खिलाते व मस्त होजाते.
मैं उनके सामने की सीट पर बैठा हुआ अपने अध्ययन में
व्यस्त था और उनकी मस्ती में शामिल नहीं हो रहा था. खानेपीने की वस्तुएं वे मुझे
भी प्रस्तुत करते तो मैं दोनों हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक इन्कार कर देता और फिर
अपने अध्ययन में व्यस्त होजाता.
वे अपने में मस्त थे और मैं अपने में व्यस्त. हम दोनों
में एक बात कॉमन थी, उनसे मेरा दुखदर्द नहीं देखा जारहा था और मुझसे उनका. दोनों
एक दूसरे के बारे में चिन्तित थे, एक दूसरे के दुःख से दुखी थे.
संध्याकाळ हुआ, सूर्यास्त से पहिले मैंने अपने बैग से
अपना टिफिन निकाला व भोजन किया, अपने साथ लाया हुआ अपना पानी का वर्तन निकालकर
पानी पिया और फिर अपने बैग में से अपनी पुस्तक निकाली और जैसे ही पढने के लिए उद्धत
हुआ तो उनसे नहीं रहा गया. वे मुझपर व्यंग सा करते हुए बोले-
“महात्माजी बड़े कंजूस मालूम होते हो! अपने घरसे खाना
ले आये, घरसे ही पानी ले आये और तो और किसी से अखबार तक तो नहीं खरीदा, किताब भी घरसे
ही ले आये?
लगते तो खाते-पीते घर के हो, क्या करोगे इतनी बचत
करके?
कहाँ ले जाओगे सारा धन?
कुछ खर्चा करो, मौजमस्ती करो.
जीवन में और रक्खा ही क्या है? बस किसी तरह हँसते-खेलते
कट जाए, और क्या चाहिए?--------”
वे धाराप्रवाह बोलते ही जारहे थे कि मैंने उन्हें बीच
में ही टोकते हुए कहा कि-
“नहीं बात यह नहीं है. दरअसल मैं जैन हूँ और मेरे
योग्य भोजन बाहर नहीं मिलता है इसलिए घर से ही भोजन और छना हुआ पानी साथ लेआता हूँ
और सूर्यास्त से पहिले ही भोजन कर लेता हूँ व समय का सदुपयोग हो सके इसीलिये अपने
आत्मकल्याणकारी ग्रन्थ साथ में लाता हूँ ताकि स्वाध्याय कर सकूं.------”
वे बोल पड़े कि –
“पंडितजी ये तो ठीक है, पर तुम तो सारी जिन्दगी ये
दुःख-दर्द झेलते हुए, भूंखे रहकर उपवास करते हुए, धर्म करते-करते मर जाओगे और फिर
अगर पुनर्जन्म होता ही नहीं होगा तब क्या होगा?
क्या यह सब व्यर्थ नहीं चला जाएगा?
तब आपका क्या होगा?
मैंने उनसे कहा कि सरदारजी! मैं कहाँ दुखी हूँ?
मैं आपको किस एंगल से दुखी दिखाई देरहा हूँ?
मैं तो अत्यन्त शान्ति पूर्वक अपने स्थान पर बैठा हुआ
अपने स्वाध्याय में मगन, अत्यन्त आनन्द में हूँ. दुखी तो मुझे आप दिखाई दे रहे
हें जो कि गर्मागर्म कढाई में तले जाते हुए पकौड़े की भाँति लगातार यहाँ से बहाँ
फुदक रहे हें, सुख की खोज में ये-बो खारहे हें, न भक्ष्य-अभक्ष्य की चिंता है न
स्वास्थ्य की चिंता, न पेट का ख्याल. बस लेटरबाक्स की तरह उसमें कुछभी ठूँसे जारहे
हें.
यदि आप दुखी न होते तो इस सब वस्तुओं में सुख की तालाश
क्यों करते?
और रही बात यह कि यदि पुनर्जन्म नहीं होता होगा तो
मेरा क्या होगा? सो मैं भी तो आपसे पूंछ सकता हूँ कि अगर पुनर्जन्म होता होगा तो
आपका क्या होगा?
मैं तो अभीभी सुखी ही हूँ और भविष्य के सुखों की
तैयारी में व्यस्त हूँ पर आपतो अभीभी दुखी हें और आपके पास भविष्य का भी कोई
इंतजाम नहीं है, आपका क्या होगा?
मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि हम मानते हें कि
आत्मा अनादि-अनन्त है और आप इस बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं रखते हें, आप कहते
हें कि ऐसा होभी सकता है और नहीं भी हो सकता है. ऐसे में यदि आत्मा की अनादि-अनन्तता
की संभावना 50-50 (फिफ्टी-फिफ्टी) ही मानलें तब भी समझदारी तो इसी में है न कि हम इसप्रकार
का जीवन जियें, अपने जीवन में इसप्रकार के कार्य करें कि तैयारी पूर्वक अगले जीवन
में जा सकें. क्या यही समझदारी भरा कार्य नहीं है? यदि हम बिना छाता लिए ही चल
दिए और बरसात होगई तो हमारा क्या होगा?
यदि आप हमसे कहते हें कि साबित करिए कि “आत्मा अनादि-अनन्त है और पुनर्जन्म होता है” तो हमभी तो आपसे कह
सकते हें कि आप साबित करिये कि “आत्मा अनादि-अनन्त नहीं है व पुनर्जन्म नहीं होता
है.”
आप साबित नहीं कर सकते हें न?
तब क्या यह उचित
नहीं है कि हम तबतक आत्मा के अनादि-अनन्त स्वरूप को ही स्वीकार करें जबतक कि यह
साबित नहीं होजाता है कि आत्मा अनादि-अनन्त नहीं वरन नश्वर है. तब क्यों नहीं हम आत्मा
के आगामी अनंतकाल के लिए तैयार रहें; क्योंकि यही हमारे हित में है.
संदेह का लाभ किसे मिलना चाहिए?
यदि हम सुरक्षा के लिए तैयार रहें और फिर खतरा
उत्पन्न ही न हो तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा? पर यदि बिना तैयारी के खतरा उत्पन्न
होगया तो विचार कीजिये कि हमारा क्या होगा?
सच्चाई तो यह है कि हमें शाश्वत सुख का वास्तविक लाभ
तो तभी होगा जब हमें आत्मा के अनादि-अनन्त अस्तित्व का संशय रहित असंदिग्ध विश्वास
होगा. ऐसा कैसे हो यह जानने के लिए पढ़ें, इस श्रंखला की अगली कड़ी, आगामी अंक में.