Saturday, April 8, 2023

"कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले"

"कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले" 
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल 


वर्तमान विद्वानों और साहित्यकारों में से एक बाबू जुगलकिशोरजी "युगल" पर यह उक्ति सम्पूर्णत: चरितार्थ होती है.
यूं यदि उनके दीर्घ जीवनक्रम पर द्रष्टिपात किया जाए तो उनकी साहित्य साधना अपर्याप्त ही प्रतीत होगी, पर साहित्य का मूल्यांकन उसकी मात्रा से नहीं, उसके पैनेपन से किया जाता है, उसके सौन्दर्य से, उसके लालित्य से, उसकी भाषा और शैली की तीक्ष्णता और उसके कथ्य से किया जाता है.
उक्त कसौटी पर उनका साहित्य निश्चित ही खरा उतरता है.
यदि यह कहा जाए तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वे मात्र  "कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले साहित्यकार ही न थे वरन वे  "कमसे कम कहकर अधिक से अधिक कह देने बाले "साहित्यकार भी थे.

अपने उक्त कथन के समर्थन में मैं उनकी देव-शास्त्र-गुरु पूजन प्रस्तुत करना चाहूंगा, जहां मात्र कुछ ही छंदों के माध्यम से उन्होंने देव-शास्त्र-गुरु का सम्पूर्ण स्वरूप विल्कुल सही परिपेक्ष्य में इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया है मानो साक्षात मुनिराज हमारे समक्ष बिराजमान हों.

वे इस सिद्धांत के मूर्तरूप थे कि - 
"धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है".
पूज्य गुरुदेवश्री के संपर्क में आने पर उन्होंने धर्म का सही स्वरूप समझा और अपने लिए वही मार्ग चुना.
पूज्य गुरुदेवश्री के प्रति संबोधित उनकी वे पंक्तियां स्वयं उनके चरित्र का भी दिग्दर्शन करती हें कि - 
"धर्म शिशु जननी के आँचल में नहीं पलता है, और मातपिता की परम्परा से बंधकर धर्म नहीं चलता है"

वे साधनों की पवित्रता के प्रवल प्रवक्ता थे व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की साधना के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए अपने व्याख्यानों में वे सदैव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की पात्रता के बारे में विस्तार से बड़ी सूक्ष्मता के साथ चर्चा किया करते थे.

जिज्ञासु, पात्र श्रोताओं को उनका संबोधन बड़ा सटीक, स्पष्ट और द्रढ़तापूर्ण हुआ करता था जिसमें अन्यथाप्ररूपण के लिए अवकाश नहीं रहता था.
उनकी धाराप्रवाह भाषा एवं शैली मात्र भी सहज ही श्रोताओं का मन मोह लेने और उन्हें बांधे रखने में सक्षम थी.
वे उन चंद भाग्यशाली पात्रों में से एक थे जिनका आदर स्वयं पूज्य गुरुदेवश्री भी करते थे.

तन से अत्यंत कोमल बाबूजी अपने विचारों में अत्यंत कठोर थे और अवसर आने पर किसी भी प्रकार की परवाह के बिना अपने विचार बड़ी द्रढ़ता के साथ प्रस्तुत करते थे.
उनके व्यक्तित्व ने ऊँचाइयों को छुआ पर वे सदा ही जमीन से जुड़े रहे, जनसामान्य ने कभी भी उन्हें अपने से प्रथक अनुभव नहीं किया.
वे ऐसे जीवंततीर्थ थे जिनके समक्ष उनके जीवनकाल में सदा ही मेले से लगे रहे.
आज उनका महाप्रयाण हम सभी के लिए निश्चित ही एक अपूरणीय क्षति है.
वे शीघ्र भवभ्रमण से मुक्त होकर मुक्ति वधु का वरण करें यही मंगल कामना है .

Friday, March 17, 2023

धर्म क्या, क्यों ,कैसे और किसके लिए (बीसबीं कड़ी)

धर्म क्या, क्यों ,कैसे और किसके लिए (बीसबीं कड़ी)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि- “तीन कारणों से यह व्यक्ति आत्मा की अनादि-अनन्तता को स्वीकार करने से हिचकता हें. अपने दुष्कर्मों का फल भोगने से बचने के लिए, प्रमाद के कारण आत्मकल्याण के पुरुषार्थ से बचने के लिए और अपने उज्जवल भविष्य का विश्वास न होने के कारण.”
यदि हमें आत्मा के आनंदमय, सुखी भविष्य का विश्वास हो जाए तो आत्मा की अनन्तता स्वीकार करने के प्रति हमारी अरुचि, उपेक्षा और प्रतिरोध स्वत: समाप्त हो जाएगा. 
तबतो यह हमें अभीष्ट होगा, समझ में भी आने लगेगा और स्वीकृत भी होने लगेगा. 
ऐसा ही हो इसके लिए आवश्यक है कि हम मात्र आत्मा की अनादि-अनन्तता की ही चर्चा न करें, उसके साथ-साथ आत्मा के अनंत गुणों, यथा अनन्तसुख, अनन्तवीर्य, अनन्तज्ञान आदि की भी स्थापना करें.
हम इस तथ्य की स्थापना करें कि अनादि-अनंत यह आत्मा अनन्त गुणों का स्वामी, अनन्त वीर्यवान, सुख का सागर और शक्तियों का संग्रहालय है. तब अनन्तकाल तक के लिए अनन्तसुखी यह "मैं" भगवान् आत्माभला किसे स्वीकृत नहीं होगा?
अब आगे पढ़िए –

इससे पूर्व कि हम आत्मा के अस्तित्व की, उसकी अनादि-अनन्तता की तथा सर्वगुणसम्पन्नता की स्थापना करें, हम इस तथ्य पर भी तो विचार करलें कि यदि हम ऐसा (उपरोक्त प्रकार) नहीं मानते हें तो हम पर क्या प्रभाव पडेगा?
मैं एक उदाहरण से अपना आभिप्राय स्पष्ट करना चाहता हूँ.
मान लीजिये कि हमें एक इंटरव्यू देने के लिए जाना है, हम सज-संबरकर तैयार हें और अब जाने की जल्दी में भी हें. हम नहीं चाहते हें कि अब कोई भी बाधा हमें समय पर पहुँचने से रोके क्योंकि यह मामूली सी देरी हमारे दीर्घकालीन भविष्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती है.
हमारे सामने दो संभावनाएं हें कि बरसात हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है; दोनों ही संभावनाएं 50-50 प्रतिशत (fifty-fifty) हें अब हम क्या करें?
छाता लेकर जाएँ या न लेजायें?
ऐसे में आप क्या करेंगे?
कोई भी समझदार व्यक्ति छाता लेकर जाना ही पसंद करेगा; क्योंकि छाता लेकर गए और बरसात न भी हुई तो हमारा क्या बिगड़ेगा? पर यदि छाता न ले गए और बरसात होगई तो हमारा क्या होगा? तबतो हम कहीं के न रहेंगे न!
इसलिए उचित यही है कि हम पूरी तैयारी के साथ जाएँ ताकि किसी भी स्थिति का सामना करने में सक्षम हों. हम छले न जाएँ, परेशान न हों, बिफल न हों.
एक और उदाहरण लें-
एक बार मैं ट्रेन में सफ़र कर रहा था. मेरे सामने एक सरदारजी बैठे थे, मस्तमौला. वे अपना जीवन भलीभांति जीना चाहते थे, जीवन का हरपल जीना चाहते थे, अपनी तरह से, आनन्दपूर्वक; कहीं कोई कसर न रह जाए.
वे निसंकोच होकर सबसे इस प्रकार घुलमिलकर बातें करते, बतियाते, हंसी-मजाक करते हुये जा रहे थे मानों जनम-जनम के साथी हों.
जिस भी स्टेशन पर गाडी रुकती, वे नीचे उतरते, वहां जो कुछ भी मिलता वह खरीद लाते, खुदभी खाते व सबको खिलाते व मस्त होजाते.
मैं उनके सामने की सीट पर बैठा हुआ अपने अध्ययन में व्यस्त था और उनकी मस्ती में शामिल नहीं हो रहा था. खानेपीने की वस्तुएं वे मुझे भी प्रस्तुत करते तो मैं दोनों हाथ जोड़कर विनम्रता पूर्वक इन्कार कर देता और फिर अपने अध्ययन में व्यस्त होजाता.
वे अपने में मस्त थे और मैं अपने में व्यस्त. हम दोनों में एक बात कॉमन थी, उनसे मेरा दुखदर्द नहीं देखा जारहा था और मुझसे उनका. दोनों एक दूसरे के बारे में चिन्तित थे, एक दूसरे के दुःख से दुखी थे.
संध्याकाळ हुआ, सूर्यास्त से पहिले मैंने अपने बैग से अपना टिफिन निकाला व भोजन किया, अपने साथ लाया हुआ अपना पानी का वर्तन निकालकर पानी पिया और फिर अपने बैग में से अपनी पुस्तक निकाली और जैसे ही पढने के लिए उद्धत हुआ तो उनसे नहीं रहा गया. वे मुझपर व्यंग सा करते हुए बोले-
“महात्माजी बड़े कंजूस मालूम होते हो! अपने घरसे खाना ले आये, घरसे ही पानी ले आये और तो और किसी से अखबार तक तो नहीं खरीदा, किताब भी घरसे ही ले आये?
लगते तो खाते-पीते घर के हो, क्या करोगे इतनी बचत करके?
कहाँ ले जाओगे सारा धन?
कुछ खर्चा करो, मौजमस्ती करो.
जीवन में और रक्खा ही क्या है? बस किसी तरह हँसते-खेलते कट जाए, और क्या चाहिए?--------”
वे धाराप्रवाह बोलते ही जारहे थे कि मैंने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा कि-
“नहीं बात यह नहीं है. दरअसल मैं जैन हूँ और मेरे योग्य भोजन बाहर नहीं मिलता है इसलिए घर से ही भोजन और छना हुआ पानी साथ लेआता हूँ और सूर्यास्त से पहिले ही भोजन कर लेता हूँ व समय का सदुपयोग हो सके इसीलिये अपने आत्मकल्याणकारी ग्रन्थ साथ में लाता हूँ ताकि स्वाध्याय कर सकूं.------”
वे बोल पड़े कि –
“पंडितजी ये तो ठीक है, पर तुम तो सारी जिन्दगी ये दुःख-दर्द झेलते हुए, भूंखे रहकर उपवास करते हुए, धर्म करते-करते मर जाओगे और फिर अगर पुनर्जन्म होता ही नहीं होगा तब क्या होगा?
क्या यह सब व्यर्थ नहीं चला जाएगा?
तब आपका क्या होगा?
मैंने उनसे कहा कि सरदारजी! मैं कहाँ दुखी हूँ?
मैं आपको किस एंगल से दुखी दिखाई देरहा हूँ?
मैं तो अत्यन्त शान्ति पूर्वक अपने स्थान पर बैठा हुआ अपने स्वाध्याय में मगन, अत्यन्त आनन्द में हूँ. दुखी तो मुझे आप दिखाई दे रहे हें जो कि गर्मागर्म कढाई में तले जाते हुए पकौड़े की भाँति लगातार यहाँ से बहाँ फुदक रहे हें, सुख की खोज में ये-बो खारहे हें, न भक्ष्य-अभक्ष्य की चिंता है न स्वास्थ्य की चिंता, न पेट का ख्याल. बस लेटरबाक्स की तरह उसमें कुछभी ठूँसे जारहे हें.
यदि आप दुखी न होते तो इस सब वस्तुओं में सुख की तालाश क्यों करते?
और रही बात यह कि यदि पुनर्जन्म नहीं होता होगा तो मेरा क्या होगा? सो मैं भी तो आपसे पूंछ सकता हूँ कि अगर पुनर्जन्म होता होगा तो आपका क्या होगा?
मैं तो अभीभी सुखी ही हूँ और भविष्य के सुखों की तैयारी में व्यस्त हूँ पर आपतो अभीभी दुखी हें और आपके पास भविष्य का भी कोई इंतजाम नहीं है, आपका क्या होगा?  
मेरे कहने का तात्पर्य यही है कि हम मानते हें कि आत्मा अनादि-अनन्त है और आप इस बारे में कोई स्पष्ट राय नहीं रखते हें, आप कहते हें कि ऐसा होभी सकता है और नहीं भी हो सकता है. ऐसे में यदि आत्मा की अनादि-अनन्तता की संभावना 50-50 (फिफ्टी-फिफ्टी) ही मानलें तब भी समझदारी तो इसी में है न कि हम इसप्रकार का जीवन जियें, अपने जीवन में इसप्रकार के कार्य करें कि तैयारी पूर्वक अगले जीवन में जा सकें. क्या यही समझदारी भरा कार्य नहीं है? यदि हम बिना छाता लिए ही चल दिए और बरसात होगई तो हमारा क्या होगा?
यदि आप हमसे कहते हें कि साबित करिए कि “आत्मा अनादि-अनन्त है और पुनर्जन्म होता है” तो हमभी तो आपसे कह सकते हें कि आप साबित करिये कि “आत्मा अनादि-अनन्त नहीं है व पुनर्जन्म नहीं होता है.”
आप साबित नहीं कर सकते हें न?
तब क्या यह उचित नहीं है कि हम तबतक आत्मा के अनादि-अनन्त स्वरूप को ही स्वीकार करें जबतक कि यह साबित नहीं होजाता है कि आत्मा अनादि-अनन्त नहीं वरन नश्वर है. तब क्यों नहीं हम आत्मा के आगामी अनंतकाल के लिए तैयार रहें; क्योंकि यही हमारे हित में है.
संदेह का लाभ किसे मिलना चाहिए?
यदि हम सुरक्षा के लिए तैयार रहें और फिर खतरा उत्पन्न ही न हो तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा? पर यदि बिना तैयारी के खतरा उत्पन्न होगया तो विचार कीजिये कि हमारा क्या होगा?

सच्चाई तो यह है कि हमें शाश्वत सुख का वास्तविक लाभ तो तभी होगा जब हमें आत्मा के अनादि-अनन्त अस्तित्व का संशय रहित असंदिग्ध विश्वास होगा. ऐसा कैसे हो यह जानने के लिए पढ़ें, इस श्रंखला की अगली कड़ी, आगामी अंक में.


अरे जगत की फ़ूडचैन में सब हें इकदूजे के भक्षक 
यहाँ किसी की कौन सुनेगा 
कौन बनेगा किसका रक्षक 

लाठी वाले की भेंस यहाँ पर 
बस ऐसा ही न्याय मिलता है 
है कौन यहाँ जो हरिश्चन्द्र के 
पावनपदचिन्हों पर चलता है 

जोड़तोड़ के गणित निराले 
दो चार मिले बारह 


यहाँ कौन प्रताड़ित हुआ नहीं - कविता - अपूर्ण

jaipur, saturday, 7th nov. 2015 7.45 am


यहाँ कौन प्रताड़ित हुआ नहीं 
यह जग ऐसा है 
जो भीड़ में शामिल हो न सके 
वह ऐसा वैसा है 

ना आँख मूंदकर करे कभी कुछ 
फूंकफूंककर चलता है 
ना मात्र कभी अनुशरण करे जो 
सोचसमझकर करता है 

ना भेड़चाल में शामिल हो जो 
अपना मार्ग बनाकर चलता है 
कैसे हो वर्दाश्त किसी को 
वह सबकी नजरों में खलता है 

निज द्रष्टि से देखे दुनिया को 
निजकी नीति पर चलता है 
निज निर्णय पर अटल रहे जो 
निज के निर्णय करता है 

स्वप्न भी जिसके अपने हें 
जिसकी मंजिल अपनी है 
जहां नहीं प्रतिरोध किसी का 
क्योंकि कल्पना अपनी है 

विधिविधान भी जिनका अपना 
जिनकी अपनी मर्यादा 
न्याय नीति नैतिकता जिनकी 
बस तय करती मर्यादा 

नहीं डराते कभी किसी को 
नहीं किसी से डरते जो 
उचित लगे जो वे करते हें 
अनुचित कृत्य न करते जो 

बाधाओं से कभी न रुकते 
उन्हें रोंदकर बढ़ जाते 
अन्य कोई जो सोच सके ना 
ऐसा वे कुछ कर जाते 


बिना विचारे जो सबकी 
धारा में बह जाते 
बड़ी भीड़ में शामिल हो जो 
सिन्धु के बिंदु हो जाते 

सबके उठने पर उठ जाते 
सबके सोने पर सोते हें 
सबके हंसने पर जो हंसते 
सबके रोने पर रोते हें 

नहीं विचारें अधिक कभी जो 
बस हाँ में हाँ भर देते हें 
जिसने कहा जो करने को 
तुरत फुरत जो कर देते हें 


Wednesday, March 15, 2023

अबतो "मौन" ही शरण है (लिखना है)

jaipur, monday 8th nov. 2015, 8.20 am 
अबतो "मौन" ही शरण है 
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

सत्य बोलना अब संभव नहीं है और झूंठ मैं बोलना नहीं चाहता. 
चाहत से भी क्या होता है, दरअसल मैं झूंठ बोल ही नहीं सकता हूँ, मुझमें वह योग्यता ही नहीं है.
सत्य बोलने से मात्र हम स्वयं ही संकट में नहीं पड़ते हें वरन हमारे सभी संगीसाथियों पर भी तो इसका बुरा प्रभाव पड़ता है न !
हम अपने संकट से तो निपट सकते हें, उसके परिणाम भी भुगत सकते हें पर हमारे साथियों का क्या होगा ?
दरअसल झूंठ बोलना आज व्यावहारिकता का  और चोरी करना (बौद्धिक संपदा की चोरी या करचोरी ही सही) स्मार्टनेस का प्रतीक बन गया है. 
भ्रष्टाचार तो आजकी जीवनशैली है, यहतो वह जीवनवायु है जिसके बिना कुछ पलभी जीना संभव नहीं है.
अब ये सब शर्मनाक प्रवृत्तियों की श्रेणी में नहीं आते हें. जो यह नहीं कर सकता है  वह out of date माना जाने लगा है.
पहिले तो मात्र न्यायालय ही ऐसे स्थान हुआ करते थे जहां झूंठ को सच और सच को झूंठ साबित करना नागरिकों का कानूनी अधिकार था पर आजतो हर जगह इसका बोलवाला है.
पहिले साहूकार और बनिए की दूकान बेईमानी का आवास मानी जाती थी और बैंक इमानदारी के संरक्षक पर आजतो बैंक इस सफाई से आपकी जेब काटने लगे हें कि आपको अहसास भी नहीं होता है. आखिर बड़े -बड़े धुरंधर MBA की पदवीधारी लोग उनके लिए ऐसी योजनायें तैयार करते हें कि आप समझ ही नहीं पाते हें कि  आपकी कब कट गई ?
जो बैंक आपकी संपदा के संरक्षक माने जाते थे वे ही आज भक्षक बनते जारहे हें. 
और वीमा ?
वह वीमा जो आपकी सुरक्षा की गारंटी था, संकट के समय आपके काम आने के लिए जिसका अवतार हुआ था आज वह स्वयं किसी महासंकट से कम नहीं.
jaipur, thursday , 13  nov  2015  नवबर्ष , 9. 05  am 

यह बर्षों का आना जाना 
निश्चित है अविरल श्रष्टी का क्रम 
पर हम आगे बढ़ पाये हैं 
कोई ना पाले ऐसा भ्रम 

चले जहांसे वहीं खड़े हम 
बस एक दिवस ही तो बीता है 
मेरा घट जो कल रीता था 
वह घट तो अबभी रीता है 

किस तरह इसे उपलब्धि मानूं 
किसलिए करूं मैं अभिनन्दन 

इसी तरह इक और बीतेगा 

जिसका मैं अभिनन्दन करता 
तत्क्षण विलीन हो जाती है 
प्रत्येक प्रातवेला संध्या को 
अंधियारों में खो जाती है 

प्रतिपल नितप्रति अभिनन्दन क्रन्दन
करते करते घट रीतेगा 
बर्ष मास हफ्ते बीते ज्यों 
क्या इसी तरह जीवन बीतेगा

किस तरह करूँ मैं क्यों करता हूँ 
नए बर्ष का अभिवादन 
क्या हो पायेगा अबभी मुझसे 
कर्तव्यों का संपादन 

यदि नहीं किया है मैंने अबतक
अपने लक्ष्यों का निर्धारण 
नहीं किया रेखांकित मैंने 
वह पथ वह साध्य-साधन 

क्या नहीं पुन: यह व्यर्थ रहेगा 
और एक कल का पाना 
फिर एकबार सूर्योदय होना 
एक और दिन ढल जाना 
 


यदि आज सबकुछ तेरे प्रतिकूल है तो दोष किसका ?

jaipur, thursday, 19 th nov 2015, 7.30 am

यदि आज सबकुछ तेरे प्रतिकूल है तो दोष किसका ?
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

अरे भाई! यदि तुझे आज सबकुछ अपने प्रतिकूल दिखाई देता है तो व्यथित मत हो, समता धारण कर! मात्र यही एक उपाय है और यही तेरे हित में भी है.
तू अपनी प्रतिकूलताओं का आरोप संयोगों पर मढ़कर उनके प्रति द्वेष करता है, पर ज़रा पूर्वाग्रह से मुक्त होकर शांत चित्त से विचार तो कर कि तेरी यह मान्यता किस प्रकार यथार्थ से परे है.
जो संयोग तुझे प्रतिकूल भासित होते हें, वही किसी अन्य को अत्यंत अनुकूल लगते हें. और तो और तुझे स्वयं को जो आज को आज जो प्रतिकूल दिखाई देते हें वही कलतक अनुकूल दिखते थे और हो न हो कल फिर अनुकूल दिखाई देने लगें.
एक बात और!
तुझे जो संयोग आज प्रतिकूल दिखाई दे रहे हें उनमें से अधिकतम तो जड़ पदार्थ हें, चेतन तो बहुत कम हें. अब अगर वे जड़ पदार्थ और तद्जनित परिस्थितियाँ कल तक तुझे अनुकूल दिखाई देते थे और आज प्रतिकूल दिखाई देते हें तो उनमें तो राग-द्वेष है नहीं, वे तो राग-द्वेष से प्रेरित होकर परिणमन करते नहीं हें; उनके बारे में तो यह निश्चित ही है कि उनके बारे में अनुकूलता या प्रतिकूलता की धारणा तो तेरी अपनी ही है.
यह सुनिश्चित होजाने के बाद तू यह विचार क्यों नहीं करता है कि जो बात जड़ संयोगों के बारे में सही है वही बात चेतन संयोगों के बारे में क्यों सत्य नहीं होगी? यानिकि उनके बारे में इष्ट-अनिष्ट की परिकल्पना तेरी अपनी है, इसमें उनका कोई योगदान नहीं है.
तब व्यर्थ ही उनसे राग-द्वेष करने का क्या प्रयोजन?
प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है, चाहे वह चेतन हो या जड़ और वे अपने स्वभाव के अनुसार परिणमन करते हें. उनका कोई भी परिणमन तेरे लक्ष्य से नहीं होता है. यदि तुझे उनका कोई परिणमन इष्ट या अनिष्ट प्रतीत होता है तो यह तेरी अपनी मिथ्या कल्पना है, इसकी बजह से वे तो अपना स्वभाव छोड़ नहीं देंगे. छोड़ ही नहीं सकते हें.
एक बात और!
मानलीजिये कि कोई चेतनपदार्थ हमारे विरुद्ध परिणमन कर भी रहा है तो विचारणीय बात यह है कि क्या यह उसका इकतरफा परिणमन है? क्या इसमें हमारा अपना कोई योगदान नहीं है? 
संभव है कि हमें अपने व्यवहार और उसके विपरीत परिणमन के बीच तत्काल कोई सीधा सम्बन्ध दिखाई न भी दे पर क्या हमारे अशुभकर्म के उदय के बिना कोई भी पदार्थ हमारे विरूद्ध, हमारे प्रतिकूल परिणामित हो सकता है?
नहीं न?
तब यदि मुझे कुछभी करने की आवश्यकता प्रतीत भी होती है तो कार्यक्षेत्र कौनसा होना चाहिए?

परपदार्थ या मैं स्वयं?
परिवर्तन की आवश्यक्ता कहाँ है, स्वयं अपने में या परपदार्थों में?
परपदार्थ तो स्वतन्त्र हें, वे तेरे आधीन कहाँ हें कि तू उनमें परिवर्तन कर सके? तुझे ही अपनी मान्यता में परिवर्तन करना होगा. 
यहतो मात्र एक संयोग है (निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है) कि उनका अमुक प्रकार का परिणमन हुआ और तेरा शुभकर्मों का उदय हुआ तो वह तुझे अनुकूल लगने लगे या तेरे अशुभ कर्म का उदय हुआ और तुझे वे प्रतिकूल लगने लगे.
देखा तो यह भी जाता है कि उनका इसी प्रकार का परिणमन हमें कभी तो इष्ट-अनिष्ट प्रतीत होता है, कभी नहीं. यदि वे ही इष्ट या अनिष्ट होते तो सामान अवस्था में वे हमें सदा ही इष्ट या अनिष्ट क्यों नहीं दिखाई देते हें?




सदा याद रखने योग्य -

jaipur,sunday, 29 नवम्बर २०१५, ७.१५ am

सदा याद रखने योग्य -
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल

- रचनात्मक करो, ध्वंस से बचो.

- चुनौती पर ध्यान दो, आखें बंद मत करो.

- जो कल किया जासकता है, अधिकतम मामलों में वही आज भी हो सकता है, तब कल का इंतजार क्यों?

- हमारे कृत्य हमारी अपनी शांति के लिए होने चाहिए किसी अन्य पर प्रभाव डालने के लिए नहीं.

- तेरे लिए सबसे अच्छा औजार वही है जिसके संचालन में तू पारंगत है.

- जब हम बोलते हें तब वह सीखता है, जब वह बोलता है तब हम सीखते हें. बेहतर है हम सीखें.

- अभिप्राय किसी का छुपता नहीं, प्रकट हो ही जाता है, किसी का कुछ जल्दी, किसी का कुछ देर से. 

- स्वभाव (आदतें, नीति, कृत्य, नियत) बदलिए छवि बदल ही जायेगी.

- लोग यह तो जानते ही हें कि आप क्या हें, वे यह भी जानते हें कि आप कैसे दिखने का प्रयास कर रहे हें.

- आपकी किसी भी क्रिया पर लोगों की प्रतिक्रिया आपकी सुविधा के अनुरूप नहीं उनकी आवश्यक्ता (परिस्थिति, स्वभाव, अवसर, स्वार्थ) के अनुरूप होती है.

- सिद्धांतो (नीतियों) का पालन कीजिये, अपने क्र्त्यों पर नीति का पर्दा मत डालिए.

- हमारा प्रत्येक कृत्य ही नहीं वरन प्रत्येक वचन, क्रियाकलाप, हावभाव, चालढाल और मूढ़ संदेशों का सम्प्रेषण करते है.

- बच्चे सिर्फ वही नहीं सीखते हें जो हम उन्हें सिखाना चाहते हें वरन वे वह ज्यादा प्रभावशाली ढंग से सीखते हें जो हम करते हें. 

- सावधान! बच्चे आपको परख रहे हें, वे आपसे सीख रहे हें. 

- इससे पहिले कि आप कुछ कहना प्रारम्भ करें, आपका मूढ़ (हावभाव) आपकी चुगली कर चुके होते हें.

- आपके चरित्र को देखकर लोग जानते हें कि आप कैसे हें, आपकी बातों और व्यवहार से वे जानते हें कि आप कैसे दिखना चाहते हें.

- सतत सफलता मात्र संयोग नहीं वरन सही नीतियों और क्रियाकलापों का परिणाम होती है.

- किसी का सही मूल्यांकन नहीं करना अपने आपके साथ छल है. इससे हम स्वयं ही भ्रमित रहते हें.  

- यह जीवन आत्मकल्याण के लिए है.

- यह तय करले कि उलझे ही रहना है या सुलझना है. 

- पर में परिवर्तन की आकांक्षा अशांति की जनक है. 

- अब उलझने का नहीं सुलझने का समय है.

- कुछ भी हो पर काम चलते रहना चाहिए.

- अपनी क्षमता के अनुरूप उड़ान भरो.

- किसी के अंतर में मत झांको, वहां तो बस विकृतियाँ ही विकृतियाँ हें.

- सतत असफलताएं मात्र संयोग नहीं वरन किसी गम्भीर भूल का परिणाम होती हें.

- किसीको असहज करके हम स्वयं सहज नहीं रह सकते हें.

- सहजता सुख है और असहजता दुःख.

- यह दूरगामी महत्व की बात है कि वह कैसा है. तत्कालीन महत्व इस बात का है कि वह कैसा व्यवहार कर रहा है.

- क्षणिक संयोगों के तत्कालीन व्यवहार पर ध्यान दीजिये और उसके स्वभाव (चरित्र) पर नहीं.

- दूगामी सम्बन्धों में उसके चरित्र (स्वभाव, नीतियाँ) पर ध्यान दीजिये उसके तत्कालीन प्रकट व्यवहार पर नहीं.

- सामान परिस्थितियों में अलग-अलग लोगों का व्यवहार उनके स्वभाव, नीतियों, मूढ़ और आपके साथ सम्बन्धों के अनुरूप प्रथक-प्रथक होता है. 

जनरेशन गैप -
- बुजुर्ग सोचते हें कि समय कम है, जो है आज है बस.
  युवा सोचते हें आगे सारी जिन्दगी पडी है.

- बुजुर्गलोग अनुभवी होते हें, उन्होंने जीवन के निष्कर्ष निकाल लिए हें. युवकों के लिए सबकुछ नया है.

- बुजुर्गों के लिए समय काटना समस्या है और युवकों के पास समय है नहीं.

- बुजुर्गों में शक्ति की कमी है और स्वास्थ्य कमजोर, युवकों में ऊर्जा है और स्वास्थ्य बेहतर है.

- यथार्थ के अभाव में युवक आदर्शों के सहारे जीते हें, बुजुर्गों के आदर्श आहत हो चुके होते हें और वे यथार्थबादी हो जाते हें.

- युवक नवनिर्माण में व्यस्त होते हें और बुजुर्ग मात्र मेंटेंनेंस में.

- युवक आशावादी होते हें और बुजुर्ग निराश.

jaipur, monday, 30 november 2015, 7.49 am 

- सफलता सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि योजनाएँ दीर्घायु होनी चाहिए.

- चिंतन, शोध, साहित्य और कला में असीम संभावनाएं हें. वह कभी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती है. 
चिन्तक, शोधक, साहित्यकार और कलाकार दुर्लभ और अद्वितीय हुआ करते हें.


Thursday, February 23, 2023

मेरे अपने लिए

jaipur, monday, 30 november 2015, 7.57 am

मेरे अपने लिए -
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

- यह जीवन दुर्लभ है, यह विशिष्ट उपलब्धियों के लिए है, सामान्यरूप से बिता देने के लिए नहीं.

- दुनिया में और जीवन में कृत्य अनेकों हें पर सबकुछ अपने लिए नहीं.

- अपनी रूचि, योग्यता और परिस्थिति के अनुरूप अपने लिए कृत्य निर्धारित करो.

- अनन्त के लिए दौड़ने का कोई औचित्य नहीं है, अपनी आवश्यकतायें निर्धारित करना योग्य है.

- क्या सदा दौड़ते ही रहोगे? शीघ्रतम संभव समय में लक्ष्य तक पहुंचकर अधिकतम विश्राम करना योग्य है.

- लक्ष्य सार्थक होना चाहिए, निरर्थक नहीं.

- लक्ष्य सुनिश्चित करो. मार्ग की पहिचान करो और चल पढो.

- अटकने और भटकने से बचो.

- अपने लक्ष्य को मत भूलो.

- हम दौड़ तो निरंतर रहे हें, एक बार भटके तो विदिशा में बहुत दूर निकल जायेंगे. फिर शायद लौटने का अवसर ही न हो.

- यदि वर्तमान में कमजोरी है तो अपने भूतकाल के वैभव के भरोसे किसी से कुछ नहीं पाया जा सकता है सिवाय सहानुभूति और दया के.  

- अपने स्वर्णिम भविष्य की आशा (संभावना) के सहारे सिर्फ कर्जा मिल सकता है और कुछ नहीं.

 jaipur,wednesday, 2 dec. 2015, 7.37 am



यदि ध्वंस तेरे ख्वाबों में हिलोरें ले रहा है तो समझ लेना कि निश्चित ही दुर्भाग्य ही दस्तक देरहा है.

जयपुर, गुरुबार, ३ दिसम्बर २०१५, रात्रि १०.13

यदि ध्वंस तेरे ख्वाबों में हिलोरें ले रहा है तो समझ लेना कि निश्चित ही दुर्भाग्य ही दस्तक देरहा है.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल  

ज़रा विचार तो कर !

- यदि तेरे भाग्य में सुख और संतुष्टी लिखी होती तो क्या तू अभी सुखी नहीं होता?

- तू सुखी होने की चाहत में जिन हालातों की परिकल्पना करता है, ज़रा विचार तो कर कि उन हालातों में जीरहे लोग आज कितने सुखी हें? 

- अबतक के तेरे जीवन में सदा हालात तो एक जैसे नहीं थे न ?
  तेरे हालात तो कई बार बदले हें न ?  सदा ही बदलते ही रहे हें न ? 
  पर तू सुखी और संतुष्ट कब हुआ ?
  कभी भी नहीं न ?
  तो अब कैसे होगा ? 

- हमलोग मात्र सुनहरे भविष्य की कामना में ही व्याकुल नहीं होते हें वरन   कथित स्वर्णिम अतीत की यादों से भी व्यथित बने रहते हें. तब इस बात की क्या गारंटी है कि भले ही आज तू परिवर्तन की कामना में अधीर होकर दुखी है पर कल फिर अपने इस आज वाले अतीत को याद करके दुखी नहीं होगा ?
पर क्या तू फिर इसे लौटा सकेगा ?
नहीं न ?
तब क्यों नहीं किसी बड़े उलटफेर और विध्वंस के सपने छोड़कर उस सही समझ का विकास करता है जो तेरी व्याकुलता को  कम कर सके, मिटा सके. क्योंकि सुख और संतुष्टी तो समझ में ही है परिवर्तन में नहीं.

- तेरी व्याकुलता का कारण कोई परिस्थिति विशेष नहीं वरन चाहत है, प्रतिपल एक नई चाहत. 
तू कुछ भी करले, पर तेरी चाहतें तो ख़त्म होंगी नहीं, चाहतें तो बनी ही रहेंगीं, तब तू सुखी कैसे होगा ? इसलिए यदि कुछ करना है तो चाहतों के अभाव का उपक्रम कर. विध्वंस तो व्यर्थ है.  
   


यदि तुम्हारे ह्रदय में विध्वंस की कामना की लहरें उठ रही हें तो सावधान !
ऐसी कोई गल्ती करने से पहिले 1000 बार विचार करना !
क्योंकि तेरे हाथ पश्चाताप के शिवाय कुछ भी लगने वाला नहीं है.

जनता है क्यों ?

अरे अभागे ! 
इसलिए कि अभागों के भाग्य में मात्र पश्चाताप ही लिखा होता है.

अरे ! यदि तू आज भी असंतुष्ट और व्याकुल है, तो तेरा दुर्भाग्य चाहे तुझे जो भी ख़्वाब दिखा रहा हो पर इतना समझ ले कि यदि तू विध्वंस पर ही उतारू है तो तेरा आगामीकाल और भी अधिक भयावह है.
क्योंकि विध्वंस तो होता ही दुर्भाग्यपूर्ण है.

अरे भोले ! यदि तेरे पल्ले में खुशी और संतोष का पुण्य होता तो तुझे आज भी इन्हीं हालातों में खुशियाँ नहीं मिल जातीं ?
पर यदि तू व्याकुल ही है तो इसका मतलब यह है कि तेरे भाग्य में ही व्याकुलता लिखी है और तेरा दुर्भाग्य मात्र इतने में ही संतुष्ट नहीं है इसलिए तेरे चित्त में ये ध्वंसात्मक विचार हिलोरें ले रहे हें.

यह विचार मात्र मेरे ही नहीं हें वरन दुनिया में तू जिसे भी इस योग्य समझता है उसीसे सलाह ले लेना. कोई तुझे विध्वंस के पक्ष में सलाह दे ही नहीं सकता है.
खुदा न खास्ता यदि कोई ऐसा मिल ही जाता है तो अविवेकियों और अपने दुश्मनों की लिस्ट में उसका नाम सबसे ऊपर लिख देना. उससे सावधान रहना , क्योंकि हो नहो वही तेरा दुर्भाग्य बनकर अवतरित हुआ हो. 
आखिर दुर्भाग्य भी कोई न कोई रूप धारण करके तो आयेगा ही न !  

अरे दुखिया ! 
यह जगत है ही ऐसा !
यहाँ कौन ऐसा है जो सुखी और संतुष्ट हो ?
कुछ लोग अपने दर्दों से दुखी हें तो कुछ औरों के दुखड़ों से.
अभागे लोग अपनी समस्याओं से परेशान हें तो सज्जन लोग दूसरों का दुःख देखकर दुखी रहते हें.
यहाँ सभी लोग अपने हालातों से असंतुष्ट और दुखी हें और थोड़े से शुकून की आशा में परिवर्तन चाहते हें. क्योंकि जो वे भुगत रहे हें उससे तो असंतुष्ट हें ही, या तो अनिष्ट के कारण और या फिर और अधिक बेहतरी की चाहत में.
तो क्या परिवर्तन उन्हें सुखी कर सकेगा ? 
हाँ ! अवश्य !!
यदि सर का बोझ कंधे पर रखकर कोई सुखी हो सकता है तो अवश्य ही परिवर्तन उन्हें सुखी करेगा, कुछ ही पलों के लिये. फिर कुछ ही पलों के बाद वे फिर किसी और परिवर्तन के स्वप्नों में खो जायेंगे.
क्या तुझे ऐसा ही सुख चाहिए ?







यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो

jaipur, friday, 4th dec. 2015, 6.55 am

यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो 

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल

"यदि अपने ही घर पर, अपने ही लोगों के बीच अनुकूलता, अपनत्व, प्यार, सम्मान और शुकून का अहसास न हो तब फिर दुनिया में तो यह सब खोजना व्यर्थ ही है, तबतो मात्र एक ही नियति है प्रतिकूलता, परायापन, प्रताड़ना, अपमान और क्षोभ बस !
यदि सुख चाहिए तो घर को घर बनालो !
घर एक ऐसा स्थान है जहां यह व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतम समय व्यतीत करता है. यदि हमें घर पर सुख-शांति मिलने लगे तो हमारा बहुभाग जीवन तो सुखी हो ही जायेगा न ?"


हे भाई ! तू सुख और शुकून चाहता है न ?
नित प्रति यही तो खोजा करता है तू ! हर वस्तु में, हर व्यक्ति में, प्रत्येक स्थान पर.
पर क्या मिला ?
सुख नहीं मिला न ?
मिलता भी कैसे ?
तेरे सारे क्रियाकलाप तो व्याकुलता पैदा करने वाले हें तब उनमें से निराकुलता कैसे उत्पन्न होगी ?
हालांकि तेरी आकुलता और व्याकुलता के कारण तो सारे ब्रहम्मांड में ही व्याप्त हें पर हम दूर क्यों जाएँ, क्यों नहीं घर से ही शुरुवात करें.
क्योंकि उनका दुर्भाग्य मुझसे देख नहीं जाता जिन्हें घर में ही शान्ति नहीं मिलती, अपनों के बीच ही सुख नहीं मिलता.
हर व्यक्ति को एक सुखी और सुरक्षित घर चाहिए जहां वह निशंक रह सके, बेरोकटोक और वेपरवाह, स्वच्छंद और निराकुल. 
एक ऐसा घर जहां उसकी ऊर्जा का शोषण न हो वरन उसे एक नई ऊर्जा मिले. 
एक ऐसा घर जहां उसकी कमजोरियों का दुरूपयोग न हो वरन निराकरण हो.
एक ऐसा घर जहां उसके अभावों का तमाशा न हो उनकी पूर्ति हो.
एक ऐसा घर जहां उसे धिक्कार नहीं सम्मान मिले.  
एक ऐसा घर जहां कोई अनुशास्ता और कोई अनुशासित न हो, जहां मात्र आत्मानुशासन हो.
एक ऐसा घर जहां सहिष्णुता हो और हर कोई एक दूसरे की अनुकूलता के लिए प्रयत्नशील हो.
एक ऐसा घर जहाँ उसकी भावनाओं का सम्मान हो.
विशाल सोच, द्रष्टिकोण और ह्रदय वाले महापुरुष तो सारी दुनिया के लिए इसी प्रकार की भावना रखते हें, उसके लिए प्रयत्नशील भी रहते हें पर हम दुनिया के लिए न सही अपने घर के लिए तो ऐसा कर ही सकते हें न?
घर के लिए का मतलब अपने लिए ही तो हुआ न क्योंकि हम भी तो उसी घर के एक अंग हें.
क्या हम स्वयं अपने लिए ही इतना अभी नहीं कर सकते हें ?
घर एक ऐसा स्थान है जहां यह व्यक्ति अपने जीवन का अधिकतम समय व्यतीत करता है. यदि हमें घर पर सुख-शांति मिलने लगे तो हमारा बहुभाग जीवन तो सुखी हो ही जायेगा न ?

हमारी भूल तब होती है जब हम अपने और पराये  का स्वरूप नहीं समझते हें. अपने और पराये  में अंतर नहीं करते हें. अपने और परायों के बीच व्यवहार की तुलना करने लगते हें.
ऐसा करेंगे तो क्या होगा ?
यदि अपनों से परायों का सा ही व्यवहार करेंगे तो दोनों में फर्क ही क्या रहेगा,अपनत्व कैसे रहेगा, अपने अपने कैसे रहेंगे ?
अरे भाई ! तेरे अपने तो हैं ही कितने ? 
परायों की तो कोई कमी नहीं है. मात्र कुछ ही गिनेचुने लोगों को छोड़कर बाकी सभी पराये ही तो हें, सारी दुनिया ही तो पराई है. 
तुझे परायों की तो कोई कमी रहने वाली नहीं है, पर यदि एक अपना कम हुआ तो अपनों का एक बहुत बड़ा भाग कट जाएगा.



ककडी की कीमत (कहानी)

jaipur, friday, 13 nov. 2015, 12.40 pm

ककडी की कीमत  (कहानी)

- परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

दीपावली के बाद भाईदूज का दिन था. सारा बाजार बंद था पर बेटे को अत्यावश्यक काम होने उसके साथ एकाध घंटे के लिए मुझे भी ऑफिस जाना पडा.
मैं जब भी बाजार से निकलता हूँ तो सड़क के किनारों पर सजे ताजा-ताजा फलों और सब्जियों से सजे ठेले ही मेरे लिए वे सुन्दरतम द्रश्य हुआ करते हें जिन्हें मैं निहारता रहता हूँ. फलों या फूलों से लदा यदि कोई वृक्ष दिखाई देजाए तबतो कहना ही क्या. 
पार्किंग में गाडी पार्क करने के बाद हमलोग ऑफिस की और चले जारहे कि मेरी नजर सड़क के किनारे ताजा तरकारियों की दुकान पसारे अकेली बैठी उस बूड़ी अम्मा पर पड़ी जो दीन दुनिया से बेखबर बस अपने में मगन थी. सामने दो-तीन टोकरों में अलग-अलग सब्जियां भरी थीं और सबसे आगे एक बारदाने पर बेतरतीब सा बिखरा खीरों का ढेर लगा था. स्पष्ट था कि उन्हें खेत से लाकर सीधा यही पटक दिया गया था, न तो उन्हें धोकर साफ़ ही किया गया था और न ही उनकी छंटाई की गई थी, इसीलिये उस ढेर में सभी तरह के खीरे विद्यमान थे. सीधे-सपाट से लेकर आड़े-भेड़े तक, एकदम कच्चे-कौले से लेकर पके हुए तक और नन्हे से लेकर भारी-भरकम तक.
मेरी नजरें उन कच्चे-कौले, सीधे, नन्हे खीरों पर अटक गई. मुझे साफ़ दिखाई देरहा था कि ऐसे खीरे बहुत ही कम थे. मुझे यह भी मालूम था कि आज पूरे बाजार में कहीं भी खीरे नहीं मिलेंगे और यूं भी आजकल खीरे का मौसम उतार पर है इसलिए कल भी वे कहीं मिलेंगे या नहीं कहा नहीं जा सकता था.
मुझे खीरे बहुत पसंद हें पर दुर्भाग्य कि वे बर्ष में मात्र कुछ ही दिन उपलब्ध होते हें. सबकुछ मिलाकर निष्कर्ष यह है कि मेरा मन खीरों पर लुभा गया पर उन्हें लेकर ऑफिस जाना ठीक नहीं लग रहा था, समय भी कम था, जल्दी लौटना भी था, यही सोचकर मनमारकर मैं खीरे लिए बगैर ही आगे बढ़ गया. 
मैं मात्र खीरे ही नहीं अपना मन भी वहीं छोड़ आया था, मैं आफिस तो पहुँच गया पर मेरा मन उन कौले-कौले खीरों में ही अटका रहा, आफिस पहुंचकर बेटा तो अपने काम में लग गया पर मेरा मन काम में नहीं लगा और मैं बस इसी योजना में मगन रहा कि कब आफिस से निकलूं और इससे पहिले कि कोई और उन्हें छांटकर लेजाये, कैसे जाकर सबसे पहिले मैं उन कौले-कौले खीरों को छांटकर लेलूँ.
हलांकि इस बात की संभावना भी कम ही थी कि कोई और उन्हें ले जाएगा, क्योंकि मेरे जैसे सफ़ेद कालर वाले लोग तो उस जैसी दूकान की ओर ताकेंगे भी नहीं. उन्हें तो सजी-सजाई बड़ी सी दूकान पर तरतीब से सजे, एक जैसे छंटे-छंटाये, साफ़-सुथरे और महंगे भाव वाले फल व सब्जियां लेने की आदत होती है, और सामान्यजन खीरों के उतने पैसे देने को तैयार नहीं होता है जितने वह सब्जी बेचने वाली निष्ठुर माता मांगती है. 



ना सूनी मानी एक तुमने 
मैं बात जो कहता रहा 
प्रहार तुम करते रहे 
और मैं सहता रहा 

अफ़सोस होगा एक दिन 
निश्चित तुम्हीं पछताओगे 
ब्रहम्मांड सारा घूमकर 
तुम इसी दर पर आओगे 

जो आज सन्मुख खड़े तेरे 
ना काम तेरे आयेंगे 
प्रसंगवश वे आ मिले हें 
फिरसे जुदा हो जायेंगे 

मुझे पहिचाने नहीं तुम 
उनको भी तू जाना नहीं 
जनम भर हम साथ थे 
क्या फर्क पहिचाना नहीं 







लिखना है - कविता - अपने ही दायरे में सिमटते जारहे हैं लोग कोई बाहर निकल ही नहीं पाता है

अपने ही दायरे में सिमटते जारहे हैं लोग 
कोई बाहर निकल ही नहीं पाता है 
यहां तो सिर्फ घोंसले दिखाई देते हैं 
पंछी तो नजर ही नहीं आता है 


पंछी या तो घोंसले में कैद  हैं 
या उड़कर जाचुके हैं 
दूर कहीं 
एक नया आसियाँ  बसा चुके हैं 


चिढ़ा रहे हैं सूरज को 
या खुदको ही छल रहे हैं लोग 
कुछ मोमबत्तियां जलाकर 
हद से आगे बढ़ रहे हैं लोग 


ये आज मुझको 
कितने बौने नजर आरहे हैं लोग 
फूंककर घर अपना 
तमाशा दिखा रहे हैं लोग 




सार्थक जीवन

Jaipur, Sunday, 19 june 2016, 9.45 am

सार्थक जीवन
(हमारा जीवन निष्कर्षविहीन न रह जाए, सार्थक हो, सफल हो. कैसे ? एक चिंतन)
-   परमात्म प्रकाश भारिल्ल

रूपरेखा –
-   जीवन क्या है ?
-   बिना किसी ट्रेनिंग के जीवन कैसा होगा ?
-   जो हम करते हें वह ट्रेनिंग का परिणाम है
-   हम कैसे जियें यह किसने तय किया है ?
-   हमारा जीवन कैसा हो यह किन कारकों (तथ्यों) पर निर्भर करता है ?




जीवन क्या है ?-
“एकदिन हम जन्म लेते हें और फिर एक दिन मर जाते हें; इन दो दिनों के बीच जो समय हम बिताते हें वही हमारा यह जीवन है”
जीवन को यदि एक ही लाइन में परिभाषित करना हो तो मात्र यही कहा जा सकता है, पर क्या यह इतना सरल है ?
नहीं ! कतई नहीं !!
क्यों ?
क्योंकि यह कोई छोटा सा काल नहीं है, यह कुछ पलों से लेकर 100-125 बर्ष तक कुछ भी हो सकता है.
यदि यह एक लंबा समय है तब यह महत्वपूर्ण होजाता है क्योंकि इतना लंबा समय मात्र विचारहीन और उद्देश्यहीन रहकर ही नहीं बिताया जा सकता है.
यदि कदाचित यह थोड़ा सा समय है, जीवन छोटा है तबतो यह और अधिक महत्वपूर्ण होजाता है क्योंकि अब इस जीवन में जो कुछ भी करना है, मात्र उसी छोटे से समय में करना है.   
तात्पर्य यह है कि जीवन छोटा हो या लंबा, यह है अत्यंत महत्वपूर्ण; और यह यूं ही विचारहीन तरीके से जीकर नहीं काटा जा सकता है,  नहीं बिताया जा सकता है, बर्बाद नहीं किया जा सकता है.
पर हम क्या कर रहे हें ?
क्या हम यही नहीं कर रहे हें ?


हमारे जीवन की दिशा कौन तय करता है ? -
हममें से कौन है जो अपना जीवन अपनी पसंदगी के अनुसार जी रहा है, जिसने अपने जीवन के बारे में चिंतन किया है, अपने जीवन के तौरतरीके और लक्ष्य स्वयं तय किये हें ?
यहाँ कौन है जिसने अपने इस जीवन में जीवन के लक्ष्य हासिल किये हें ?
हमने अपने इस जीवन में क्या पाया है ?
कुछ लोग कहेंगे कि ऐसा तो नहीं है कि हमें अपने इस जीवन में, अपने इस जीवन से कुछ भी नहीं मिला है, मिला तो हमें बहुत कुछ है.
मैं उन लोगों से पूंछना चाहता हूँ कि क्या हमें वही सब मिला है जो हम पाना चाहते थे ?
यदि नहीं तो मेरा दूसरा सवाल है कि हमारी उन वस्तुओं को हम क्या कहते हें जो हमारे काम की न हों ?
कबाड़ ही न ?
वे वस्तुएं हमारी liavility हें या assets, वे हमारी संपत्ति हें या विपात्ति ?
यदि हम उन वस्तुओं को बेचना चाहें तो हमें कितना दाम मिलता है? वे रद्दी के भाव ही बिकती हें न ?
अरे कभी-कभी तो उन्हें फिकबाने के लिए भी पैसे खर्च करने पड़ते हें.
अब आप ही कहिये कि हमने जीवन में वह जो कुछ भी पाया है जिसकी हमें चाहत ही न थी, जो हमारा लक्ष्य ही नहीं था, उसकी क्या कीमत है ?
क्या यह बिडम्बना ही नहीं ही कि विचारहीन अपने इस जीवन में हम वह कुछ भी हासिल न कर सके जो करना चाहिए था और हमें जो मिला उसकी हमें चाहत न थी, आवश्यक्ता न थी.
महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि हमें यह जीवन किस प्रकार से जीना है, इस जीवन में हमें क्या पाना है, क्या हासिल करना है इस बात का निर्णय कौन करेगा, कब करेगा ?
हम करेंगे या कोई और ?
अभी करेंगे या जीवन लगभग बीत जाने के बाद ?
यदि हम ही करेंगे तो किस आधार पर ?
यदि हमारे जीवन का निर्णय कोई और ही करता रहेगा तो वही होता रहेगा जो आज होरहा है.
हो न हो, मेरे इस कथन से कदाचित आप सहमत न हों !
आप कह सकते हें कि क्या आपने हमें इतना नकारा समझा है कि हमारे बारे में निर्णय कोई और करे ? हम सब पढ़े लिखे, बुद्धिमान और जागरूक लोग हें, हम स्वतंत्र विचारों वाले हें और अपने फैसले हम स्वयं ही करते हें, कोई और नहीं.
जी हाँ !
हम इसी भ्रम में जीते हें.
वक्त के तीव्र प्रवाह में अनियंत्रित से बहते चले जारहे हम सभी लोग इसी भ्रम में जीते हें कि हमारा जीवन हमारे अपने नियंत्रण में है और इसकी दिशा हम स्वयं तय करते हें.
यदि सही निष्कर्ष पर पहुंचना है तो सबलोग विचार करें कि अबतक हमने जितना अभी जीवन जिया है उसकी दिशा और लक्ष्य किसने तय किये हें ?
हम पायेंगे कि यह सब न तो हमने किया है और न ही उन्होंने ही, जिनसे हमारा यह जीवन प्रेरित है. यह तो बस अनादि का ऐसा अनवरत प्रवाह है जिसमें हम सभी बहते चले जारहे हें.
क्या कहा ? आपको यह स्वीकार नहीं ?
तो बतलाइये आपके बारे में यह निर्णय किसने किया कि आप वस्त्र पहिनें, निर्वस्त्र न रहें.
मैं आज की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं बात तब की कर रहा हूँ जब इस बारे में आपकी अपनी कोई राय ही न थी. उस शैशवावस्था में आपके बारे में यह निर्णय किसने किया था कि आप भोजन क्या करेंगे ? आप शाकाहारी रहेंगे या मांसाहारी बनेंगे ? किसने तय किया था कि आप स्कूल कब जायेंगे, कौनसे स्कूल जायेंगे या जायेंगे भी या नहीं ?
किसने निर्णय लिया था कि आपकी भाषा क्या होगी, धर्म क्या होगा ?
निश्चित ही स्वयं आपने नहीं, किसी और ने ही यह सब किया था.
किया था न ?
आप कह सकते हें कि अरे ! तब तो हम अबोध थे, नासमझ थे, निर्वल थे, साधनहीन थे, परवश थे; तबकी क्या बात करते हो ?
जबसे हमने होश सम्भाला है तबसे तो अपने सारे निर्णय हम ही करते आये हें.
ठीक है, यही सही !
आपकी उम्र क्या होगई है ? 70 साल ?
विल्कुल ठीक ! अबतो आप बहुत सक्षम हें, पढ़े-लिखे हें, साधन सम्पन्न हें, जीवनभर का अनुभव भी आपके पास है. आपके अपनों का तथा मित्रों और शुभचिंतकों एक बहुत बड़ा वर्ग भी आपके साथ है.
तो बतलाइये अब आजतो अपने सारे फैसले आप स्वयं ही करते होंगे न ?
किस नगर में, कहाँ रहना, क्या खाना, क्या पहिनना, कब सोना व कब जाग जाना, कौनसी पैथी से अपना इलाज करबाना, किस डाक्टर को दिखाना यह सबतो तेरे व्यक्तिगत मामले हें न ? इनका निर्णय तो तू ही करता होगा न ?
पोते-पोतियों के साथ कब खेलना-खिलाना, उन्हें क्या पढाना-लिखाना, उनके साथ क्या बातें करना और क्या नहीं करना इसका निर्णय कौन करता है ? अच्छा उनके माता-पिता करते हें न ?
अरे तू तो उनके माता-पिता का भी माता-पिता है जब पोते-पोतियों का निर्णय उनके माता-पिता करते हें तो अपने बेटों का निर्णय तू क्यों नहीं करता है ?
अच्छा अब कहता है कि तूने दूसरों के मामले में दखलंदाजी करना छोड़ दिया है ?
अब अपने ही बच्चे दूसरे होगये, पराये होगये ?
ठीक है, दूकान तो तूने स्थापित की थी, व्यापार भी तूने ही जमाया था, बड़ी होशियारी के साथ, तभी तो इतना सफल हुआ न !
अब दूकान पर जाना या नहीं जाना, कौनसा माल किस भाव खरीदना और बेचना, किसे बेचना या न बेचना ये सब निर्णय तो अब भी तू ही करता होगा न ?
अच्छा यह तूने बच्चों को सोंप दिया है, तो वे लोग भी यह सब तुझसे पूँछ-पूँछ कर करते होंगे न ? आखिर उनके पास तेरे बराबर अनुभव कहाँ है, हो भी कैसे सकता है.
ok-ok वे सब बहुत होशियार और सक्षम हें उन्हें आपसे पूंछने की जरूरत ही नहीं पड़ती है, आखिर बच्चे किसके हें ?
खैर, न सही वे कुछ पूँछें पर यदि आपको ही कभी-कभार कोई सलाह देने का मन होआये तो ?
सुन तो लेते होंगे ?
मान तो जाते होंगे ?
आखिर आप जो भी कहेंगे उनके भले की ही तो कहेंगे न !
अच्छा आपका ही मन नहीं करता है उन्हें कोई सलाह देने का !
उचित ही तो है.
जो भी हो, एक बात तो निश्चित है कि आपके आजके जीवन और जीवनशैली पर आज आपका अपना कोई नियंत्रण नहीं है. आज यह आपके सिद्धांतों, विचारों और मानसिकता का प्रतिनिधित्व नहीं करती है.
एक बात बतलायेंगे ?
आपका यह अलिप्तता और निरपेक्षता का सिलसिला कबसे चल रहा है ?
यह कब और कैसे प्रारम्भ हुआ ?
आप रिटायर कब होगये ?
क्या आपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है ?
यदि नहीं, तो विराम कैसा ?
यदि ठहर गए तो अब कब करोगे ?
कया अब ऐसे ही चले जाना है ?
क्या यह उचित है ?
पर इसमें आप कर ही क्या सकते हें ? आप स्वयं तो रिटायर हुए नहीं हें, ये तो वक्त ने और आपके अपनों ने ही आपको नाकाविल घोषित कर डाला.
क्या यह सच नहीं है ?
चलिए एक बार फिर अपने पिछले जीवन की और रुख करते हें.
जबसे तूने होश सम्भाला तबसे तूने अपने निर्णय स्वयं लेना प्रारम्भ किया और यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब कथित तौरपर तूने स्वयं ही दूसरों के मामले में दखलंदाजी बंद करदी और यह सब काम अपने योग्य बच्चों को सोंप दिया. 
अब थोड़ी चर्चा उस दौर की भी होजाये जब तू अपने करियर के फुलफॉर्म में क्रीज के स्ट्राइकिंग एन्ड पर बैटिंग कर रहा था.
तबतो तूने अपने जीवन की दिशा  और परिणति (destiny), अपने जीवन के लक्ष्य स्वयं ही तय किये होंगे न ?
नहीं न ?
अरे ! यही तो दुर्भाग्य है, तब भी तू (हम सभी) दौड़कर चलती हुई गाडी में सबार होगया था (हो जाते हें) बिना यह जाने कि गाडी जा कहाँ रही है.
होता यह है कि स्कूल पूरा करने के बाद हमारे सामने २-४ विकल्प प्रस्तुत कर दिए जाते हें कि हमें क्या बनना है, इनमें भी ऐसे सौभाग्यशाली तो विरले ही होते हें जो वह बन पाते हें जो वे बनना चाहते हें, वर्ना तो डाक्टर बनने की चाह रखने वाला कम्पाउंडर बनकर रह जाता है और प्रोफ़ेसर बनने की चाह रखने वाला मास्टर.
इस प्रकार शुरू होजाता है एक लम्बी दौड़ और अन्तहीन होड़ का सिलसिला जो अंतत: थककर हमारे मैदान से बाहर होजाने तक जारी रहता है.
वही जॉब, शादी, गृहस्थी, बच्चे और अंतत: रिटायरमेंट.
इसके बाद शुरू होता है अनगिनत if & buts का आपरेशन. यदि मैं ऐसा करता तो ऐसा होजाता, काश मैंने ऐसा ना किया होता तो आज यह होता आदि -----. बस पलंग पर पड़े छत को ताकते रहो और गड़े मुर्दे उखाड़ते रहो.
जीवन के उस दौर में भी, जिसे तू सचमुच अपना दौर कहता और मानता है, तू
सचमुच स्वतंत्र कहाँ रहा, जीवन में ही नहीं विचारों में भी ?

क्या हमारे पास जीवन के विकल्प सीमित हें ? -
तूने अपना आप्शन कब चुना, तूने अपना जीवन स्वयं कब डिजाइन किया ? तू तो बस आब्जेक्टिवटाइप के सबालों के जबाब के रूप में दिए गए चार विकल्पों में से एक पर टिकमार्क करता रहा. तेरे पास पांचबां विकल्प कभी रहा ही नहीं न; और न ही तूने उसकी तलाश ही की.
बस इस तरह मेरे और मेरी ही तरह दुनिया के अन्य सभी लोगों का जीवन आब्जेक्टिवटाइप प्रश्नों के चार संभावित जबाबों के दायरे में ही सीमित बना रहा.
अरे भोले !
यह जीवन अनगिनत फेक्टर्स पर आधारित है, उन अनगिनत में से एक फेक्टर में भी मामूली सा भी परिवर्तन हुआ तो जीवन के सारे के सारे समीकरण सम्पूर्णत: बदल जाते हें.
इस दुनिया में इतने लोग हें और सभी के सारे के सारे फेक्टर्स एक दुसरे से विल्कुल अलग-अलग, सर्वथा भिन्न हें, तब सारे के सारे लोग मात्र एक ही  धारा में, एक जैसा जीवन कैसे जी सकते हें ?
यह रेडीमेड कपड़ों का कांसेप्ट मुझे तो कभी समझ ही नहीं आया. दुनिया में जितने लोग हें उतनी ही तरह की उनके शरीर की बनाबट होती है. यह कैसे संभव है कि आप मात्र चार प्रकार के माप के कपडे बना दीजिये - small, medium, larg & extra large और वे सबको fit बैठ जाएँ ?
पर चल रहा है, सब कुछ धड़ल्ले से चल रहा है.
बस इसी उदाहरण से साबित होजाता है कि अपनेआपको बहुत smart, perfectinisht, to the point, accurate & precise समझने वाली यह दुनिया हकीकत में कितनी स्थूल है.
मैं यहाँ इस दुनिया की आलोचना करने नहीं बैठा हूँ.
होगी, कभी और कहीं, किसी मामले में यह accurate & precise भी होगी, पर इससे क्या ?
जो कभी झूंठ बोले कभी सच, हम उसपर अंधा भरोसा तो नहीं ही कर सकते हें न ? हमें सावधान तो रहना ही होगा, अपने विवेक को तो जाग्रत रखना ही होगा.

हमारा वर्तमान जीवन किससे प्रेरित है ? –
हमारी वर्तमान जीवनशैली मौलिक नहीं है, इसे हमने अपनी रूचि, योग्यता और लक्ष्यों के अनुरूप स्वयं अपने लिए विकसित नहीं किया है. यह प्रेरित है, impossed है, हम पर लादी गई है.
इस प्रकार से जीवन जीने के लिए किसी ने हमें ट्रेनिंग दी है.
हम जंगल में नहीं नगर-गाँव में पैदा हुए. हमें सिखाया गया कि इस प्रकार कपड़े पहिनने चाहिए, इस प्रकार भोजन करना चाहिए, यह काम यहाँ और वह काम वहां करना चाहिए सो हम वही सब करने लगे. originally तो हम सब उन शिशुओं के सामान ही थे जो जब चाहें, जहां चाहें, जो चाहें कर डालते हें. समय, स्थान और मौके की नजाकत से निरपेक्ष.
न गिला-शिकवा और न ही लाज-शर्म. न भय और न ही परवाह.
इसी प्रकार हमें आगे का जीवन किस प्रकार जीना चाहिए, इन बातों की ट्रेनिंग भी अपने माता-पिता, परिवार और समाज से मिली.
यही उचित भी है.
जीवन में शिक्षा और ट्रेनिंग की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है. यही शिक्षा न हो तो अबतक हुए ज्ञान के विकास का लाभ किसी को न मिल सकेगा, सभी को अपना जीवन शून्य से ही प्रारम्भ करना पडेगा; परिणाम यह होगा कि हम शून्य से प्रारम्भ करके 5 पहुंचेंगे और जीवन पूरा हो जाएगा. दूसरा भी यही करेगा, इस प्रकार तो विकास की प्रक्रिया ही रुक जाएगी जो हमें भी इष्ट नहीं है.
यहाँ समझने और ध्यान देने योग्य बात यह है कि – अबतक हुआ विकास और प्राप्त ज्ञान ही विकास व ज्ञान की पराकाष्ठा नहीं है. यह तो सिन्धु का बिन्दु मात्र है. 
यदि हमें अपने जीवन में सम्पूर्णता लानी है और अपने इस दुर्लभ मानव जीवन का सदुपयोग करना है तो उपलब्ध सूचनाएं/ज्ञान जान लेने के बाद, अपने हित में आगे ज्ञान का विकास स्वयं ही करना होगा.
यही वह संधिस्थल है जहां हम चूक जाते हें.
ऐसा क्यों होता है इसका भी कारण है.
विकास की इस यात्रा में यहाँ तक पहुचे हुए अनेकों लोग तो हमारे आसपास बहुतायत से मौजूद हें पर विकास के चरम तक पहुंचे लोग बहुत आगे निकल गए हें, हमारी पहुँच से बाहर हें, वे हमें उपलब्ध नहीं हें. इससे तनिक आगे जो लोग प्रयासरत हें वे हमें स्वयं ही भ्रमित दिखाई देते हें, वे हमारे आदर्श नहीं हो सकते हें.

सम्पूर्ण विकसित का जो ज्ञान आगम में उपलब्ध है वह किसी प्रत्यक्ष उदाहरण के अभाव में हमारी बुद्धी को स्वीकार नहीं हो पाता है और इस प्रकार हम आधे-अधूरे बने रहने के लिए ही अभिशप्त हें.