तू चाहे या न चाहे कहीं तो रुकना ही होगा .
कहीं तो सीमा आ ही जायेगी जिससे आगे तो तू जा ही नहीं सकेगा .
या तो तू ही थक जाएगा या कोई तुझे रोक लेगा .
या तो तेरी इक्षाशक्ति , तेरी इन्द्रियाँ तेरा समय तुझे रोक लेगा या तेरे प्रतिद्वंद्वी और वे लोग तुझे रोकेंगे जिनके हितों का तेरे हितों से टकराव होगा और कुछ लोग खामखाँ भी , ऐसे लोग भी दुनिया में कम नहीं .
बेहतर है क़ि तू थोड़ा पहिले ठहर जा , वक्त रहते .
इससे पहिले क़ि तू थक हार कर चकचूर हो जाए , कुछ भी करने लायक ही न रहे .
न तो तेरे पास समय ही बचे और ना ही ऊर्जा .
इससे पहिले क़ि कोई तुझे रोके , प्रतिरोध करे .
दुनिया में भोग सामग्री की भी सीमा है और भोग शक्ति की भी पर तेरी तृष्णा अनन्त है .
तेरी तृष्णा तो कभी संतुष्ट हो नहीं सकती है , तब क्यों नहीं तू ही अपनी तृष्णा को सीमित करे .
समाधान वहां करना उचित है जहां समस्या की जड़ है .
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