धर्म के दशलक्षणों में आठबां -
उत्तम त्याग धर्म -
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
"दान को ही त्याग मानकर अपनेआपको धर्मात्मा मानने वाले दानवीरो जबाब दो!
अगर आपही उत्तम त्याग धर्म के धारी धर्मात्मा हें तो उन निर्ग्रन्थ वीतरागी संतों का क्या होगा जिनकेपास देने को कोई द्रव्य है ही नहीं?
तो क्या वे धर्मात्मा ही नहीं रहेंगे ?"
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
"दान को ही त्याग मानकर अपनेआपको धर्मात्मा मानने वाले दानवीरो जबाब दो!
अगर आपही उत्तम त्याग धर्म के धारी धर्मात्मा हें तो उन निर्ग्रन्थ वीतरागी संतों का क्या होगा जिनकेपास देने को कोई द्रव्य है ही नहीं?
तो क्या वे धर्मात्मा ही नहीं रहेंगे ?"
उत्तम त्याग धर्म
परिपूर्ण हूँ मैं स्वयं में, पर का ग्रहण करता नहीं
पर हुआ न मेरा आजतक, स्वयं है परित्यक्त ही
पर के ग्रहण की कामना,मेरी भूल है ये विकार है
परसे प्रथक आत्मसन्मुख, जीव ही अविकार है
त्याग धरम है आत्मा का, वस्तु का विनिमय नहीं
परिणमन यह परिणति का,ना लेनदेन इसमें कहीं
दान नहीं है त्याग क्योंकि, उसमें अनिच्छा है नहीं
जो भोगता वह दान देता, अनिष्ट का हो त्याग ही
पदों का भावार्थ -
मैं (आत्मा) अपनेआप में परिपूर्ण हूँ और पर का न तो ग्रहण करता हूँ और न ही त्याग.
परपदार्थ आजतक मेरा हुआ ही नहीं अत: स्वत: ही परित्यक्त है. मैंने अपने परिपूर्ण स्वभाव को भूलकर अनादिकाल से आजतक पर पदार्थों के ग्रहण की कामना की यह मेरी भूल थी, आत्मा का विकार था. मैं यह आत्मा तो पर से प्रथक हूँ और आत्मसन्मुखता पूर्वक सदा अविकारी हूँ.
त्याग आत्मा का धर्म है, इसमें लेनदेन को कोई स्थान नहीं है, इसमें तो लेनदेन की व्रत्ति का त्याग है.
लोक में प्राय: दान को त्याग मान लिया जाता है पर यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस वस्तु का हम दान देते हें उस वस्तु के ग्रहण की हमें अनिक्षा नहीं है , हम उपयोगी जानकार वह वस्तु अन्य को भी देते हें और स्वयं भी ग्रहण करते हें , जबकि त्याग मात्र अनुपयोगी वस्तु का किया जाता है.
दान को ही त्याग मानकर अपनेआपको धर्मात्मा मानने वाले दानवीरो जबाब दो!
अगर आपही उत्तम त्याग धर्म के धारी धर्मात्मा हें तो उन निर्ग्रन्थ वीतरागी संतों का क्या होगा जिनकेपास देने को कोई द्रव्य है ही नहीं?
तो क्या वे धर्मात्मा ही नहीं रहेंगे ?
यदि आप दान देकर उत्तमत्याग धर्म के धारी धर्मात्मा होगये तो धर्म के अन्य लक्षणों का क्या होगा? धर्म के दश लक्षण तो एक साथ प्रकट होते हें.
क्या यह धन (लक्ष्मी)आपकी गुलाम है, आपकी आज्ञा में है?
क्या यह आपकी आज्ञा से आती और जाती है?
यदि नहीं तो तू होता कौन है इसे किसी को देने वाला या इसे ग्रहण करने वाला?
एक बात और यदि धन दान देने वाला त्यागधर्म का धारी धर्मात्मा होगा तो लेने वाला क्या होगा?
एक तो चार प्रकार के दानों में धन दान नामका कोई दान है ही नहीं पर यदि इसे दान मान भी लिया जाए तो प्रश्न है धर्मात्मा कौन?
देने वाला या लेने वाला?
अहारदान गृहस्थ देते हें और साधु ग्रहण करते हें, उनमें उत्तमत्याग धर्म का धारी धर्मात्मा कौन है?
साधु या गृहस्थ?
अब भी क्या आपको लगता नहीं कि उत्तमत्याग धर्म का स्वरूप वह नहीं जो आप समझते हें, कुछ और है.
एक द्रव्य दुसरे द्रव्य का स्पर्श ही नहीं करता है तो ग्रहण और त्याग कैसे हो?
यदि किसी पर पुद्गल द्रव्य की यहाँ से वहां हेराफेरी को उत्तमत्याग धर्म माना जाएगा तो धर्म पराधीन हो जाएगा, क्योंकि फिरतो दान देने के लिए धन चाहिए, आहार और औषधि देने के लिए उनका संयोग आवश्यक है.
तो क्या धर्म पराधीन है?
यदि धर्म ही पराधीन क्रिया होगी तो फिर धर्म के आश्रय से मुक्ति कैसे होगी?
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है और कोई एक दुसरे को स्पर्श तक नहीं करता है.
उक्त वस्तुस्वरूप को भूलकर यह आत्मा आनादिकाल से परपदार्थों के ग्रहण का राग करता रहा. और इस प्रकार धर्म से विमुख रहा.
तत्वज्ञान के अभ्यास से ज्ञानीजीव द्वारा पर के ग्रहण और त्याग दोनों ही विकल्पों को निरर्थक जानकार छोड़ना ही उत्तम त्याग धर्म है.
जगत में दान को ही त्याग समझ लिया जाता है.
दान और त्याग में मूलभूत अंतर यह है कि -
- त्याग धर्म है और दान पुण्य.
- त्याग मुक्ति का कारण है और दान (पुन्य) बंध का कारण.
- दान उपयोगी व हितकारी वस्तु का किया जाता है अनुपयोगी व अहितकर वस्तु का नहीं.
त्याग के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है
- दान पराधीन क्रिया है जिसमें तीन लोग शामिल हें- दाता, लेने वाला और वस्तु.
त्याग के लिए न तो लेने वाला चाहिए और न ही कोई वस्तु, त्याग तो ग्रहण के राग का किया जाता है, वह वस्तु हमारे पास होना आवश्यक नहीं
- दान उपयुक्त पात्र को ही दिया जाता है, त्याग के लिए पात्र की आवश्यक्ता नहीं.
- त्याग के बाद दाता उक्त (वैसी ही अन्य)वस्तु का ग्रहण नहीं करता है, दान में ऐसी कोई शर्त नहीं.
- दान मात्र उसी वस्तु का दिया जासकता है जो हमारे पास हो, त्याग के लिए यह शर्त नहीं.
- दान देने के बाद उसके सदुपयोग पर द्रष्टि रखना दाताका कर्तव्य है.
त्याग के बाद वस्तु का विकल्प आना भी अनुचित है.
(उक्त सभी विचार डा. हुकमचन्द भारिल्ल द्वारा रचित पुस्तक "धर्म के दशलक्षण "के "उत्तमत्याग धर्म " नामक लेख से लिए गए हें.)
यदि किसी पर पुद्गल द्रव्य की यहाँ से वहां हेराफेरी को उत्तमत्याग धर्म माना जाएगा तो धर्म पराधीन हो जाएगा, क्योंकि फिरतो दान देने के लिए धन चाहिए, आहार और औषधि देने के लिए उनका संयोग आवश्यक है.
तो क्या धर्म पराधीन है?
यदि धर्म ही पराधीन क्रिया होगी तो फिर धर्म के आश्रय से मुक्ति कैसे होगी?
प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है और कोई एक दुसरे को स्पर्श तक नहीं करता है.
उक्त वस्तुस्वरूप को भूलकर यह आत्मा आनादिकाल से परपदार्थों के ग्रहण का राग करता रहा. और इस प्रकार धर्म से विमुख रहा.
तत्वज्ञान के अभ्यास से ज्ञानीजीव द्वारा पर के ग्रहण और त्याग दोनों ही विकल्पों को निरर्थक जानकार छोड़ना ही उत्तम त्याग धर्म है.
जगत में दान को ही त्याग समझ लिया जाता है.
दान और त्याग में मूलभूत अंतर यह है कि -
- त्याग धर्म है और दान पुण्य.
- त्याग मुक्ति का कारण है और दान (पुन्य) बंध का कारण.
- दान उपयोगी व हितकारी वस्तु का किया जाता है अनुपयोगी व अहितकर वस्तु का नहीं.
त्याग के लिए ऐसी कोई शर्त नहीं है
- दान पराधीन क्रिया है जिसमें तीन लोग शामिल हें- दाता, लेने वाला और वस्तु.
त्याग के लिए न तो लेने वाला चाहिए और न ही कोई वस्तु, त्याग तो ग्रहण के राग का किया जाता है, वह वस्तु हमारे पास होना आवश्यक नहीं
- दान उपयुक्त पात्र को ही दिया जाता है, त्याग के लिए पात्र की आवश्यक्ता नहीं.
- त्याग के बाद दाता उक्त (वैसी ही अन्य)वस्तु का ग्रहण नहीं करता है, दान में ऐसी कोई शर्त नहीं.
- दान मात्र उसी वस्तु का दिया जासकता है जो हमारे पास हो, त्याग के लिए यह शर्त नहीं.
- दान देने के बाद उसके सदुपयोग पर द्रष्टि रखना दाताका कर्तव्य है.
त्याग के बाद वस्तु का विकल्प आना भी अनुचित है.
(उक्त सभी विचार डा. हुकमचन्द भारिल्ल द्वारा रचित पुस्तक "धर्म के दशलक्षण "के "उत्तमत्याग धर्म " नामक लेख से लिए गए हें.)
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