Wednesday, September 23, 2015

यह जीवन रहता है तो उत्तम है पर यदि म्रत्यु आती है तो आये, एक दिन तो आनी ही थी : मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन (4)

मरणान्तक व्यक्ति को संबोधन (4)

यह जीवन रहता है तो उत्तम है पर यदि म्रत्यु आती है तो आये, एक दिन तो आनी ही थी
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल 


इसी आलेख से -

- "----वह पल कभी भी आ सकता है और कब आ धमके यह कोई नहीं जानता. बस इसीलिये मैं सदा से ही इसके लिए तैयार ही था."

- "-----जब मौत कभी भी आसकती  है तो कहीं ऐसा न हो बिना तैयारी के ही चल देना पड़े."

- "--ज्ञाताद्रष्टा बने रहकर सबकुछ सहजरूप से स्वीकार करना ही योग्य है."

- "----आखिर किसका विकल्प करूं?
जो छूट रहा है उसका या जिसका नवीन संयोग होने वाला है उसका?"

- "----लोग तो व्यर्थ ही अज्ञात के भय से भयभीत होते रहते हें, पर मैं सोचता हूँ कि अज्ञात का भय ही क्यों, अज्ञात की प्रसन्नता भी तो हो सकती है न? जिज्ञासा भी तो हो सकती है न!"

- "--------क्यों नहीं मैं आगत का स्वागत करूं."

- "-----------संयोग तो क्षणिक ही होते हें और क्षणिक ही रहेंगे. यदि मुझे स्थायित्व चाहिए तो मुझे ही अपने आपको संयोगों से असम्प्रक्त्य (disconnect) करना होगा."

- "-----जब अनुकूल संयोग होते हें तब भी सुख-चैन कहाँ? तब मैं इस दुश्चिंता में उलझा रहाता हूँ कि कहीं ये संयोग बिखर न जाए.
सच तो यह है कि ये संयोग मुझे सुखी-दुखी करते ही नहीं.
मेरा सुख-दुःख स्वयं मेरी अपनी व्रत्ति पर ही निर्भर है "

- "----एक अवस्था है जो बदलती हुई भी सदा एक सामान ही रहती है, सिद्धदशा, अबतो मुझे उसी का पुरुषार्थ करना होगा."

- "------स्वयं किये अशुभकर्मों की परवाह मात्र म्रत्यु समीप देखकर ही क्यों ?---------"

- "कुछ संयोग भले ही म्रत्यु के साथ मुझसे छूट जायेंगे पर मेरे अपने ये संस्कार तो मेरे साथ ही रहेंगे, और मैं स्वयं तो हूँ ही हाजराहुजूर भगवान आत्मा."

- "अब मेरा लक्ष्य तो पंचमगति (मोक्ष) है और मैं लगातार उस दिशा में आगे बढ़रहा हूँ. रास्ते में सूखा हो, बंजर हो या वसंत हो, हरियाली हो, मुझे उससे क्या प्रयोजन ?"






तो आखिर आज आ ही गई यह मौत!

मुझे मालूम तो था ही कि एक न एक दिन तो यह आनी ही है.

मुझे तो यह भी अहसास था कि वह दिन, वह पल कभी भी आ सकता है, और कब आ धमके यह कोई नहीं जानता. बस इसीलिये मैं सदा से ही इसके लिए तैयार ही था.


मैं तैयार तो था पर लालायित नहीं.


तैयार तो इसलिए था कि मौत आनी तो है ही और जब कभी भी आसकती  है तो कहीं ऐसा न हो बिना तैयारी के ही चल देना पड़े.


और लालायित तो मैं जीवन के प्रति भी न रहा तो फिर मौत की लालसा कैसी? जब सबकुछ अपने नियमित क्रम में स्वमेव ही होता है, चाहने से कुछ मिलता नहीं, रोकने से रुकता नहीं और टालने से टलता नहीं तो किसकी लालसा करूं? ज्ञाताद्रष्टा बने रहकर सबकुछ सहजरूप से स्वीकार करना ही योग्य है.


आज मुझे परेशान करने वाला कोई विकल्प भी मेरे चित्त में नहीं है.


आखिर किसका विकल्प करूं?

जो छूट रहा है उसका या जिसका नवीन संयोग होने वाला है उसका?

जो छूट रहा है उसके विकल्प का तो प्रयोजन ही क्या है? मैं न तो उसका कर्ता हूँ और न ही भोक्ता, उसका तो मैं ज्ञाता भी नहीं बन पाउँगा, तब इस सबसे तो मेरा क्या नाता और क्या प्रयोजन रहा.

अब जहां मैं जारहा हूँ वह तो मुझे ज्ञात ही नहीं, तब विकल्प किसका करूं, ध्यान किसका करूं, उसके भी विकल्प का क्या प्रयोजन हो सकता है.


मेरा सौभाग्य कि मुझे इस जीवन में सज्जन और अनुकूल सहयात्री मिले, यदि ऐसा न भी होता तो क्या? सभी तो सामान नहीं होते हें न ? 
इस जीवन में भी मैंने कितनी यात्राएं कीं, कितने और कैसे-कैसे  लोग मिले, अत्यंत सज्जन और अनुकूल भी तथा दुर्जन भी. 
क्या फर्क पडा?
यात्रा का थोड़ा सा ही वक्त तो काटना था, सो कट गया. बादमें तो न अनुकूल याद रहे और न प्रतिकूल.
आखिर कोई कितनों को याद रख सकता है? मिलते तो अनेकों हें.
अब इस भववन में भ्रमते हुए अनादि से कितने रिश्ते बने और टूटे, आज मैं किसे पहिचानता हूँ? कल ये सब भी विस्मृत हो जायेंगे. ये मेरे लिए अनजान हो जायेंगे और मैं इनके लिए. 
अब किससे क्या मोह रखूँ ?

जगत के लोग तो व्यर्थ ही अज्ञात के भय से ही भयभीत होते रहते हें, पर मैं सोचता हूँ कि अज्ञात का भय ही क्यों, अज्ञात की प्रसन्नता भी तो हो सकती है न? जिज्ञासा भी तो हो सकती है न!


क्या मैं अपने विगत जीवन के भावों और क्रियाकलापों के आधार पर इतना भी अनुमान नहीं कर सकता हूँ कि मेरा भविष्य तो उज्जवल ही है, तब क्यों नहीं मैं आगत का स्वागत करूं.?

सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि वर्तमान में मेरे जीवन में अनुकूलताएँ हो या प्रतिकूलताएं, और इसी तरह भविष्य में (अगले जन्म में )भी मुझे अनुकूलताएँ मिलें या प्रतिकूलताएं; ये दोनों ही बातें मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं हें क्योंकि ये सब संयोग तो क्षणिक हें,प्रतिपल ही तो बदलते रहते हें. यदि कोई संयोग मुझे अनुकूल लगता है तो अभी मैं उसका उपभोग भी नहीं कर पाता हूँ और वह बदल जाता है. ठीक इसी तरह प्रतिकूल संयोग भी; अभी मैं उनसे निपटने की योजना ही बना रहा होता हूँ और वे स्वमेव ही बदल जाते हें.

उक्त के विपरीत यदि मैं शुभ संयोगों को जुटाने और और अशुभ संयोगों को मिटाने का प्रयास करता हूँ  तो समस्त प्रयास निष्फल ही होते हें, तब मेरे पास करने को रह ही क्या जाता है ?
क्या यह मेंढकों को तोलने जैसा कार्य नहीं है ?

संयोगों की यह क्षणिकता ही मेरी आज की ज्वलंत समस्या है.
दरअसल तो यह कथन भी सही नहीं है, संयोग तो क्षणिक ही होते हें और क्षणिक ही रहेंगे. यदि मुझे स्थायित्व चाहिए तो मुझे ही अपने आपको संयोगों से असम्प्रक्त्य (disconnect) करना होगा.

अब देखो न ! जब अनुकूल संयोग होते हें तब भी सुख-चैन कहाँ ? तब मैं इस दुश्चिंता में उलझा रहाता हूँ कि कहीं ये संयोग बिखर न जाएँ.
सच तो यह है कि ये संयोग मुझे सुखी-दुखी करते ही नहीं.
मेरा सुख-दुःख स्वयं मेरी अपनी व्रत्ति पर ही निर्भर है. यदि मैं सकारात्मक व्रत्ति वाला हूँ तो प्रतिकूल संयोगों में भी इस विचार से ही संतुष्टी पालेता हूँ कि ये दिन हमेशा थोड़े ही रहेंगे, कभी तो बदलेंगे. 

सच पूंछा जाए तो मेरी समस्या अनुकूल या प्रतिकूल संयोग हें ही नहीं, मेरी सबसे बड़ी समस्या तो संयोगों की अस्थिरता है, यदि संयोग ही शाश्वत होजाएं तो मैं एक बार पुरुषार्थपूर्वक इष्ट संयोग जुटालूं और फिर हमेशा के लिए सुखी होजाऊं .

संयोग स्थिर न हों तो न सही, एक अवस्था है जो बदलती हुई भी  सदा एक सामान ही रहती है, सिद्धदशा ! अबतो मुझे उसी का पुरुषार्थ करना होगा.

यदि कदाचित प्रसंगवश मेरे जीवन में मुझसे कुछ अशुभकार्य हो ही गये हें जिनसे निश्चित ही अशुभ कर्मों का बंध हुआ है, तो यह तो मैं तब भी जानता ही था कि इन भावों का फल क्या होगा, जब जानबूझकर ही मैंने यह सब किया है तो अब उनके फल से बचने की बेईमानी भरी निरर्थक चाहत भी क्यों हो?
फिर एक बात और !
स्वयं किये अशुभकर्मों की परवाह मात्र म्रत्यु समीप देखकर ही क्यों?
क्या अशुभकर्म इस जन्म में ही प्रतिफलित नहीं हो सकते हें?
हुए ही होंगे न? हालांकि मैं यह नहीं जान सकता हूँ कि वर्तमान में उदय में आया कर्म कब बंधा था? पर इससे क्या!

संसार की व्यवस्था भी तो देखिये! जिस प्रकार की आधि-व्याधियाँ आती हें उनको झेलने में सक्षम संहनन भी स्वत: ही मिल जाता है. यदि नरकों में भयंकर मारकाट है तो वहां उससे निपटने में सक्षम वैक्रियक शरीर भी विद्यमान है.

अब इस जीवन में भी मैंने क्या कम कष्ट सहे हें, पर मैं उन्हें वर्दाश्त तो करही गया न? उन कष्टों ने मेरे जीवन को क्या हानि पहुंचाई? मैं मर तो नहीं गया न! 
यदि मरभी जाता तो क्या बिगड़ जाता, जबतक यह संसार है तबतक यह जीवन-मरण तो चलता ही रहेगा. इससे बचने का एकमात्र उपाय तो अपने स्वरूप में स्थित होना ही है. इस जीवन में मैंने इस ओर कदम बढाये भी हें;
यदि कुछ और आगे बढ़ सका होता तो उत्तम होता पर यदि यह नहीं भी होसका तो क्या फर्क पड़ता है, अन्य कुछ संयोग भले ही म्रत्यु के साथ मुझसे छूट जायेंगे पर मेरे अपने ये संस्कार तो मेरे साथ ही रहेंगे, और मैं स्वयं तो हूँ ही हाजराहुजूर भगवान आत्मा.

अब मेरा लक्ष्य तो पंचमगति (मोक्ष) है और मैं लगातार उस दिशा में आगे बढ़रहा हूँ. रास्ते में सूखा हो, बंजर हो या वसंत हो, हरियाली हो, मुझे उससे क्या प्रयोजन ?
अस्तु !



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