Monday, July 21, 2014

जो अपनों से छल करता है वह अपनों को खो देता है , अकेला पड जाता है .

जो अपनों से छल करता है वह अपनों को खो देता है , अकेला पड जाता है .
उसे इस बात का सम्यग्दर्शन हो जाता है कि अपने लोग अपनों के साथ क्या कर सकते हें , किस हद तक जा सकते हें ; ऐसे में भला वह किसे तो अपना माने और जिसे अपना माने उसके प्रति उसके मन में क्या स्नेह और प्रीति हो ?
अन्य लोगों के लिए यह तत्वज्ञान दुर्लभ है क्योंकि यह तो अनुभव/अनुभूति का बिषय है , चर्चा-वार्ता का नहीं .
जो अपनों के हाथों छला गया उस आभागे की नियति तो वह जाने पर उसके उन “अपनों” का क्या होगा जिन्होंने मिलकर उसे छला है , वे भी तो एक दूसरे के वैसे ही “अपने” हें जैसा “अपना” वह छला गया व्यक्ति था , और अब तो वे सभी एक दूसरे के बारे में यह भी जानते हें कि कौन किसके साथ क्या कर सकता है , कैसे कर सकता है , कौन कितना गिर सकता है .
अब वे एक दूसरे के “अपने” बनकर कैसे चैन से रह सकते हें ?

अपनों को छलकर किसने क्या पाया है यह तो वे ही जानते हें पर यह सब करने से पहिले यह तो वे भी नहीं जान पाए होंगे कि ऐसा करके वे खो क्या देंगे ?

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