Monday, November 21, 2011

जिसको अनवर समझा था , बो निकला रकीब,वैशाखी का सहारा , अब बन चला सलीब


जिसको अनवर समझा था  (अंबर = दूल्हे के साथ घोडी पर बैठने वाला )
बो निकला रकीब  ( रकीब =COMMON LOVER)
वैशाखी का सहारा 
अब बन चला सलीब  

परछाई की बैसाखियों पर टंगा 
एक खूबसूरत सा दिखने वाला चन्दा हूँ मैं 
या यूं कहिये 
खंडहरों पर चड़कर इठलाता 
इक रंगा हुआ झंडा हूँ मैं 

मैं तो आकंठ जमींदोज था  (आकंठ= गले तक  & जमींदोज = जमीन में गडा हुआ )
किसी के कन्धों का नहीं
जमीं का बोझ था 

दलदल में और फंसने के भय से 
हाथ पग भी न हिलाता था 
समझता था सबेरा होगा जरूर 
पर बो पल 
दूर दूर तक नजर न आता था 

एक दिन उसने मुझपर 
अपनी अँखियाँ गडादीं
जाने कहाँ से चुराकर 
आशा की  किरणें दिखादीं

इक नव प्रभात जीवन में आया 
मैंने अपने आप को जमीं पर खडा पाया
कुछ ही पलों में पर भी फडफडाने लगे 
आसमान के तारे जमीं पर नजर आने लगे 
मैं सपने ही बुनता रहा 
वे पिंजरे दिखाने लगे 

मैं उद्धत हुआ 
तो एक ने व्हील चेयर बड़ादी 
अभी कुछ दूर ही तो दौड़ा था 
क़ि बैशाखियाँ टिकादीं 

जिसको अनवर समझा था 
बो निकला रकीब 
वैशाखी का सहारा 
अब बन चला सलीब 

लोकल ट्रेन -१३-५-८३ 

2 comments:

  1. never knew you were a poet too and that too a very philosophical one. Though its too hard for me to understand what you really wish to say, still, good one, keep it up

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