Thursday, February 23, 2023

सार्थक जीवन

Jaipur, Sunday, 19 june 2016, 9.45 am

सार्थक जीवन
(हमारा जीवन निष्कर्षविहीन न रह जाए, सार्थक हो, सफल हो. कैसे ? एक चिंतन)
-   परमात्म प्रकाश भारिल्ल

रूपरेखा –
-   जीवन क्या है ?
-   बिना किसी ट्रेनिंग के जीवन कैसा होगा ?
-   जो हम करते हें वह ट्रेनिंग का परिणाम है
-   हम कैसे जियें यह किसने तय किया है ?
-   हमारा जीवन कैसा हो यह किन कारकों (तथ्यों) पर निर्भर करता है ?




जीवन क्या है ?-
“एकदिन हम जन्म लेते हें और फिर एक दिन मर जाते हें; इन दो दिनों के बीच जो समय हम बिताते हें वही हमारा यह जीवन है”
जीवन को यदि एक ही लाइन में परिभाषित करना हो तो मात्र यही कहा जा सकता है, पर क्या यह इतना सरल है ?
नहीं ! कतई नहीं !!
क्यों ?
क्योंकि यह कोई छोटा सा काल नहीं है, यह कुछ पलों से लेकर 100-125 बर्ष तक कुछ भी हो सकता है.
यदि यह एक लंबा समय है तब यह महत्वपूर्ण होजाता है क्योंकि इतना लंबा समय मात्र विचारहीन और उद्देश्यहीन रहकर ही नहीं बिताया जा सकता है.
यदि कदाचित यह थोड़ा सा समय है, जीवन छोटा है तबतो यह और अधिक महत्वपूर्ण होजाता है क्योंकि अब इस जीवन में जो कुछ भी करना है, मात्र उसी छोटे से समय में करना है.   
तात्पर्य यह है कि जीवन छोटा हो या लंबा, यह है अत्यंत महत्वपूर्ण; और यह यूं ही विचारहीन तरीके से जीकर नहीं काटा जा सकता है,  नहीं बिताया जा सकता है, बर्बाद नहीं किया जा सकता है.
पर हम क्या कर रहे हें ?
क्या हम यही नहीं कर रहे हें ?


हमारे जीवन की दिशा कौन तय करता है ? -
हममें से कौन है जो अपना जीवन अपनी पसंदगी के अनुसार जी रहा है, जिसने अपने जीवन के बारे में चिंतन किया है, अपने जीवन के तौरतरीके और लक्ष्य स्वयं तय किये हें ?
यहाँ कौन है जिसने अपने इस जीवन में जीवन के लक्ष्य हासिल किये हें ?
हमने अपने इस जीवन में क्या पाया है ?
कुछ लोग कहेंगे कि ऐसा तो नहीं है कि हमें अपने इस जीवन में, अपने इस जीवन से कुछ भी नहीं मिला है, मिला तो हमें बहुत कुछ है.
मैं उन लोगों से पूंछना चाहता हूँ कि क्या हमें वही सब मिला है जो हम पाना चाहते थे ?
यदि नहीं तो मेरा दूसरा सवाल है कि हमारी उन वस्तुओं को हम क्या कहते हें जो हमारे काम की न हों ?
कबाड़ ही न ?
वे वस्तुएं हमारी liavility हें या assets, वे हमारी संपत्ति हें या विपात्ति ?
यदि हम उन वस्तुओं को बेचना चाहें तो हमें कितना दाम मिलता है? वे रद्दी के भाव ही बिकती हें न ?
अरे कभी-कभी तो उन्हें फिकबाने के लिए भी पैसे खर्च करने पड़ते हें.
अब आप ही कहिये कि हमने जीवन में वह जो कुछ भी पाया है जिसकी हमें चाहत ही न थी, जो हमारा लक्ष्य ही नहीं था, उसकी क्या कीमत है ?
क्या यह बिडम्बना ही नहीं ही कि विचारहीन अपने इस जीवन में हम वह कुछ भी हासिल न कर सके जो करना चाहिए था और हमें जो मिला उसकी हमें चाहत न थी, आवश्यक्ता न थी.
महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि हमें यह जीवन किस प्रकार से जीना है, इस जीवन में हमें क्या पाना है, क्या हासिल करना है इस बात का निर्णय कौन करेगा, कब करेगा ?
हम करेंगे या कोई और ?
अभी करेंगे या जीवन लगभग बीत जाने के बाद ?
यदि हम ही करेंगे तो किस आधार पर ?
यदि हमारे जीवन का निर्णय कोई और ही करता रहेगा तो वही होता रहेगा जो आज होरहा है.
हो न हो, मेरे इस कथन से कदाचित आप सहमत न हों !
आप कह सकते हें कि क्या आपने हमें इतना नकारा समझा है कि हमारे बारे में निर्णय कोई और करे ? हम सब पढ़े लिखे, बुद्धिमान और जागरूक लोग हें, हम स्वतंत्र विचारों वाले हें और अपने फैसले हम स्वयं ही करते हें, कोई और नहीं.
जी हाँ !
हम इसी भ्रम में जीते हें.
वक्त के तीव्र प्रवाह में अनियंत्रित से बहते चले जारहे हम सभी लोग इसी भ्रम में जीते हें कि हमारा जीवन हमारे अपने नियंत्रण में है और इसकी दिशा हम स्वयं तय करते हें.
यदि सही निष्कर्ष पर पहुंचना है तो सबलोग विचार करें कि अबतक हमने जितना अभी जीवन जिया है उसकी दिशा और लक्ष्य किसने तय किये हें ?
हम पायेंगे कि यह सब न तो हमने किया है और न ही उन्होंने ही, जिनसे हमारा यह जीवन प्रेरित है. यह तो बस अनादि का ऐसा अनवरत प्रवाह है जिसमें हम सभी बहते चले जारहे हें.
क्या कहा ? आपको यह स्वीकार नहीं ?
तो बतलाइये आपके बारे में यह निर्णय किसने किया कि आप वस्त्र पहिनें, निर्वस्त्र न रहें.
मैं आज की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं बात तब की कर रहा हूँ जब इस बारे में आपकी अपनी कोई राय ही न थी. उस शैशवावस्था में आपके बारे में यह निर्णय किसने किया था कि आप भोजन क्या करेंगे ? आप शाकाहारी रहेंगे या मांसाहारी बनेंगे ? किसने तय किया था कि आप स्कूल कब जायेंगे, कौनसे स्कूल जायेंगे या जायेंगे भी या नहीं ?
किसने निर्णय लिया था कि आपकी भाषा क्या होगी, धर्म क्या होगा ?
निश्चित ही स्वयं आपने नहीं, किसी और ने ही यह सब किया था.
किया था न ?
आप कह सकते हें कि अरे ! तब तो हम अबोध थे, नासमझ थे, निर्वल थे, साधनहीन थे, परवश थे; तबकी क्या बात करते हो ?
जबसे हमने होश सम्भाला है तबसे तो अपने सारे निर्णय हम ही करते आये हें.
ठीक है, यही सही !
आपकी उम्र क्या होगई है ? 70 साल ?
विल्कुल ठीक ! अबतो आप बहुत सक्षम हें, पढ़े-लिखे हें, साधन सम्पन्न हें, जीवनभर का अनुभव भी आपके पास है. आपके अपनों का तथा मित्रों और शुभचिंतकों एक बहुत बड़ा वर्ग भी आपके साथ है.
तो बतलाइये अब आजतो अपने सारे फैसले आप स्वयं ही करते होंगे न ?
किस नगर में, कहाँ रहना, क्या खाना, क्या पहिनना, कब सोना व कब जाग जाना, कौनसी पैथी से अपना इलाज करबाना, किस डाक्टर को दिखाना यह सबतो तेरे व्यक्तिगत मामले हें न ? इनका निर्णय तो तू ही करता होगा न ?
पोते-पोतियों के साथ कब खेलना-खिलाना, उन्हें क्या पढाना-लिखाना, उनके साथ क्या बातें करना और क्या नहीं करना इसका निर्णय कौन करता है ? अच्छा उनके माता-पिता करते हें न ?
अरे तू तो उनके माता-पिता का भी माता-पिता है जब पोते-पोतियों का निर्णय उनके माता-पिता करते हें तो अपने बेटों का निर्णय तू क्यों नहीं करता है ?
अच्छा अब कहता है कि तूने दूसरों के मामले में दखलंदाजी करना छोड़ दिया है ?
अब अपने ही बच्चे दूसरे होगये, पराये होगये ?
ठीक है, दूकान तो तूने स्थापित की थी, व्यापार भी तूने ही जमाया था, बड़ी होशियारी के साथ, तभी तो इतना सफल हुआ न !
अब दूकान पर जाना या नहीं जाना, कौनसा माल किस भाव खरीदना और बेचना, किसे बेचना या न बेचना ये सब निर्णय तो अब भी तू ही करता होगा न ?
अच्छा यह तूने बच्चों को सोंप दिया है, तो वे लोग भी यह सब तुझसे पूँछ-पूँछ कर करते होंगे न ? आखिर उनके पास तेरे बराबर अनुभव कहाँ है, हो भी कैसे सकता है.
ok-ok वे सब बहुत होशियार और सक्षम हें उन्हें आपसे पूंछने की जरूरत ही नहीं पड़ती है, आखिर बच्चे किसके हें ?
खैर, न सही वे कुछ पूँछें पर यदि आपको ही कभी-कभार कोई सलाह देने का मन होआये तो ?
सुन तो लेते होंगे ?
मान तो जाते होंगे ?
आखिर आप जो भी कहेंगे उनके भले की ही तो कहेंगे न !
अच्छा आपका ही मन नहीं करता है उन्हें कोई सलाह देने का !
उचित ही तो है.
जो भी हो, एक बात तो निश्चित है कि आपके आजके जीवन और जीवनशैली पर आज आपका अपना कोई नियंत्रण नहीं है. आज यह आपके सिद्धांतों, विचारों और मानसिकता का प्रतिनिधित्व नहीं करती है.
एक बात बतलायेंगे ?
आपका यह अलिप्तता और निरपेक्षता का सिलसिला कबसे चल रहा है ?
यह कब और कैसे प्रारम्भ हुआ ?
आप रिटायर कब होगये ?
क्या आपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर लिया है ?
यदि नहीं, तो विराम कैसा ?
यदि ठहर गए तो अब कब करोगे ?
कया अब ऐसे ही चले जाना है ?
क्या यह उचित है ?
पर इसमें आप कर ही क्या सकते हें ? आप स्वयं तो रिटायर हुए नहीं हें, ये तो वक्त ने और आपके अपनों ने ही आपको नाकाविल घोषित कर डाला.
क्या यह सच नहीं है ?
चलिए एक बार फिर अपने पिछले जीवन की और रुख करते हें.
जबसे तूने होश सम्भाला तबसे तूने अपने निर्णय स्वयं लेना प्रारम्भ किया और यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब कथित तौरपर तूने स्वयं ही दूसरों के मामले में दखलंदाजी बंद करदी और यह सब काम अपने योग्य बच्चों को सोंप दिया. 
अब थोड़ी चर्चा उस दौर की भी होजाये जब तू अपने करियर के फुलफॉर्म में क्रीज के स्ट्राइकिंग एन्ड पर बैटिंग कर रहा था.
तबतो तूने अपने जीवन की दिशा  और परिणति (destiny), अपने जीवन के लक्ष्य स्वयं ही तय किये होंगे न ?
नहीं न ?
अरे ! यही तो दुर्भाग्य है, तब भी तू (हम सभी) दौड़कर चलती हुई गाडी में सबार होगया था (हो जाते हें) बिना यह जाने कि गाडी जा कहाँ रही है.
होता यह है कि स्कूल पूरा करने के बाद हमारे सामने २-४ विकल्प प्रस्तुत कर दिए जाते हें कि हमें क्या बनना है, इनमें भी ऐसे सौभाग्यशाली तो विरले ही होते हें जो वह बन पाते हें जो वे बनना चाहते हें, वर्ना तो डाक्टर बनने की चाह रखने वाला कम्पाउंडर बनकर रह जाता है और प्रोफ़ेसर बनने की चाह रखने वाला मास्टर.
इस प्रकार शुरू होजाता है एक लम्बी दौड़ और अन्तहीन होड़ का सिलसिला जो अंतत: थककर हमारे मैदान से बाहर होजाने तक जारी रहता है.
वही जॉब, शादी, गृहस्थी, बच्चे और अंतत: रिटायरमेंट.
इसके बाद शुरू होता है अनगिनत if & buts का आपरेशन. यदि मैं ऐसा करता तो ऐसा होजाता, काश मैंने ऐसा ना किया होता तो आज यह होता आदि -----. बस पलंग पर पड़े छत को ताकते रहो और गड़े मुर्दे उखाड़ते रहो.
जीवन के उस दौर में भी, जिसे तू सचमुच अपना दौर कहता और मानता है, तू
सचमुच स्वतंत्र कहाँ रहा, जीवन में ही नहीं विचारों में भी ?

क्या हमारे पास जीवन के विकल्प सीमित हें ? -
तूने अपना आप्शन कब चुना, तूने अपना जीवन स्वयं कब डिजाइन किया ? तू तो बस आब्जेक्टिवटाइप के सबालों के जबाब के रूप में दिए गए चार विकल्पों में से एक पर टिकमार्क करता रहा. तेरे पास पांचबां विकल्प कभी रहा ही नहीं न; और न ही तूने उसकी तलाश ही की.
बस इस तरह मेरे और मेरी ही तरह दुनिया के अन्य सभी लोगों का जीवन आब्जेक्टिवटाइप प्रश्नों के चार संभावित जबाबों के दायरे में ही सीमित बना रहा.
अरे भोले !
यह जीवन अनगिनत फेक्टर्स पर आधारित है, उन अनगिनत में से एक फेक्टर में भी मामूली सा भी परिवर्तन हुआ तो जीवन के सारे के सारे समीकरण सम्पूर्णत: बदल जाते हें.
इस दुनिया में इतने लोग हें और सभी के सारे के सारे फेक्टर्स एक दुसरे से विल्कुल अलग-अलग, सर्वथा भिन्न हें, तब सारे के सारे लोग मात्र एक ही  धारा में, एक जैसा जीवन कैसे जी सकते हें ?
यह रेडीमेड कपड़ों का कांसेप्ट मुझे तो कभी समझ ही नहीं आया. दुनिया में जितने लोग हें उतनी ही तरह की उनके शरीर की बनाबट होती है. यह कैसे संभव है कि आप मात्र चार प्रकार के माप के कपडे बना दीजिये - small, medium, larg & extra large और वे सबको fit बैठ जाएँ ?
पर चल रहा है, सब कुछ धड़ल्ले से चल रहा है.
बस इसी उदाहरण से साबित होजाता है कि अपनेआपको बहुत smart, perfectinisht, to the point, accurate & precise समझने वाली यह दुनिया हकीकत में कितनी स्थूल है.
मैं यहाँ इस दुनिया की आलोचना करने नहीं बैठा हूँ.
होगी, कभी और कहीं, किसी मामले में यह accurate & precise भी होगी, पर इससे क्या ?
जो कभी झूंठ बोले कभी सच, हम उसपर अंधा भरोसा तो नहीं ही कर सकते हें न ? हमें सावधान तो रहना ही होगा, अपने विवेक को तो जाग्रत रखना ही होगा.

हमारा वर्तमान जीवन किससे प्रेरित है ? –
हमारी वर्तमान जीवनशैली मौलिक नहीं है, इसे हमने अपनी रूचि, योग्यता और लक्ष्यों के अनुरूप स्वयं अपने लिए विकसित नहीं किया है. यह प्रेरित है, impossed है, हम पर लादी गई है.
इस प्रकार से जीवन जीने के लिए किसी ने हमें ट्रेनिंग दी है.
हम जंगल में नहीं नगर-गाँव में पैदा हुए. हमें सिखाया गया कि इस प्रकार कपड़े पहिनने चाहिए, इस प्रकार भोजन करना चाहिए, यह काम यहाँ और वह काम वहां करना चाहिए सो हम वही सब करने लगे. originally तो हम सब उन शिशुओं के सामान ही थे जो जब चाहें, जहां चाहें, जो चाहें कर डालते हें. समय, स्थान और मौके की नजाकत से निरपेक्ष.
न गिला-शिकवा और न ही लाज-शर्म. न भय और न ही परवाह.
इसी प्रकार हमें आगे का जीवन किस प्रकार जीना चाहिए, इन बातों की ट्रेनिंग भी अपने माता-पिता, परिवार और समाज से मिली.
यही उचित भी है.
जीवन में शिक्षा और ट्रेनिंग की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है. यही शिक्षा न हो तो अबतक हुए ज्ञान के विकास का लाभ किसी को न मिल सकेगा, सभी को अपना जीवन शून्य से ही प्रारम्भ करना पडेगा; परिणाम यह होगा कि हम शून्य से प्रारम्भ करके 5 पहुंचेंगे और जीवन पूरा हो जाएगा. दूसरा भी यही करेगा, इस प्रकार तो विकास की प्रक्रिया ही रुक जाएगी जो हमें भी इष्ट नहीं है.
यहाँ समझने और ध्यान देने योग्य बात यह है कि – अबतक हुआ विकास और प्राप्त ज्ञान ही विकास व ज्ञान की पराकाष्ठा नहीं है. यह तो सिन्धु का बिन्दु मात्र है. 
यदि हमें अपने जीवन में सम्पूर्णता लानी है और अपने इस दुर्लभ मानव जीवन का सदुपयोग करना है तो उपलब्ध सूचनाएं/ज्ञान जान लेने के बाद, अपने हित में आगे ज्ञान का विकास स्वयं ही करना होगा.
यही वह संधिस्थल है जहां हम चूक जाते हें.
ऐसा क्यों होता है इसका भी कारण है.
विकास की इस यात्रा में यहाँ तक पहुचे हुए अनेकों लोग तो हमारे आसपास बहुतायत से मौजूद हें पर विकास के चरम तक पहुंचे लोग बहुत आगे निकल गए हें, हमारी पहुँच से बाहर हें, वे हमें उपलब्ध नहीं हें. इससे तनिक आगे जो लोग प्रयासरत हें वे हमें स्वयं ही भ्रमित दिखाई देते हें, वे हमारे आदर्श नहीं हो सकते हें.

सम्पूर्ण विकसित का जो ज्ञान आगम में उपलब्ध है वह किसी प्रत्यक्ष उदाहरण के अभाव में हमारी बुद्धी को स्वीकार नहीं हो पाता है और इस प्रकार हम आधे-अधूरे बने रहने के लिए ही अभिशप्त हें.

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