मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ क़ि हमेशा ही हर व्यक्ति के बारे में यह परवाह नहीं की जा सकती है क़ि वह या कोई और क्या सोचेगा क्योंकि व्यक्ति की गहराइयां व्यक्ति में न नापकर उसकी परछाइयों से नापी जाती हें , यह देखा जाता है क़ि क्या है उसके आगे और पीछे .
परछाइयां तो क्षणिक संयोगों का परिणाम हें जो पल में ही विशाल रूप धारण कर लेतीं हें और पल में ही बौनी हो जातीं हें ,सिमट जातीं हें .
बस यह़ी काफी है किसी को भी अपनी विश्वसनीयता खो देने के लिए .
बिडम्बना तो यह है क़ि उन परछाइयों के कारण जो प्रभाव पैदा होते हें उनका भोक्ता मुझे बनना पड़ता है .
पर विवश हूँ .
ऐसी परिस्थितियों में अपनी विश्वसनीयता कायम रखने के लिए क्या करूं ?
प्रेक्षकों को ही अपने पैमाने बदलने पड़ेंगे .
उन अंधियारे गलियारों का
जिनमें अनिश्चित फासलों पर
नगरनिगम का
कोई दिया टिमटिमाता है
और बिडम्बना
मेरा आकार
उन परछाइयों से नापा जाता है
जो पल में बढ़ती हें
और पल में सिमट जातीं हें
छाया तो नश्वर है
मैं अविश्वसनीय हो जाता हूँ
नेकी की राह में अकेला ही चला था
बदी के मेले में गुमनाम खो जाता हूँ
22.6.83
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