मुझे तो लगता है आप उससे बदला नहीं ले पारहे हें वल्कि वह आपको दण्डित कर रहा है या आप अपने आप को दण्डित कर रहे हें .
यूं भी हम किसी पर नाराज बने रहकर न तो उसका कुछ भी बिगड़ सकते हें और न ही खुश होकर उसका कुछ भी भला कर सकते हें क्योंकि सबका भला और बुरा तो उनके पुन्य और पाप के उदय के आधीन होता है ,यदि उसके पुन्य का उदय है तो आप उसका बुरा कैसे कर सकते हो ?
यदि उसके पुन्य उदय के होते हुए भी कोई उसका बुरा कर सके तो उसके पुन्य का क्या होगा ? इसी प्रकार पाप के बारे में समझना .
अब यदि हम अपने मन में किसी के प्रति शत्रुता का भाव रखते हें तो किसका बुरा करते हें ?
स्वयं अपना ही तो !
क्योंकि वह सो अपने घर में शांति से सो रहा है और हम उसका बुरा करने के विचारों में अपनी ही रातों की नींद खो बैठते हें .
हो न हो वह भगवान के स्मरण में लीं हो और हम भगवान को छोड़कर , अपने नियर एंड डियर को छोड़कर उसे याद कर रहे हों.
वह अपना काम करता है और हम भी उसीके काम में लग जाते हें .
बस, अपने चित्त में से शत्रुता का भाव निकाल दो, शत्रु तो कहीं है ही नहीं .
कोई शत्रु हमारा वैसा नुकसान करता ही नहीं या कर ही नहीं सकता जैसा नुकसान हमारे चित्त में विद्यमान किसी के प्रति शत्रुता का भाव करता है क्योंकि आपके उस तथाकथित शत्रु को तो और भी अनेकों काम हें करने के लिए,उसका घर परिवार भी होगा और धंधा व्यापार भी , वह कोई आपके प्रति समर्पित (dedicated) शत्रु तो है नहीं,उसे फुर्सत मिले तो वह आपकी ओर ध्यान देगा न ?
पर आपके चित्त में विद्यमान उसके प्रति शत्रुता का भाव आपको निरंतर परेशान किये रहता है.
बस, अपने चित्त में से शत्रुता का भाव निकाल दो, शत्रु तो कहीं है ही नहीं .
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