Monday, April 16, 2012

लड़कर न्याय का फैसला नहीं होता है , लड़कर तो ताकत का फैसला होता है .


लड़कर न्याय का फैसला नहीं होता है , लड़कर तो ताकत का फैसला होता है .
इसलिए लड़ने से जो मिले वह हक़ हो जरूरी नहीं और जो हक़ है वह लड़ने से मिल ही जाये जरूरी नहीं .
जो लड़कर मिले वह तो लूट है , वह तो छीना-झपटी है .
लड़ना तो असभ्यता है , यह तो जंगलीपन है यह न्यायपूर्ण कैसे हो सकता है ?
हक़ तो वह है जो सामने वाला स्वयं खुशी खुशी आपको देदे , अब यदि छीना झपटी करके कुछ हासिल कर भी लिया तो क्या पा लिया ?
क्या उससे चैन - शुकून मिलेगा ?

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