दूर बैठे मेरे एक अत्यंत निकट संबंधी को मेरे किसी व्यवहार से ऐसा आघात लगा क़ि वे मुझसे समस्त सम्बन्ध विच्छेद करने का निर्णय कर बैठे , उन्हें लिखा गया मेरा पत्र-
आशा है सानंद होवोगे .
शादी सम्पूर्ण गरिमा के साथ सानंद संपन्न हो गई है और आज वे दोनों घूमने के लिए -------------------------------------------------------------------- जा रहे हें .
इस अवसर पर आप लोगों को बहुत मिस किया , पर क्या किया जा सकता है होता तो वही है जो होना होता है .
आपका यह नाराजी भरा मेल मिला , पढ़कर मैं बहुत अच्छी तरह समझ सकता हूँ क़ि आपको कितनी मर्मान्तक पीड़ा हुई होगी , तभी तो आप यह मेल लिख बैठे , अन्यथा भला कौन ऐसा निष्ठुर कृत्य कर सकता है ? मरणादिक् के कारण तो रिश्ते टूट ही जाते हें पर मौत पर तो किसका बस चलता है और इसलिए हम सब लोग कर ही क्या सकते हें शिवाय दयनीय बनकर सब कुछ देखते और सहते रहने के , पर जान बूझकर अपनी मर्जी से भला कोई ऐसा कैसे कर सकता है ?फिर भी आप ऐसा कर बैठे तो समझ सकता हूँ क़ि आपको कैसा आघात लगा होगा और आप कितने व्यथित होंगे .
अपराधी को दण्ड मिले इसे तो अनुचित कहने का साहस भला कौन कर सकता है , फिर मैं ऐसा कैसे कह सकता हूँ पर ---------- ! क्या यह स्वाभाविक न्याय नहीं , क्या यह न्याय करने की प्रचलित विधि नहीं , क्या यह सर्व स्वीकार्य प्रक्रिया नहीं है क़ि किसी भी अंतिम निर्णय पर पहुँचने के पहिले , किसी को अपराधी करार देने से पहिले और दण्डित करने से पहिले उसकी बात भी सुनी जाए और समस्त तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाये , कानूनी पहलू से , मानवीय पहलू से और परिस्थिति जन्य स्थिति पर विचार करते हुए .
तब फिर तुम जैसा विवेकी और सह्रदय व्यक्ति इसमें चूक कैसे गया ? वह भी अपने निकटतम और प्रियतम सम्बन्धियों के बिषय में इतना कठोर निर्णय लेने में . पर फिर मैं तुम्हारी बात सुने , जाने ,समझे बिना क़ि किन हालातों में तुम ऐसा कर बैठे , मैं तुम्हें तुम्हारे इस कृत्य के लिए अपराधी ठहराकर वही गल्ती दुहराउंगा नहीं .
यूं एक बात और है , कभी ऐसा भी हो सकता है क़ि सामने वाले के पास कहने के लिए कुछ भी न हो अपने आप को निरपराध साबित करने के लिए कोई साधन न हो , न तो गवाह हों और न ही परिस्थिति जन्य साक्ष्य (circumstantial evidence ) हों , तब भी व्यक्ति निरपराध तो हो ही सकता है , तब न्याय करने के लिए क्या किया जा सकता है ? क्योंकि न्याय तो होना ही चाहिए . तब जीवन भर की वह साधना काम आती है , तब उसके बारे में इस तरह से विचार करना होता है क़ि इस व्यक्ति के व्यक्तित्व को देखते हुए , इसके जीवन भर के कृत्यों को देखते हुए , इसके स्वभाव को देखते हुए , इसकी कार्य प्रणाली को देखते हुए क्या ऐसा लगता है क़ि यह व्यक्ति ऐसा काम कर सकता , जो इल्जाम इसके सर पर आ रहा है .
यदि ऐसा लगता है क़ि ये व्यक्ति ऐसा है नहीं , यह ऐसा कर नहीं सकता , तो दुनिया भर में न्याय के क्षेत्र में यह सर्वमान्य है क़ि शक होने की स्थिति में लाभ आरोपी को ही मिलना चाहिए (nobody is guilty unless until proved guilty ).
एक बात और जब तक न्यायाधीश के सामने अपराध करने का उचित कारण साबित नहीं हो जाता है तब तक भी उसे आरोपी को अपराधी करार नहीं दिया जाता है , क्योंकि न्याय यह मानता है क़ि आखिर कोई बिना कारण अपराध करेगा क्यों ?
आप यह तो विचार करते क़ि यदि हमने कोई अपराध किया है तो उसका कारण क्या हो सकता है ? जाहिर है कोई कारण तो है नहीं , इससे हमारे किसी प्रयोजन की सिद्धी तो हो नहीं रही है तब हम क्यों ऐसा कुछ करेंगे जो गलत होगा .
एक बात और ! यदि किसी से कोई अपराध हो भी गया हो तो हर अपराध का दण्ड सिर्फ बड़ी से बड़ी (capital punishment) सजा नहीं हो सकती .
तब तुम कैसे ये सब बातें भूल गए और हमारे प्रति इतने कठोर कैसे हो गए ?
अरे ये जो रिश्ते हें इनमें तो तलाक का भी प्रावधान नहीं है , न तो क़ानून में और न ही धर्म या समाज में , किसी भी देश में नहीं , कोई माने या न माने पर इन रिश्तों को तो बदला भी नहीं जा सकता है .
अरे जिस आसानी से तुम इन रिश्तों को तोड़ देना चाहते हो क्या उससे एक लाख गुना ज्यादा प्रयत्न करके भी एक ऐसा रिश्ता बना या जुटा भी सकते हो ? तब फिर क्या सोच कर यह सब करने चले थे ?
अरे जिनके पास दूसरे नए कपडे की व्यवस्था नहीं होती है वे अपने पुराना फटा-चिथा , जीर्ण-शीर्ण , मैला-कुचैला कपड़ा भी फेकते नहीं हें क्योंकि अभी तन ढका तो है , यदि वह भी फेक दिया तो नंगा ही होना पडेगा .
अरे ! इतने विशाल संसार में हमारे अपने हें ही कितने ? यदि हम इसी तरह एक एक कर सबका ही परित्याग कर देंगे तो जीवन में बचेगा ही क्या ?
यूं भी हम जो कहने के लिए एक दूसरे के अपने हें उनके आपस में सारोकार ही क्या बचे हें ? न तो हम किसी की मौत पर आ जा सकते हें और न ही जन्म या विवाहादिक प्रसंग पर . और तो और यदि कोई मरणासन्न ही हो जाए तो भी हम बस दूर ही बैठे मात्र प्रार्थनाएं करने तक ही मजबूर हो गए हें , इससे अधिक कुछ कर ही नहीं पाते हें पर जब ऐसे में हम सब एक दूसरे के " हमारे अपने " हें " दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है " par jab किसी के पास कुछ भी बचा ही न हो तो भैया ! जिन्दगी ख़्वाबों के सहारे भी कट ही जाती है .
अब तुम उन बचे खुचे ख़्वाबों को ही नोच डालना चाहते हो तब फिर जीवन में बचेगा ही क्या ?
कितना आसान मान बैठे आप यह सब कुछ , क्या यह खेल - तमाशा है ?
यदि कुछ गलत हुआ है तो निर्णय तो करते क़ि यह सब किया किसने है , यदि कोई दण्ड का पात्र है तो वह अपराध करने वाला है , किसी और के अपराध का दण्ड किसी और को देने का हक़ किसी को किसने दिया है ?
क्या यह उचित है ?
क्या यह अन्याय नहीं है ?
क्या ऐसा करने वाला स्वयं दण्ड का पात्र नहीं है ?
--------- बाबू ! ये गुड़ियों का खेल नहीं है
समाज , शासन या धर्म कोई भी किसी को भी इस तरह मर्यादाओं से खिलबाड़ करने की इजाजत नहीं देता है , एक कदम उठाने से पहिले कितने द्रष्टिकोणों से विचार करना होता है उसकी शायद आपने कल्पना भी नहीं की है .
आप जो कुछ भी निर्णय करते हें उसके परिणाम के उपभोक्ता भी आप अकेले ही नहीं हें , अन्य अनेकों आपके अपने ही जो आपके निर्णयों के परिणाम भोगते हें , क्या ऐसा करके आप अपनी धर्मपत्नी और बच्चों को भी बहुत सारे अपनों को खोने का अभिशाप देने नहीं जा रहे हें , क्या यह उनके प्रति आपका भयंकर अपराध नहीं होगा ?
क्या आपको ऐसा करने का हक़ भी है ( आपको ही निर्णय करना है ) ?
भाई ! जीवन के महत्वपूर्ण निर्णय क्षणिक आवेग में नहीं लिए जाते हें , नहीं लिए जाने चाहिए . हर बिषय पर गंभीर और गहन चिन्तन की आवश्यकता होती है .
यूं भी हर व्यक्ति हर बिषय का मास्टर नहीं होता है ऐसे में अपने पास ऐसे समझदार शुभचिंतक होने चाहिए जिनसे हम सलाह मशविरा कर सकें , यदि ऐसा कोई व्यक्ति हमारे पास है तो वह अपने जीवन की सबसे बड़ी सम्पत्ती है .
आप स्वयं एक विवेकी , सह्रदय , उदार , भावुक , परोपकारी और समर्पित व्यक्ति हें . आप स्वयं अपने भाग्य विधाता हें , आप स्वयंभू हें , अपने निर्णय स्वयं करने के अधिकारी हें . कोई और कैसे आपके बिषय में निर्णय कर सकता है ?
आपके आगामी किसी भी व्यवहार के बारे में आपका निर्णय ही अंतिम होगा .
आप सभी के स्वर्णिम आगामी जीवन के लिए मेरी शुभ कामनाएं सदैव आपके साथ रहेंगी .
शुभचिंतक
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