क्या यह स्वाभाविक न्याय नहीं , क्या यह न्याय करने की प्रचलित विधि नहीं , क्या यह सर्व स्वीकार्य प्रक्रिया नहीं है क़ि किसी भी अंतिम निर्णय पर पहुँचने के पहिले , किसी को अपराधी करार देने से पहिले और दण्डित करने से पहिले उसकी बात भी सुनी जाए और समस्त तथ्यों पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाये , कानूनी पहलू से , मानवीय पहलू से और परिस्थिति जन्य स्थिति पर विचार करते हुए .
मेरा चिंतन मात्र कहने-सुनने के लिए नहीं, आचरण के लिए, व्यवहार के लिए है और आदर्श भी. आदर्शों युक्त जीवन ही जीवन की सम्पूर्णता और सफलता है, स्व और पर के कल्याण के लिए. हाँ यह संभव है ! और मात्र यही करने योग्य है. यदि आदर्श को हम व्यवहार में नहीं लायेंगे तो हम आदर्श अवस्था प्राप्त कैसे करेंगे ? लोग गलत समझते हें जो कुछ कहा-सुना जाता है वह करना संभव नहीं, और जो किया जाता है वह कहने-सुनने लायक नहीं होता है. इस प्रकार लोग आधा-अधूरा जीवन जीते रहते हें, कभी भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होते हें.
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