कहने को हम अपने आपको भक्त कहते हें पर हमारे चित्त में या व्यवहार भक्ति है ही कहाँ ?
हम तो याचक हें , जिसे सामान्य भाषा में भिखारी कहा जाता है .
हम तो उसके दरबार में जाते हें जहाँ कुछ मिलता है , कुछ ही क्यों अधिक से अधिक मिलता है . जहाँ कुछ मिलने की मान्यता न हो वहां तो
हम फटकते ही कब हें ?
हम मंगते तो हें पर हमें मांगना भी कहाँ आता है ?
हम डाक्टर के पास जाते हें और इतने चीखते चिल्लाते हें क़ि डाक्टर का ध्यान हमारी बीमारी की ओर जा ही नहीं पाता है वह मर्ज का इलाज कैसे करे वह तो दर्द की दवा देने में ही व्यस्त हो जाता है ,अरे भले आदमी ! बीमार है तो पीड़ा तो होगी ही न ? पर यदि चीख पुकार थोड़ी कम करे तो डाक्टर मर्ज को समझने और उसका इलाज करने की ओर ध्यान दे .
ठीक इसी प्रकार हम भगवान के पास जाते तो न तो भव भ्रमण के दुखों की चर्चा करते हें और न ही उससे छूटने का उपाय ही जानना समझना चाहते हें , वस हमतो इस या उस का दुखड़ा लेकर बैठ जाते हें और भगवान से छोटी मोटी मन्नतें मागने लगते हें क़ि हे भगवान ! परीक्षा पास करबा दे , या केश जितबा दे या बीमारी ठीक करबा दे या नौकरी दिलबा दे या ---------------.
अरे ! भला इन छोटी छोटी सी बातों के लिए भगवान को कष्ट देने की क्या जरूरत है , ये काम तो मास्टरजी या डाक्टर जी या वकील जी ही निपटा देते .
अब भगवान के पास जाकर इन छोटी छोटी सी बातों को लेकर इतनी चीख पुकार मचाता है , इतने गिले शिकवे करता क़ि इसका कर दिया , उसका कर दिया , अब मेरी बारी पर क्यों देर करता है , आदि , क़ि भव भ्रमण से छूटने की बात करने का तो नंबर ही नहीं आता .
यह तो भला हो भगवान का क़ि उन्होंने ये बातें सुनने की एजेंसी पत्थर की मूरतों को दे दी हें अन्यथा तो जाने क्या हाल होता उनका . अब चीखते रहो जितना चीखना - चिल्लाना है , पर संतों का क्या हो ? ये पगले तो उन्हें ------- इसीलिये तो वे इनकी संगति से बचते हें , जंगल में रहते हें , न तो इनके पास बैठते उठते हें और न ही इनकी बात सुनते हें , अरे सुनना तो दूए उन्हें तो सुनाने में भी रस नहीं होता क्योंकि जो वे कदाचित सुनाना चाहें वह तो इनको सुनना ही कहाँ है , इन्हें तो अपनी सुनानी है वह भी जली कटी , इस सब में भला उन्हें क्या रस हो सकता है , यह सब छोड़कर तो सन्यासी हुए हें अब भी यदि यह़ी करने लगे तो फर्क ही क्या रहा ? -------------------------
bhakti kese ki jati h.bataye
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