एक बात और है , कभी ऐसा भी हो सकता है क़ि सामने वाले के पास कहने के लिए कुछ भी न हो अपने आप को निरपराध साबित करने के लिए कोई साधन न हो , न तो गवाह हों और न ही परिस्थिति जन्य साक्ष्य (circumstantial evidence ) हों , तब भी व्यक्ति निरपराध तो हो ही सकता है , तब न्याय करने के लिए क्या किया जा सकता है ? क्योंकि न्याय तो होना ही चाहिए . तब जीवन भर की वह साधना काम आती है , तब उसके बारे में इस तरह से विचार करना होता है क़ि इस व्यक्ति के व्यक्तित्व को देखते हुए , इसके जीवन भर के कृत्यों को देखते हुए , इसके स्वभाव को देखते हुए , इसकी कार्य प्रणाली को देखते हुए क्या ऐसा लगता है क़ि यह व्यक्ति ऐसा काम कर सकता , जो इल्जाम इसके सर पर आ रहा है .
यदि ऐसा लगता है क़ि ये व्यक्ति ऐसा है नहीं , यह ऐसा कर नहीं सकता , तो दुनिया भर में न्याय के क्षेत्र में यह सर्वमान्य है क़ि शक होने की स्थिति में लाभ आरोपी को ही मिलना चाहिए (nobody is guilty unless until proved guilty ).
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