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यूं तो हम आत्मार्थी बनते हें , हमें मोक्ष भी जाना है पर हम अपने कुल , वंश , जाति और देश आदि के प्रति ही मोह नहीं त्याग पाते हें तब संसार का त्याग कैसे करेंगे ?
हम छूटना चाहते पर हम छोड़ते कहाँ हें ? यदि पकडे रहेंगे तो छूटेंगे कैसे ?
यदि हम किसी को पकड़ते हें तो हम भी तो उससे जकड जाते हें , वह हमसे बंधता है तो हम भी तो उससे बंध जाते हें , उसे छोड़े बिना हम छूट कैसे सकते हें ? पर हम छोड़ना ही नहीं चाह्ते हें , हमें छूटना तो है पर हम छोड़ने को तैयार नहीं .
क्या हम उस बन्दर की तरह आचरण नहीं कर रहे हें जिसे हंडे के बंधन से तो छूटना है पर जो अपनी खुद की मुट्ठी खोलने के लिए तैयार नहीं है .
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