जगत में संयोग तो अनंत हें , यदि तू संयोगों की गुलामी करता है तो अनंत पर् द्रव्यों का गुलाम बन जाएगा , क्या तुझे यह मंजूर है ?
यदि हम संयोगों से बंधे रहेंगे तो बंधन में ही रहेंगे और यदि हम संयोंगों की गुलामी छोड़ देंगे तो मुक्त हो जायेंगे .
जिन संयोगों के पीछे तू पागल हुआ जा रहा है , जिन संयोगों पर तू इठलाता है या जिनसे तू घबराता है , भयभीत होता है , तू जिनमें व्यस्त है या जिनसे तू त्रस्त है , वे त
यदि हम संयोगों से बंधे रहेंगे तो बंधन में ही रहेंगे और यदि हम संयोंगों की गुलामी छोड़ देंगे तो मुक्त हो जायेंगे .
जिन संयोगों के पीछे तू पागल हुआ जा रहा है , जिन संयोगों पर तू इठलाता है या जिनसे तू घबराता है , भयभीत होता है , तू जिनमें व्यस्त है या जिनसे तू त्रस्त है , वे त
ो कोई वस्तु ही नहीं हें ; संयोग तो अवस्तु है ; संयोग और वियोग तो मान्यता में हें , वस्तू में नहीं ; वस्तू तो बस वस्तु है वह न तो संयोग है और न वियोग वह तो बस है , जब संयोग है ही नहीं तो इष्ट संयोग कैसा और अनिष्ट संयोग कैसा ? उसे संयोग मानना , अपना मानना यह हमारी मान्यता है , मान्यता की भूल मान्यता में ही सुधारी जा सकती है , वस्तू में नहीं
जगत में पदार्थ तो अनंत हें , क्या ये सभी तेरे संयोग हें ?
यदि तू माने तो हाँ और न माने तो ना !
तुम एक बस में यात्रा कर रहे हो जिसमें तुम्हारे अलावा और 50 लोग हें , क्या वे सभी तुम्हारे साथी हें ?
पिताजी तो कह रहे थे की बेटा विल्कुल अकेला बम्बई गया है , मुझे समझ ही नहीं आता है की 50 लोगों के साथ होते हुए वह अकेला कैसे है .
वह अकेला इसलिए है कि वह अन्य सहयात्रियों को अपना नहीं मानता है .
अब कुछ घंटे साथ-साथ बैठे अगल-बगल के 2-3 लोगों से दोस्ती हो गई , अब यदि टॉयलेट जाता है तो उनसे कहता कि ज़रा सामान का ख्याल रखना और पिताजी का फोन आता है तो उनसे कहता है की आप चिंता न करें , मैं अकेला नहीं हूँ , मेरे साथ दो लोग और हैं .
अब मेरा आपसे यह सबाल है कि सत्य क्या है ?
क्या वह अकेला है ?
क्या उसके साथ कोई है ?
यदि है तो सिर्फ दो ही क्यों , सारे के सरे 50 लोग क्यों नहीं ?
क्या अंतर है उन 2 में और अन्य 48 में ?
जब वह बस में चडा था तब तो नितांत अकेला था , ये 2 भी उतने ही अपरिचित थे जितने अन्य 48 लोग ; अब ये 2 अपने हो गए , साथी हो गए और बाकी 48 लोग ऐसे ही पराये बने रहे , साथी न बन सके .
फर्क है बस मान्यता का . जिन्हें अपना माना वे अपने हो गए और जिन्हें अपना न माना वे पराये बने रहे .
बस मिडवे पर रुकी तो वे दोनों कथित मित्र नीचे उतर गए और बस चलदी , तब वह कहता है की मेरे साथी पीछे छूट गए हें .
मैं पूछता हूँ कि जब छूट ही गए हें तो साथी कहाँ रहे ? अब तो साथ छूट गया न ?
पर कैसा गजब है जो छूट गए , दूर चले गए वे साथी बने रहे और जो अब भी साथ चल रहे हें बे साथी नहीं हें .
इसका मतलब यह है कि अपने और पराये का भेद क्षेत्र की दूरी से नहीं होता है , अपने और पराये की मान्यता से होता है .
इसका यह भी मतलब है कि जगत के ये अनंत पदार्थ तब तक मेरे संयोग नहीं हें जब तक कि मैं उन्हें अपना मानता नहीं .
हमारे अपने मित्रों या सम्बन्धियों में से यदि किसी के साथ हमारा झगडा हो जाता है तो हम कहने लगते हें कि अब बे अपने नहीं रहे , पराये हो गए हें .
वे होते हुए भी न रहे , अपने न रहे तो नहीं ही रहे न ; क्योंकि रहे न रहे बराबर .
मैं पूंछता हूँ कि क्या फर्क पड़ गया तब और अब में ?
सारी दुनिया अपनी बन गई और अपना सगा भाई पराया हो गया .
क्यों ?
जब तक अपना माना , अपना बना रहा और अपना मानना छोड़ दिया तो पराया हो गया , अनंत पर की भीड़ में शामिल हो गया .
बस यही स्थिति जगत के अन्य सभी द्रव्यों की है , जगत के जिन पदार्थों को हम अपना संयोग मानते हें वे हमारे सयोग बन जाते हें और जिन्हें हम अपना नहीं मानते हें वे यद्यपि हें पर हमारे संयोग नहीं बनते .
जिनके बारे में हम यह कहते हें कि वे हमसे बिछुड़ गए , वे भी कहीं जाते नहीं , वे तो जहां थे वहीं रहते हें पर अब हमने उन्हें अपना मानना छोड़ दिया तो वे संयोग न रहे .
इस प्रकार हम देखते हें कि संयोग और वियोग वस्तु में नहीं , मात्र मान्यता में है .
तब क्यों हम संयोगों के गुलाम बनें ?
जगत में जो अन्य पदार्थ तेरे चारों ओर बिखरे पड़े हें उन्होंने तुझे कब अपना माना है , तब बे तेरे कैसे हो गए , तू कैसे उनका हो गया ?
जो कुछ हुआ है वह बस तेरी अपनी मान्यता में हुआ है , मिथ्या मान्यता में हुआ है ; तू अपनी यह मिथ्या मान्यता छोड़ दे , अपनी मान्यता बदल दे और तेरा संसार छूट जाएगा , तू संसार से छूट जाएगा , तू मुक्त हो जाएगा , तू सम्पूर्ण हो जाएगा , सम्पूर्ण और सुखी , सम्पूर्ण सुखी .
यदि हम संयोगों से बंधे रहेंगे तो बंधन में ही रहेंगे और यदि हम संयोंगों की गुलामी छोड़ देंगे तो मुक्त हो जायेंगे .
वस्तुत: जगत के अनन्त द्रव्य (छह प्रकार के) पूर्णत: स्वतंत्र और अपने आप में परिपूर्ण हें , न तो वे किसी के स्वामी हें और न ही कोई उनका .
किसी द्रव्य में न तो कोई कमी है कि उसे पर से कुछ ग्रहण करने की आवश्यकता पड़े और न ही किसी द्रव्य के पास ऐसा कुछ भी अतिरिक्त है कि वह किसी को कुछ भी दे सके .
जब कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन में कोई हस्तक्षेप ही नहीं करता है तो कोई किसी के अनुकूल या प्रतिकूल कैसे हो सकता है ? यूं भी अनुकूलता या प्रतिकूलता भी कोई वस्तु नहीं है मात्र विचार है , एक दूषित विचार ; मान्यता है , एक मिथ्या मान्यता ; अहसास है , एक छद्म अहसास . यथार्थ से परे , वस्तु स्वरूप के विपरीत ; हमारी समस्या की जड़ , दुखों का मूल कारण , संसार में परिभ्रमण का कारण , मुक्ति में बाधक .
जगत में पदार्थ तो अनंत हें , क्या ये सभी तेरे संयोग हें ?
यदि तू माने तो हाँ और न माने तो ना !
तुम एक बस में यात्रा कर रहे हो जिसमें तुम्हारे अलावा और 50 लोग हें , क्या वे सभी तुम्हारे साथी हें ?
पिताजी तो कह रहे थे की बेटा विल्कुल अकेला बम्बई गया है , मुझे समझ ही नहीं आता है की 50 लोगों के साथ होते हुए वह अकेला कैसे है .
वह अकेला इसलिए है कि वह अन्य सहयात्रियों को अपना नहीं मानता है .
अब कुछ घंटे साथ-साथ बैठे अगल-बगल के 2-3 लोगों से दोस्ती हो गई , अब यदि टॉयलेट जाता है तो उनसे कहता कि ज़रा सामान का ख्याल रखना और पिताजी का फोन आता है तो उनसे कहता है की आप चिंता न करें , मैं अकेला नहीं हूँ , मेरे साथ दो लोग और हैं .
अब मेरा आपसे यह सबाल है कि सत्य क्या है ?
क्या वह अकेला है ?
क्या उसके साथ कोई है ?
यदि है तो सिर्फ दो ही क्यों , सारे के सरे 50 लोग क्यों नहीं ?
क्या अंतर है उन 2 में और अन्य 48 में ?
जब वह बस में चडा था तब तो नितांत अकेला था , ये 2 भी उतने ही अपरिचित थे जितने अन्य 48 लोग ; अब ये 2 अपने हो गए , साथी हो गए और बाकी 48 लोग ऐसे ही पराये बने रहे , साथी न बन सके .
फर्क है बस मान्यता का . जिन्हें अपना माना वे अपने हो गए और जिन्हें अपना न माना वे पराये बने रहे .
बस मिडवे पर रुकी तो वे दोनों कथित मित्र नीचे उतर गए और बस चलदी , तब वह कहता है की मेरे साथी पीछे छूट गए हें .
मैं पूछता हूँ कि जब छूट ही गए हें तो साथी कहाँ रहे ? अब तो साथ छूट गया न ?
पर कैसा गजब है जो छूट गए , दूर चले गए वे साथी बने रहे और जो अब भी साथ चल रहे हें बे साथी नहीं हें .
इसका मतलब यह है कि अपने और पराये का भेद क्षेत्र की दूरी से नहीं होता है , अपने और पराये की मान्यता से होता है .
इसका यह भी मतलब है कि जगत के ये अनंत पदार्थ तब तक मेरे संयोग नहीं हें जब तक कि मैं उन्हें अपना मानता नहीं .
हमारे अपने मित्रों या सम्बन्धियों में से यदि किसी के साथ हमारा झगडा हो जाता है तो हम कहने लगते हें कि अब बे अपने नहीं रहे , पराये हो गए हें .
वे होते हुए भी न रहे , अपने न रहे तो नहीं ही रहे न ; क्योंकि रहे न रहे बराबर .
मैं पूंछता हूँ कि क्या फर्क पड़ गया तब और अब में ?
सारी दुनिया अपनी बन गई और अपना सगा भाई पराया हो गया .
क्यों ?
जब तक अपना माना , अपना बना रहा और अपना मानना छोड़ दिया तो पराया हो गया , अनंत पर की भीड़ में शामिल हो गया .
बस यही स्थिति जगत के अन्य सभी द्रव्यों की है , जगत के जिन पदार्थों को हम अपना संयोग मानते हें वे हमारे सयोग बन जाते हें और जिन्हें हम अपना नहीं मानते हें वे यद्यपि हें पर हमारे संयोग नहीं बनते .
जिनके बारे में हम यह कहते हें कि वे हमसे बिछुड़ गए , वे भी कहीं जाते नहीं , वे तो जहां थे वहीं रहते हें पर अब हमने उन्हें अपना मानना छोड़ दिया तो वे संयोग न रहे .
इस प्रकार हम देखते हें कि संयोग और वियोग वस्तु में नहीं , मात्र मान्यता में है .
तब क्यों हम संयोगों के गुलाम बनें ?
जगत में जो अन्य पदार्थ तेरे चारों ओर बिखरे पड़े हें उन्होंने तुझे कब अपना माना है , तब बे तेरे कैसे हो गए , तू कैसे उनका हो गया ?
जो कुछ हुआ है वह बस तेरी अपनी मान्यता में हुआ है , मिथ्या मान्यता में हुआ है ; तू अपनी यह मिथ्या मान्यता छोड़ दे , अपनी मान्यता बदल दे और तेरा संसार छूट जाएगा , तू संसार से छूट जाएगा , तू मुक्त हो जाएगा , तू सम्पूर्ण हो जाएगा , सम्पूर्ण और सुखी , सम्पूर्ण सुखी .
यदि हम संयोगों से बंधे रहेंगे तो बंधन में ही रहेंगे और यदि हम संयोंगों की गुलामी छोड़ देंगे तो मुक्त हो जायेंगे .
वस्तुत: जगत के अनन्त द्रव्य (छह प्रकार के) पूर्णत: स्वतंत्र और अपने आप में परिपूर्ण हें , न तो वे किसी के स्वामी हें और न ही कोई उनका .
किसी द्रव्य में न तो कोई कमी है कि उसे पर से कुछ ग्रहण करने की आवश्यकता पड़े और न ही किसी द्रव्य के पास ऐसा कुछ भी अतिरिक्त है कि वह किसी को कुछ भी दे सके .
जब कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन में कोई हस्तक्षेप ही नहीं करता है तो कोई किसी के अनुकूल या प्रतिकूल कैसे हो सकता है ? यूं भी अनुकूलता या प्रतिकूलता भी कोई वस्तु नहीं है मात्र विचार है , एक दूषित विचार ; मान्यता है , एक मिथ्या मान्यता ; अहसास है , एक छद्म अहसास . यथार्थ से परे , वस्तु स्वरूप के विपरीत ; हमारी समस्या की जड़ , दुखों का मूल कारण , संसार में परिभ्रमण का कारण , मुक्ति में बाधक .
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