Wednesday, September 16, 2015

आत्मा का धर्म से मिलन का पर्व, धर्माराधना के पर्व :दशलक्षण महापर्व -

दशलक्षण महापर्व पर विशेष लघु आलेख श्रंखला  की प्रथम कड़ी -

धर्माराधना के पर्व :दशलक्षण महापर्व -

-परमात्म प्रकाश भारिल्ल 

इसी आलेख से -


"आत्मराधन का, निज में सिमटने का का पर्व है दशलक्षण महापर्व.
इसमें अनन्त आनन्द है सुख है, शांति है, साधना और आराधना है, अध्ययन है, स्वाध्याय है, तत्वचर्चा और धर्मोपदेश है. 
इसमें कोई कोलाहल नहीं, भागदौड़ नहीं, खानपान नहीं, नाचगान नहीं, बनाव-श्रृंगार नहीं, भीड़-भभ्भड़, आमोद-प्रमोद नहीं, लेनदेन नहीं, अट्ठाहास-क्रन्दन नहीं, चीखपुकार नहीं, हाहाकार या जयजयकार नहीं, ऊँचनीच नहीं, भेदभाव नहीं, अन्याय-अनीति नहीं, अत्याचार या वलात्कार (जबरदस्ती) नहीं, दण्ड या पुरूस्कार नहीं .
यह सर्वोदय की बात है, सबके कल्याण का मार्ग है.
जगत के अन्य सभी भोगप्रधान पर्वों से प्रथक यह त्याग और साधना का पर्व है, इसलिए यह मात्र जैनों का नहीं, जनजन का ही नहीं  प्राणिमात्र का महापर्व है."








बिछड़ा हुआ बच्चा घर लौट आये तो माँ का कैसा हाल होता है ? बस वही 
स्थिति आज इस "आत्माँ" की होरही है.
इस माँ का, आत"माँ " का बिछड़ा हुआ धर्म जो लौटा है, एक लम्बे अंतराल के बाद लौटा है. आत्मा (मैं स्वयं ) आनंदविभोर है
कैसा होता है माँ का व्यवहार ? बच्चे से लिपट जाती है, एकमेक होजाती है, उसे नतो किसी की परवाह रहती है और न ही किसी  की याद ही आती है. 
अब उसे किससे और क्या चाहिए ? 
सर्वस्व तो मिल गया, अबतो बस आत्माँ और उसका धर्म; अन्य कुछ भी नहीं. 
दोनों ही एक दूसरे में मगन. 
न खाने की परवाह और न सोने की. 
"अब किसी अन्य के लिए अवकाश (time) नहीं, अब किसी से कोई गिला-शिकवा नहीं, सभीके सब अपराध माफ़, अब मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए, बदला (revenge) भी नहीं, अब मुझे कोई डिस्टर्व न करे बस." 

"ना काहू सों दोस्ती , ना काहू सों बैर" अबतो  बस हमें अकेला छोड़ दीजिये." 

धर्म की आराधना के, आत्मा की आराधना के पर्व  दशलक्षण महापर्व आने पर साधक की मनोदशा कुछ इसी प्रकार की होती है, होनी चाहिए.

धर्म हमारा स्वभाव है.
स्वभाव में सुख और शान्ति है.
स्वभाव में स्थित आत्मा सुखी और सम्पूर्ण होता है.
हमारा धर्म, हमारा धार्मिक आचरण स्वयं हमारे हित में है, हमारे अपने लिए है,यह किसी अन्य के लिए नहीं है. यह प्रदर्शन के लिए भी नहीं है.
यहतो वह निधि है जो एकान्त में गुप्त रहकर भोगी जाती है.
हाँ! यह सत्य है कि यदि हम धर्मपूर्ण आचरण करेंगे तो अन्य लोग भी इससे प्रभावित होंगे ही.
जिस प्रकार शीतल और सुरभित वस्तुओं का संपर्क सहज ही अन्य लोगों को प्रफुल्लित कर ही देता है उसी प्रकार धर्मात्माओं के संसर्ग में आने वाले लोग भी शांति का अनुभव करते हें.

"आत्मराधन का, निज में सिमटने का का पर्व है दशलक्षण महापर्व.
इसमें अनन्त आनन्द है सुख है, शांति है, साधना और आराधना है, अध्ययन है, स्वाध्याय है, तत्वचर्चा और धर्मोपदेश है. 
इसमें कोई कोलाहल नहीं, भागदौड़ नहीं, खानपान नहीं, नाचगान नहीं, बनाव-श्रृंगार नहीं, भीड़-भभ्भड़, आमोद-प्रमोद नहीं, लेनदेन नहीं, अट्ठाहास-क्रन्दन नहीं, चीखपुकार नहीं, हाहाकार या जयजयकार नहीं, ऊँचनीच नहीं, भेदभाव नहीं, अन्याय-अनीति नहीं, अत्याचार या वलात्कार (जबरदस्ती) नहीं, दण्ड या पुरूस्कार नहीं .
यह सर्वोदय की बात है, सबके कल्याण का मार्ग है.
जगत के अन्य सभी भोगप्रधान पर्वों से प्रथक यह त्याग और साधना का पर्व है, इसलिए यह मात्र जैनों का नहीं, जनजन का ही नहीं  प्राणिमात्र का महापर्व है."
धर्म आराधना के पर्व दशलक्षण महापर्व कल दिनांक १८ सितम्बर २०१५ को प्रारम्भ होरहे हें .
आओ हम सभी धर्माराधना करें.

नोट - नियमित श्रंखला "परमात्म नीति " दशलक्षण महापर्व के बाद जारी रहेगी  

No comments:

Post a Comment