Thursday, November 10, 2011

तब भी कब कटती हें रातें , क्या दुर्दैव इसी को कहते हें

जीवन में रिश्ते बनते टूटते रहते हें और फिर एक दिन रिश्ते अपनी अहमियत ही खो देते हें , यदि रिश्ते ही सुविधाभोगी हो गए तो रिश्ते ही क्या रहे ?
जीवन में जब पहली बार यह क्रम प्रारम्भ होती है तब यह बड़ा दर्दनाक होता है .
नए बनने वाले रिश्तों की ताजगी तो कुछ और ही होती है पर वे सर्द रिश्ते जो हमें अपने जन्म से ही बने बनाए मिलते हें उनके मायने कुछ और ही होते हें -


जिनके संबल से जीता था मैं , वे प्रतिमाएं चटक गईं
कंटक बिछ गए राहों में , उनकी किर्चें बिखर गईं
ना सिर्फ हुआ आहत मन से,तन से भी लहूलुहान हुआ
नहीं बिरह ये सिर्फ तुम्हारा,वेगाना सम्पूर्ण जहान हुआ
चाहत में क़ि रोशन हो फिर आँगन,तारे गिनते रहते हें
तब भी कब कटती हें रातें , क्या दुर्दैव इसी को कहते हें

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