कुछ तो विचार कर ! यह कैसी भागीदारी ?
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
यह मानव जीवन क्या है ?
यह देह और आत्मा की, यानिकि देह की और मेरी एक असमानजाति पर्याय है.
यदि सर्वसाधारण की भाषा में बात करें तो कह सकते हैं कि यह देह (पुद्गल) की और आत्मा (मेरी) की एक भागीदारी है जो हमारे जन्म के साथ प्रारंभ हुई .
मैं आपसे एक सवाल पूक्षना चाहता हूं कि हमारी और देह की यह भागीदारी कितने कितने प्रतिशत की है ? यानि कि इस भागीदारी में हमारा (आत्मा का) कितना हिस्सा है और देह का कितना?
क्या कहा ?
फिफ्टी-फिफ्टी ?
नहीं , यह तो ठीक नहीं है; पर चलिए एक बार यही सही ! यही मान लेते हैं .
अब मैं आपसे पूक्षता हूँ कि जन्म से लेकर आज तक चली हमारी इस भागीदारी में हमें क्या मिला और देह को क्या ?
हमने अपने आपको (आत्माको) कितना समय दिया और देह को कितना ?
विचार करेंगे तो पावों तले से जमीन खिसक जायेगी.
यदि कहा जाये कि देह को शतप्रतिशत और आत्मा (अपने आप ) को कुछ भी नहीं, तो अतिशयोक्ति न होगी .
यह कैसी भागीदारी है ? यह कौनसा न्याय है ? यह कैसी उपेक्क्षा , कैसी उदासीनता है हमारी स्वयं अपने प्रति , अपने आत्मा के प्रति?
क्या यह हमारा अपने आत्मा के प्रति, स्वयं अपने प्रति अनंत छल नहीं ? अनंत क्रोध नहीं ? अनंत अन्याय नहीं ?
तो फिर आखिर ऐसा क्यों ?
किसने किया यह अपराध आत्मा के प्रति, अपने आत्मा के प्रति,अपने प्रति ?
स्वयं हमने ही तो .
देह और आत्मा की इस भागीदारी में ,निर्णय लेने का काम कौन करता है ?
स्वयं आत्मा ही तो!
अरे भाई जरा विचार तो कीजिये !
हम निरंतर इस देह की ही सम्भाल में उलझे रहे , मात्र इसी की आवश्यकताओं की पूर्ती में ही लगे रहे.इसी के लिए कमाना,इसी के लिए खाना,इसी के लिए सोना-जागना,नहाना-धोना,साज-श्रंगार,सभी कुछ इसी के लिए तो है.और इस सब में यह आत्मा न जाने कहाँ खो गया.
दिन-रत इस देह की सम्हाल करते-करते आत्मा की,स्वयं अपने आप की हमें सुध ही न रही.
अब कौन जाने यह भागीदारी और कितने दिन की है.
जिस दिन यह ख़त्म होगी उस दिन यह देह तो पडी रह जायेगी, इसका क्या बिगडेगा ? कोई और ठिकाना तलासेगी, कोई और मिल जायेगा ऐसा ही, हमारे ही जैसा.
पर हमारा क्या होगा? इस आत्मा का क्या होगा?
यह तो कोरा और खाली ही चला जायेगा न ?
अरे कोरा भी रहता तो ठीक था, यह तो कोरा भी कहाँ रहा.
इस देह की मांगों की पूर्ती में अनंत कर्जे में जो डूब गया है , निरंतर अनंत कर्मों का बंध जो किया है वह कहाँ जायेगा? वह तो साथ जायेगा न , अनंत संसार में भ्रमाने के लिए.
अब तो कुछ विचार कर !
अरे ! यह मानव देह तो भव का आभाव करने के लिए मिली है और तूने इसे संसार बढ़ाने में खपा दिया .
अरे व्यापर में भी जब सीजन का समय आता है तो कुछ ही दिनों या महीनों में जीवन भर की कमाई कर लेना चाहता है ताकि फिर यदि चाहे तो जीवन भर बैठ कर खा सके . यदि भर सीजन में भी अगर मात्र आज का खर्चा निकाला तो फिर मंदी के दिनों में क्या खायेगा?
यह मानव जीवन तो ऐसा सीजन है संसारी आत्मा के जीवन जिसके एक समय की कमाई तू अनंत काल खा सकता है यदि यह जीवन भी मात्र आज की, मात्र इस जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ती में ही झोंक दिया तब इस आत्मा के आगामी अनंत काल के लिए कौन,कब, क्या करेगा ?
अरे जिस प्रकार हम सीजन के दिनों में जल्दी-जल्दी तैयार होकर,जो जैसा समय पर तैयार मिला वह खा-पीकर , तेज क़दमों से अतिउत्साह पूर्वक जल्दी-जल्दी चलकर दुकान पर पहुँच जाते हैं और फिर जब कमाई में लगे तो फिर किसी और बात की सुध ही नहीं रहती न चाय-पानी की और न ---
सिर्फ एक ही धुन रहती है ,कमाई की .
सीजन के दिनों में कोई घूमने फिरने नहीं जाता . अरे और तो और इलाज तक नहीं करवाता . यदि डोक्टर कहे कि ओपरेशन करना पड़ेगा तो कहता है कि अभी कैसे हो सकता है ? अभी तो सीजन का समय है ,छह महीने बाद करबाऊंगा.
तव फिर जब आत्मा की बात आती है तब क्यों सब भूल जाता है ?
जब सब कम निपट जायें ,कुछ भी बाकी न रहे , और तो और झाडू लगाने काम भी न रहे तब यदि मन लगे तो आत्मा के नाम पर, धरम के नाम पर कुछ करना चाहता है वह भी अत्यंत उदासीनता पूर्वक. यहाँ यदि फिर जरा सा अन्य विकल्प आजाए तो फिर अन्तराय हो जाता है और यह छोड़-छाड़कर फिर लग जाता है गोरखधंधे में .
अरे ! अबतो हमारा सीजन आया है भाई ! कमाई करने का , इस आत्मा का आगामी अनंतकाल का इंतजाम करने का !
व्यर्थ का वक्त न गँवा !
कमसे कम समय में इस देह की अत्यावश्यक आवश्यकता की पूर्ती करके अपना शेष समय अति उत्साह पूर्वक आत्मसाधना में लगा !
यदि अभी यह न किया तो कब करेगा ?
क्या नर्क-निगोद में ?
in true sense we practiced more about body. since birth to up to the age of near about 30 years.we have devoted our more time for the protection of the bady, development of the body, for the body.when we get knowledge/ information's about soul and some spiritual thinking so our mind / body refuse to accept.now i may ask that when you were child, student , so on that time your parents and your self were worried for your livelihood and for your future. so you did services, business. suppose you have devoted 30 years for your business development, then you married and your sons are ready to share your business and you established your business and now saturated so you are talking about the spiritual and and own self . at that stage so say that we have wasted our time for worldly desires. these things are futile. because second line is developed . but during your struggling phase you did enormous lab our and dedication . sir after that saturation every body teaches us a lesson. i do agree that in true sense we have wasted our precious time, money and energy in wrong directions.words are easy to say but to follow is very hard. soul and body are separate but we are doing all activities for body. if we are dedicated for soul to give up family and all worldly relations. to be detached is very difficult. nothing is impossible but to follow is difficult. it is my opinion may be right or wrong. arguments are endless.DR ARVIND JAIN BHARU MOORI BHARRIL GOTRA.
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