समकित
(उपन्यास)
( अपने वर्तमान जीवनक्रम की निरर्थकता व मानव जीवन की सच्ची सार्थकता को रेखांकित करने का एक प्रयास )
-----समकित के एकरस धाराप्रवाह जीवन में एक द्विधा का अंकुरण भी अनायास ही हो गया -----
---उन नन्ही - नन्ही तरंगों ने समय के साथ - साथ विशाल रूप धारण करके उसके ह्रदय में विचारों का एक तूफ़ान खडा कर दिया था ,जिसके कम्पन को आज परिवार के अन्य सदस्य भी महसूस करने लगे थे.---
----- क्योंकि चिंतन तो अभी हम लोगों की दिनचर्या का अंग ही नहीं बन पाया है -----
------आज तक जिस पथ पर चला वह मार्ग नहीं , भटकाव था -------
-----पर मार्ग क्या है इसका निर्धारण अभी शेष था------
(1)
उस दिन उसके नए बंगले की नीव क्या पडी , उसकी जीवन धारा ही बदल गई . समकित के एकरस धाराप्रवाह जीवन में एक द्विधा का अंकुरण भी अनायास ही हो गया .हुआ यह क़ि अपने बंगले के लिए पसंद की गई भूमि के बारे में जब वास्तुशास्त्री ने बतलाया क़ि यह तो देव भूमि है और इसमें सुख - सम्रद्धि का वास है , तबसे ही उसके मानो मस्तिष्क में सात्विक कोमल भाव हिलोरें लेने लगे थे और उसने अपने आध्यात्मिक प्रष्ठभूमि न होने के बावजूद भूमि पूजन के अवसर पर नगर के आध्यात्मिक संत के प्रवचन का आयोजन किया .
उन शांत ,तेजस्वी,सरल व निस्पृह संत के करुना पूर्ण प्रवचन के कुछ भाग अनायास ही उसके मस्तिष्क पटल पर अंकित हो गए .
"अनादिकाल से अनन्त गुणों के वैभव का स्वामी यह भगवान आत्मा ,अपने निज वैभव को भूलकर ,भोगों का भिखारी बनकर दर-दर भटक रहा है , दुर्लभ यह मानव जीवन लक्ष्मी पूजन व भूमि पूजन के यज्ञ में आहूत हो जाता है ."
ऐसा सुनते ही समकित अति विनम्रता पूर्वक हाथ जोड़कर बोला -"स्वामीजी ! हमारे यहाँ तो लक्ष्मी पूजन नहीं होता है , हमतो दीपावली के दिन महावीर पूजन करते हें ,वह भी रात को घर पर नहीं बल्कि प्रात:काल मंदिर में ही ."
स्वामीजी उसके मासूम से स्पष्टीकरण पर तनिक मुस्कराए और बोले -
"दिन रात अपने आफिस और कल कारखानों में क्या करते हो ?
सिर्फ लक्ष्मी की आराधना ही तो ?
किसी प्रतिमा के सामने बैठकर एक थाली के चावल दूसरी थाली में ट्रांसफर कर देने मात्र का नाम ही तो पूजन नहीं है , सच्ची आराधना तो समर्पण का भाव है .
क्या आज हम धनार्जन के लिए पूर्णत: समर्पित नहीं हें , यह लक्ष्मी पूजन नहीं तो और क्या है ?
स्वामीजी ने उसे अपने बंगले में एक स्वाध्याय कक्ष बनाने की प्रेरणा दी और मानो इसी के साथ उन्होंने समकित के जीवन में मोक्ष के मार्ग का शिलान्यास कर दिया .वे बोले - " जिस प्रकार भौतिक मलिनता और ताप के शमन के लिए घर में स्नानागार (bathroom) बनाया जाता है उसी प्रकार मनोविकारों और मनश्ताप (mental tension) के शमन हेतु एक स्वाध्याय कक्ष भी अपने घर में अवश्य होना ही चाहिए ."
स्वामीजी की प्रेरणा के परिणाम स्वरूप आज समकित के इस विशाल ,मनोरम , आधुनिक व सर्वसुविधा संपन्न बंगले के अंतिम छोर पर एक सादगी पूर्ण , शांत व व्यवस्थित स्वाद्याय कक्ष स्थित है जिसके प्रवेशद्वार के ऊपर लगी एक संगमरमर की पट्टिका पर कुछ पंक्तियाँ स्वर्णाक्षरों में उत्कीर्ण हें -
धन कन कंचन राज सुख , सबहि सुलभ कर जान
दुर्लभ है संसार में , एक जथारथ ज्ञान
घर के कोने में बना यह स्वाध्याय कक्ष तो आज तक अपने उपयोग की प्रतीक्षा ही करता रहा,परन्तु मन के कोने में घर कर गई स्वामीजी की वे पंक्तियाँ-
"अनादिकाल से अनन्त गुणों का स्वामी यह भगवान आत्मा भोगों का भिखारी ------"
चिंतन की लहरें उत्पन्न करने लगीं थीं .उन नन्ही - नन्ही तरंगों ने समय के साथ - साथ विशाल रूप धारण करके उसके ह्रदय में विचारों का एक तूफ़ान खडा कर दिया था ,जिसके कम्पन को आज परिवार के अन्य सदस्य भी महसूस करने लगे थे.
इन दिनों समकित अपना कुछ समय स्वाध्याय कक्ष में बिताने लगा था , उसके खान पान में सादगी ,व्यवहार में उदासीनता और व्यक्तित्व में गंभीरता परिलक्षित होने लगी थी .
अब तक कभी उसके जीवन में ऐसा अवसर नहीं आया था क़ि घर के किसी शांत एकांत कोने में कुछ देर शान्ति से बैठकर अपने जीवन के लक्ष्यों का निर्धारण किया हो ; क्योंकि चिंतन तो अभी हम लोगों की दिनचर्या का अंग ही नहीं बन पाया है . अरे ! दिनचर्या की तो बात ही क्या ,हमारे तो सम्पूर्ण जीवन में ही चिंतन का कहीं कोई स्थान ही नहीं है , सभ्यता के विकास एवं स्वचालित जीवन शैली ने हर कदम से पूर्व चिंतन की शैली को ही कुंठित कर दिया है .
हम सभी की ही तरह समकित ने भी बिना विचारे अनायास ही कब अपने आपको अधिकाधिक धनोपार्जन की मानव सुलभ प्रवृति के हवाले कर दिया था (व्यापार में झोंक दिया था ) , उसे स्वयं भी पता न चला था .
आज वह पूरी तरह व्यापार के लिए ही समर्पित था , उसका यह समर्पण रंग भी लाया और एक माध्यम वर्गीय परिवार में जन्मा यह बालक आज एक छोटे-मोटे औद्योगिक साम्राज्य का नियंता बन चुका था .
हर आने वाली सुबह आज उसके जीवन में और -और अधिक सम्रद्धी का स्वर्णिम प्रकाश बिखेर देती है व घोर काली रातों में भी अब यह क्षमता नहीं है क़ि उसके जीवन के उजालों को हर लें .
प्रतिदिन उसकी ऊँचाइयों को नए-नए आयाम मिला करते हें पर अब ये उंचाइयां उसके लिए बेमानी हो चलीं हें ,अब वह अपने आपको छला गया सा महसूस करने लगा है क्योंकि अब तक वह संतुष्टी के इस अहसास के साथ जी रहा था क़ि अपनी यात्रा की अधिकतम दूरी उसने तय करली है और अब तक अपने अवचेतन मन में जिस सुकून के स्वप्न संजोये बैठा है ,उसकी वह मंजिल निकट ही यहीं कहीं होनी चाहिए , और फिर अब आगे का मार्ग उतना दुरूह (कठिन ) भी नहीं लगता है , जितना पहिले था .
अब आज जब इस मुकाम पर आकर उसे पता चला क़ि " आज तक जिस पथ पर चला वह मार्ग नहीं , भटकाव था " तब भला उसकी प्रतिक्रया इससे भिन्न और हो भी क्या सकती थी ?
ऐसा भी नहीं है क़ि इस मनस्थिति ने उसके वर्तमान जीवन क्रम को पूरी तरह से बदल ही डाला हो ,वल्कि यदि सच कहूँ तो कहीं भी कुछ भी नहीं बदला था,सब कुछ वैसा ही चल रहा था ,वही धंधा -व्यापार , वही कोठी-कार ,वही फेक्ट्री-बाजार , सब कुछ वही तो था , यदि कुछ बदला था तो वह था उस सब के प्रति उसका द्रष्टिकोण , उसकी आसक्ति .
जिस पर अब तक चलता रहा वह मार्ग नहीं है यह ज्ञान तो हो गया था , पर मार्ग क्या है इसका निर्धारण अभी शेष था .
मार्ग समझे बिना आगे बढना अनुचित हटा और ठहर जाना कर्मण्य के लिए संभव नहीं होता है , इसलिए रुके बिना चलते रहना व चलते हुए भी ठहरे रहने का एक मात्र उपाय था कदमताल और यह़ी उहापोह भरी कदमताल उसका आज का जीवन क्रम है .
will be continued -
क्या आज हम धनार्जन के लिए पूर्णत: समर्पित नहीं हें , यह लक्ष्मी पूजन नहीं तो और क्या है
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