क्यों व्यर्थ विकल्प जल में उलझा रहता है .
तेरी चाहत से कुछ भी नहीं होता !
अरे ! तू अपनी चाह के अनुसार संसार को बदलना चाहता है ,परिणमाना चाहता है और जब खुद तुझसे यह सब करते नहीं बनता तो भगवान को फुसला कर , उनके सामने २ आने का अर्घ्य चड़ाकर उन्हें भी अपने इस षड्यंत्र में शामिल कर लेना चाहता है.
अरे ! यूं तो यूं भी कोई भी कुछ नहीं कर सकता है , कुछ नहीं बादल सकता है पर यदि बदल भी सकता तो भी क्या होता ?
कुछ और बदले उससे पहिले तो तू खुद बदल जाता है ,
तेरी खुद की चाहत बदल जाती है .
अब तू कुछ और करना चाहता है .
और अब चाहत भी कोई अंतिम तो नहीं है न ?
कौन जाने कब कोई नई चाहत खड़ी हो जाये ?
अरे यदि भगवान तेरी बातों में आने लगे,तेरी सुनने लगे,तेरा साथ देने लगे तो उनकी क्या इज्जत रह जायेगी,उनकी क्या विश्वसनीयता रह जायेगी?
और फिर भगवान का भक्त भी तू कोई अकेला तो है नहीं , उनके तो अनंत भक्त हें .
यदि तेरे जैसे ही दो-चार और मिल जाएँ तो वे तो लग जायेंगे न काम से ?
पर चिंता करने की जरूरत नहीं है .
ऐसा कभी होगा नहीं .
क्योंकि भगवान तेरी सुनता ही कब है ?
तेरे पास ऐसा है ही क्या जो भगवान को सुना सके ?
परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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