Friday, December 2, 2011

आखिर कोई यह गिला क्यों करे कि " मेरी सारे जीवन की साधना व्यर्थ गई, निरर्थक रही " किसी का कुछ भी किया व्यर्थ तो जाता ही नहीं, सब कुछ सार्थक होता ही है.


आखिर कोई यह  गिला क्यों  करे कि " मेरी सारे जीवन की साधना व्यर्थ गई, निरर्थक रही "
किसी का कुछ भी किया व्यर्थ तो जाता ही नहीं, सब कुछ सार्थक होता ही है.
प्रत्येक कर्म का फल तो आता ही है .
अच्छे कर्म का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल.

मन चाहा फल मिलने पर हमें कर्म की सार्थकता लगती है और विपरीतता में निरर्थकता ; पर यह तो सही नहीं है न !
निरर्थकता तो तब हुई  जब अच्छे कर्म का फल बुरा मिले और बुरे फल का अच्छा .
इसलिए जब हमारे सामने विपरीत स्थिति उत्पन्न होती है तो यह हमारे ही कुकर्मों की सार्थकता है, यदि ऐसा नहीं होता तो हमारे कुकर्म निरर्थक हो जाते .

यूं भी किसी भी क्षण की हमारी दशा के लिए हमारा वर्तमान कर्मोदय ही जिम्मेदार है , एक क्षण पूर्व का और एक क्षण बाद का कर्मोदय वर्तमान दशा के लिए जिम्मेदार नहीं हो सकता है .
हमारी स्थूल द्रष्टि में चाहे कुछ भी लगे ,चाहे हमें यह लगे कि प्रत्येक दिन की गई एक-एक रूपये की बचत का प्रतिफल यह १ लाख  रुपया  मेरे पास है , पर यह सही नहीं है.
एक क्षण पाहिले जब मेरे पास ९९००० रूपये थे तब मेरे ९९००० रूपये की संपत्ति का पुण्योदय था और अब आज यदि १ लाख रूपये हेँ तो आज अभी १ लाख की संपत्ति संबंधी पुण्योदय है . इसमें ऐसा नहीं है कि पिछले समय के ९९००० के पुण्योदय में और १००० रुपुए का पुण्योदय जुड़ गया है बल्कि सच यह है कि वह ९९००० का पुण्योदय तो तत्समय ही प्रतिफलित होकर नष्ट हो गया है और इस समय यह १ लाख संबंधी पुण्योदय नया उदित हुआ है , और इसी तरह यदि अगले क्षण भी मेरे पास १ लाख रुपया टिकता है तो इसका मतलब यह है कि वर्तमान का १ लाख का पुण्योदय ख़त्म होकर तत्समय के लिए एक नया १ लाख का पुण्योदय उदित होगा.
इस प्रकार हमारे प्रतिपल के संयोगों के लिए एक प्रथक सम्पूर्ण कर्मोदय जिम्मेबार है,उसमें  एक समय पूर्व या पश्चात् के किसी  कर्मोदय का कोई योगदान नहीं है.इस प्रकार तुझे उपलब्ध तत्क्षण की बिभूति में तेरे जीवन भर के संचय का कोई महत्त्व नहीं है,
न तो वह संचय तूने किया था और न ही तूने उसे सुरक्षित ही रक्खा है या ना तूने उसे नष्ट ही किया है,खोया है .यदि वर्तमान में तेरे तत्संबंधी पुन्य का उदय नहीं है तो बड़े  ही यत्न से अर्जित व् जतन से संचित तेरी वह संपत्ति एक क्षण में ही नष्ट हो सकती  है और यदि पुण्योदय  है तो कितनी भी नई दौलत एक क्षण में ही कमाई जा सकती है .
यह तो हम जैसे कमजोर लोगों की कल्पना है कि बिंदु -बिंदु  से सिन्धु भरता है , एक समय में सिधु कैसे भर जायेगा या खाली हो जायेगा ?
पर क्या आपने स्वयं ऐसा होते देखा नहीं है ?
चिरकाल के कंगाल को लौटरी खुलती है और वह धनवान हो जाता है और इसी तरह चिरकाल का धनिक एक पल में निर्धन हो जाता है .हमें और आपको ऐसा लगता है कि एक पल में यह सब कुछ कैसे हो सकता है पर वस्तु व्यवस्था में यह कोई समस्या नहीं है .
जिस प्रकार जीवित बने रहने के लिए एक बार जन्म लेलेना ही पर्याप्त नहीं है वरन प्रतिपल नई उर्जा चाहिए उसी प्रकार संपत्ति को सुरक्षित बनाये रखने के लिए एक बार कमाई का पुन्य ही पर्याप्त नहीं है वरन प्रतिपल उसका संयोग बने रहने संबंधी पुण्य का उदय होना चाहिए.
इसका मतलब यह हुआ कि यूं तो सरसरी तौर पर हमें लगता है कि  जैसे मकान खरीदने के लिए हमने एक बार एक बार १ करोड़ रूपये खर्च कर दिए और बस अब वह हमेशा के लिए हमारा हो गया उसी प्रकार एक बार पुण्योदय से हमने दौलत कमा ली तो वह हमेशा के लिए हमारी हो गई,यह सच नहीं है .कमाते समय एक बार कमाने के लिए जितना पुन्य चाहिए उतना ही पुन्य प्रतिपल उसे बचाए रखने के लिए भी चाहिए.
उक्त तथ्य को द्रष्टिन्गत रखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि इस बात में कोई सार नहीं है कि मेरी सारे जीवन की साधना व्यर्थ गई या कि सार्थक हो गई ,वर्तमान में जो कुछ भी है वह तत्समय के उदय के अनुरूप ही है .

परमात्म प्रकाश भारिल्ल

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