एक दौर चला है मित्रता का , friendly होने का ; पर पता नहीं यह मित्रता का दौर है या शत्रुता का .
यह friendly दौर है या enmity ( hostility ) का .
सभ्यता का विकास हो रहा है और हर व्यक्ति एक दूसरे से अनुकूलता बरतने का प्रयास कर रहा है .
गुरु शिष्य से , पिता पुत्र से , पति पत्नी से , डाक्टर मरीज से , (घोड़ा घास से ) ( नहीं - नहीं , गलती हो गई ) .
इनके मायने समझते हें ; क्या हें ?
अब गुरु शिष्य से वह बातें करेगा जो शिष्य (अज्ञानी) को पसंद होगीं , अन्यथा कहीं शिष्य को बुरा न लग जाए , कोई असुविधा न हो जाए .
पिता भी पुत्र से इसी तरह का व्यवहार करेगा और डाक्टर भी मरीज से .
अब आप ही कहिये क़ि डाक्टर पथ्य - कुपथ्य का ध्यान रखने के बजाय इस बात का ख्याल रखने लगे क़ि " श्रीमान मरीज महोदय को क्या पसंद है और क्या नापसंद ? कहीं कड़बी दबाई खाने से उनका मूड ख़राब न हो जाए " तब क्या होगा ?
यह़ी बात गुरु-शिष्य और पिता-पुत्र के बीच हो , तब क्या होगा ?
यह दुनिया स्वर्ग बन जायेगी न ?
हाँ-हाँ ! क्यों नहीं ?
दुनिया स्वर्ग बन जायेगी और हम सब " स्वर्गवासी "
अरे ! हम न तो मित्रता का मतलब ही जानते हें और न ही शत्रुता का मतलब समझते हें .
अरे ! ज्ञानी का अज्ञानी से सहमत होना मित्रता नहीं शत्रुता है .
गुरु का शिष्य की गलत बातों में भी हाँ मिलाना ; मित्रता नहीं चाटुकारिता है .
और पिता का पुत्र से सहमत हो जाना ?
( यहाँ मेरा तात्पर्य अनुभव का अनुभवहीनता से सहमत होने से है , यहाँ पिता अनुभव का और पुत्र अनुभवहीनता के प्रतीक हें , प्रतिनिधित्व कर रहे हें .)
हाँ ! मैं यह कहना चाहता हूँ क़ि यह मित्रतापूर्ण नहीं स्वार्थी वृत्ति है .
गुरु का काम है शिष्य की भूलें निकालना और उन्हें जड़ - मूल से निकाल फेकना .
वेशक ; यह एक कठोर कदम , कठिन क्रिया और पीडादायक प्रक्रिया है पर यह़ी योग्य है .
पिता का काम है पुत्र को गल्तियाँ करने से बचाना और सन्मार्ग पर लगाना ;यह भी उतना ही कठिन और अप्रिय (सा दिखने वाला) काम हो सकता है .
और डाक्टर का काम तो और भी चुनौतीपूर्ण है .
स्वयं पीड़ित मरीज को कडवी दवा देना , अप्रिय पथ्य का सेवन करबाना और उसपर पीडादायक शल्य क्रिया करना .
अब आप ही कहिये इन सब मामलों में user friendly होने का अवकाश ही कहाँ है ?
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