ये बड़े-बड़े सिद्धांत सिर्फ बड़ी-बड़ी बातों के लिए ही नहीं हें , दिन प्रतिदिन की छोटी से छोटी बातों पर भी लागू होती हें , और यदि सुखी होना है तो यह करना ही होगा .
हम अपने आपको इतना बड़ा तो मानते ही कब हें कि सारे जगत का कर्ता अपने आप को मानें , हमतो बस अपने आसपास की वस्तुओं , व्यक्तियों और घटनाओं के इश्वर बने फिरते हें , हम उनपर अपना नियंत्रण मानते हें या नियंत्रण करने के प्रयासों में उलझे रहते हें , दुखी बने रहते हें और यही भ्रम तोड़कर हम सुखी हो सकते हें .
कई उदाहरणों से हम यह साबित कर चुके हें कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है और कोई उसे न तो कंट्रोल कर सकता है और न ही उसमें कोई परिवर्तन कर सकता है .
हम उक्त तथ्य को स्वीकार भी कर चुके हें पर फिर भी हम चूक जाते हें . हमारे सवकोन्शियस माइंड में यह बात जमी हुई है कि ये सब सिद्धांत बड़ी - बड़ी बातों में लागू करने के लिए हें और इसलिए हम इन्हें अपने दिन प्रतिदिन की छोटी - छोटी बातों में लागू नहीं करते हें . हमारा जीवन तो पल -पल की छोटी - छोटी घटनाओं से मिलकर बनता है , यदि हम उनमें सही नीति नहीं अपनाएंगे तो हम सुखी कैसे होंगे ?
ज़रा द्रष्टिपात तो करें अपने जीवन पर -
दिन के चौबीस घंटों में से 8 घंटें हम सोने में बिताते हें , कम से कम 2 घंटे बनाने - खाने में और 2 ही घंटे अपनी कसरत , नहाने-धोने और बनाव श्रृंगार में व्यतीत कर देते हें , 2-3 घंटे कुछ मनोरंजन या सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और बाकी 80-10 घंटे धंधे - रोजगार के नाम पर .
अब आप ही कहिये की इनमें से हमारी कौनसी गतिविधि क्रिएटिव है जो कुछ नया निर्माण करती है , हमें जीवन में 2 कदम आगे बढाती है , व्यवसाय सहित सब ही तो सिर्फ सामान्य जीवन क्रम को मेंटेन करने की गतिविधियाँ हें .
जब यही हमारा जीवन है , इसके शिवाय हमारे जीवन में जब कुछ और है ही नहीं , हमारा जीवन जब इन्हीं घटनाओं से मिलकर बना है तो जीवन में सुधार के लिए हमें इनमें ही तो सुधार करना होगा न ?
हमारी बात चल रही थी कि वस्तु स्वातन्त्र्य और अकर्तावाद का सिद्धांत हमें अपने दिन प्रतिदिन के जीवनक्रम में अपनाने की जरूरत है क्योंकि हम अपने जीवन की छोटी - छोटी घटनाओं से आकुलित व्याकुलित रहते हें और उनमें साम्यभाव रखकर अपनी आकुलता दूर कर सकते हें .
ऐसा नहीं है कि मात्र देश - दुनिया के मामलों में ही हमारी नहीं चलती है या प्रकृति और मौसम के मामले पर हमारा जोर नहीं चलता है , या दुनिया की आर्थिक मंदी तेजी पर ही हमारा जोर नहीं है , या सामजिक बुराइयों और अपराधों पर ही हमारा वश नहीं चलता है .ये सब तो बहुत दूर की बातें हें , हमारा जोर तो हमारे अपने ऊपर भी नहीं चलता है , गाँव , मोहल्ले या घर - परिवार की ही बात नहीं , हमारे अपने कपडे की सल और अपनी ही बाल की लट भी हमारी अपनी मर्जी के अनुसार नहीं रहती है . क्या हमने देखा नहीं है की लोग अपने बालों की एक -एक लट को घंटों अपनी मर्जी के माफिक संबारने का प्रयास करते हें पर वह उनकी मर्जी से नहीं चलती है .
वस्तु स्वातन्त्र्य और अकर्तावाद का सिद्धांत छोटी-बड़ी सभी वस्तुओं और घटनाओं पर सामान रूप से लागू होता है।
होता यह है कि हम अपने आपको इतना कमजोर और छोटा मानते हें कि बड़ी वस्तुएं या घटनाएं हमारे अनुकूल परिन्मेंगीन ऐसा तो हमें भ्रम भी नहीं होता है , पर हम अपने आसपास होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं में उलझे रहते हें , हमारा चित्त उन्हीं में अटका रहता है और हम दुखी बने रहते हें .
बंधन तो छोटा हो हां बड़ा , कमजोर हो या मजबूत , इससे क्या फर्क पड़ता है , हम तो बंधे ही रहते हें हें न ?
बस इसलिए हमें वस्तु के स्वतंत्र परिणमन के सिद्धांत को अपने उठने -बैठने , खाने-पीने , पहिनने -ओढने , चलने -फिरने , अपने स्वयं के हाथ-पाँव हिलाने , सोने -जागने , भूंख-प्यास , इक्षा-अनिक्षा , रूचि-अरुचि ,पसंद-नापसंद पर लागू करना होगा , हमें यह समझना , जानना और मानना होगा कि हमारे जीवन की प्रतिपल की इन छोटी-छोटी घटनाओं पर भी हमारा कोई नियंत्रण नहीं है और ये सब स्वतंत्र हें और हम हें इनसे सर्वथा अलिप्त .
न सही स्वतंत्र परिणमन , एक बार यही मानलें की इन सबका कर्ता इश्वर है और उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता है , तब भी तू तो कर्ता नहीं रहता है न ? तू तो कुछ नहीं कर सकता हा न ? जो इश्वर चाहेगा वही होगा न , तब फिर क्यों तू झूंठा इश्वर बना फिरता है , क्यों आकुलता में मरा जा रहा है ? दर असल न तो तुझे भगवान् का भरोसा है और न अपने आप में आत्म विशवास , बस यूं ही बातें बनाता फिरता है , अनर्गल प्रलाप करता है .
जब हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेंगे तो इन सब के कर्तृत्व के उस द्दयित्व से हम मुक्त हो जायेंगे जिसमें हम दिन-रात प्रतिपल उलझे रहते हें , और हम उस आकुलता से बच जायेंगे जो इनके प्रतिकूल परिणमन के फलस्वरूप उत्पन्न होती है .
हम सम्पूर्ण सुखी हो जायेंगे .
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