दुनिया बालों की नजर में जिन लोगों ने अपने जीवन की बुलंदियों को छुआ है , जो सत्ता और वैभव के शिखर पर हें , यह तो उनकी मानसिक दशा का वर्णन है , यह तो उनका निष्कर्ष है अपने जीवन और अपने कृत्यों के बारे में , आपकी आप जानें -
आज दुनिया की दौलत और जगत का यह वैभव मेरे क़दमों में पडा है , नित प्रति ही तो नये - नये शुभ समाचार प्राप्त होते रहते हें , चारों ही और से , पर यह सब अब मुझे लुभाता , नहीं सुहाता नहीं , गुदगुदी पैदा नहीं करता है .
क्यों ?
क्योंकि मुझे लगने लगा है कि यह सब भला मेरे किस काम का है ?
यह सब जो मेरे ही इर्द गिर्द है , मुझे स्पर्श तक तो करता नहीं है , तब यह मेरा कैसे हुआ ?
आज मेरे साम्राज्य की चूलें मजबूत होती जा रहीं हें पर मैं स्वयं तो जर्जर हुआ जा रहा हूँ , प्रतिदिन - प्रतिपल .
मेरा समूह ( group ) जितना शक्तिशाली हुआ जा रहा है मैं उतना ही कमजोर होता जा रहा हूँ , अब तो मैं अकेला ठीक से चल-फिर भी नहीं सकता हूँ .
घर धन-धान्य से भरा रहता है पर मैं कहाँ कुछ खा सकता हूँ ?
माप-माप कर बनाना और तौल-तौल कर खाना , मेरी
आज मैं अपने महलों को चाहे कितना भी फौलादी ( स्टील जैसा मजबूत ) बनालूं और उन्हें चाहे कितना भी सोने से ही मड दूं पर मेरा यह शरीर और मन तो इसी तरह जीर्णशीर्ण और कमजोर ही रहेगा न , इसका मैं क्या करूं .
यदि इनका मैं कुछ नहीं कर सकता तो ये बाहर का वैभव मेरे किस काम का ?
तो आज यही नियति है .
मेरे बाहरी संयोगों और मेरी अपनी शारीरिक और मानसिक दशा में समानता कहाँ है ? फिर यह सब मेरा कैसे हुआ , यह सब मेरे किस काम का रहा ?
तब मैं भला किसका हर्ष या संताप करूं .
जब भी मुझे कुछ भी प्राप्ति होती है तब इसी विचार से मन वितृष्णा से भर उठता है कि आखिर कब तक यह मेरा रहेगा ? मेरा और इसका साथ अब कितने दिन का है ?
मैं तो कभी भी चल बसूँगा , मेरे साथ इसमें से क्या जाएगा ?
मैं जहां जाउंगा वहां किस हाल में रहूँगा यह तो मालूम नहीं ; तब यह जो सब कुछ यहाँ पडा रहेगा ,यह मेरी क्या मदद करेगा ?
अरे ! तब तो कोई मदद करेगा ही नहीं , आजभी क्या मदद कर रहा है यह ?
चाय मीठी पी नहीं सकता ; फीकी भी दो कप नहीं पी सकता .
रोटी तो दो खा ही नहीं सकता , एक पर भी घी नहीं लगा सकता .
अच्छे से अच्छे वस्त्र और आभूषण पड़े हें , पर किस काम के , अब तो शरीर इनका भी बोझा उठाने से इनकार करने लगा है .
शरीर पर जैसे - तैसे इन्हें लाद भी लूं तब भी क्या फायदा ? यह सब बूड़ी घोडी और लाल लगाम जैसा ही लगेगा .
अरे ! यह झुरियों बाला जर्जर शरीर और ये जरी के महीन काम वाले नये - नये वस्त्र ?
आखिर इनका क्या साथ ?
ये नरम - नरम गद्दों वाले बड़े - बड़े पलंग अब मेरे किस काम के हें ? मुझे तो बिना गद्दे वाले सख्त पलंग पर सोने को कहा गया है .
अब चश्मा भले ही हीरे से जड़ा और सोने का बना चड़ा लूं पर अब इन मोटे - मोटे कांचों के पीछे छुपी , बुझी - बुझी सी आँखों से दिखता तो कुछ भी नहीं है .
अब कानों से भी कुछ सुनाई नहीं देता है फिर भी कभी - कभी कुछ शब्द कानों में पड़ जाते हें और मैं इन बच्चों को पंचबर्षीय योजनायें बनाते देखता हूँ तो तड़प जाता हूँ , आखिर किसके लिए ?
क्या मैं रहूँगा ? क्या ये भी रहेंगे ?
ये नए बगीचे , नए - नए वृक्ष ?
भला मेरे किस काम के ? क्या मैं इन्हें फलते - फूलते देख ही पाउँगा ?
अब लोग मेरे इस सोच को नकारात्मक सोच का नाम देने लगे हें , depression कहने लगे हें , पर क्या यह सच है ?
क्या मेरा सोच सच्चा नहीं है ? क्या अब भी मैं सच्चाई से मुंह मोड़ता रहूँ , आँख मूंदता रहूँ ?
तब मैं सच्चाई कब जानोंगा , कब उसे स्वीकार करूंगा ?
प्रतिबर्ष जब ये मेरा जन्मदिन मनाते हें तब कहने को तो हजारों साल जीने की दुआएं करते हें , पर सचमुच तो मेरे मरने का इन्तजार करते हुए ही दिन गिन रहे हें न ?
उनकी आखों में लिखी यह इबारत मैं स्पष्ट पड सकता हूँ कि " हो न हो यह अंतिम ही जन्मदिन हो "
जब भी कोई मुझे मिलने के बाद बिदाई लेता है तो उसके चेहरे पर यही भाव दिखाई देते हें की जाने फिर कभी मिलें या न मिलें , शायद यही अंतिम मुलाक़ात हो .
आज बर्षों से मैं इन्हीं नजरों का सामना करते - करते ऊब गया हूँ .
लोग कहते हें की आज मेरा सिक्का चलता है , क्या ख़ाक चलता है ?
हाथ - पाँव तक तो मेरे वश में नहीं हें , पत्नी मुझे बहलाने के प्रयासों में लगी रहती है और बच्चे भी झूंठी - झूंठी गाथाएँ सुनाकर बस फुसलाने की कोशिश करते रहते हें , सत्य तो यह है कि जो है सो है , कर कोई कुछ भी नहीं सकता है .
अब कोई कहे कि मैं क्या हूँ ? मैं दौलतमंद हूँ या कंगाल ? साधन संपन्न हूँ या विपन्न ? शक्तिशाली हूँ या कमजोर ? सुखी हूँ या दुखी , भरा- पूरा घर-परिवार है या मैं अकेला ?
अब मैं सोचता हूँ कि क्या इसी सब के लिए , यही दिन देखने के लिए जीवन भर दौड़ा , इसी के लिए ये सब ख़ट कर्म किये ?
ये झूंठ-सच , ये न्याय-अन्याय , ये बाद-विवाद सब इसके लिए ?
ये सब न करता तो क्या कसर रह जाती जीवन में ?
और क्या ये सब मेरे प्रयत्नों से जुटे हें ? मेरे करने से हुआ है क्या कुछ ?
जब कर करके मरा जा रहा था तब तो कुछ भी होता न था , अब जब कुछ करता ही नहीं , कुछ कर भी नहीं सकता , इस लायक ही न रहा तब सब कुछ होता चला जा रहा है .
स्पष्ट है कि मैं कुछ करता ही नहीं , मैं ही क्या ; कोई कुछ नहीं करता है , व्यर्थ ही मैं जीवन भर आकुलता में मरा - मिटा .
पर अब क्या हो सकता ?
अब तो जीवन बीत ही गया है .
अब तो सब कुछ हाथ से निकल गया है .
काश ! यह मैं पाहिले ही समझ पाता .
काश ! अपने भगवान् आत्मा के लिए इस जीवन में कुछ कर पाता .
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