Friday, March 24, 2023

लिखना है - देव शास्त्र गुरु पूजन - वीतराग सर्वज्ञ जिन , मंगल जिनकी वाणि निस्प्रही निर्ग्रन्थ गुरु, बिराजो हिय में आनि

देव शास्त्र गुरु पूजन
-      परमात्म प्रकाश भारिल्ल


    वीतराग सर्वज्ञ जिन , मंगल जिनकी वाणि
    निस्प्रही निर्ग्रन्थ गुरु, बिराजो हिय में आनि

                    (जल)
शीतलजल का सेवन जग में, शीतलता कारक कहलाता   
कहते हें हरता कालुष को, क्या मन उज्जवल हो पाता   
अधरोंकी प्यास बुझाने को, जलपान किया संतुष्ट हुआ
ये जल ही जीवन दाता है, ऐसा विचार नित पुष्ट हुआ
पर भव संताप मिटाने में, क्या इसने कोई योग दिया
जिसने भी इससे सुख चाहा, इसने सदैव निराश किया  
जलसे ही सुख की आशा में, भवकूप में  डूबा-उतराया
पर व्यर्थ रहा जलसंग्रह ये, मेरे समकित सावन आया 

                  (चन्दन)
क्यों चन्दन जग में कहलाता, व्यर्थ सुगन्धी का दाता
ना चित्त कोदेता शीतलता, ना पंक सुगन्धित होपाता
चंदन की शीतलता चंदन में, कोई कैसे लेगा उसकोपा
अपनी सुरभि में डूबा वह, उसके वैभव से तुझको क्या
सुख अनन्त है गुण मेरा, निर्गंध स्वभाव का धारी का
मैं निर्बन्ध, निर्ग्रन्थ प्रभु हूँ, क्यों इससे करता यारी मैं
चन्दन की माया में अबतक, भूला स्वरूप मैं झुलसाया
अब चन्दन की आश ताजी, मैंने समकित चन्दन पाया

                  (अक्षत)
अबतक अक्षत जीवन का, मुझको लगता था आलम्बन
दिखता अक्षत आधार मुझे, बिन अक्षत, विक्षत जीवन  
अक्षत से तृप्ती की चाहत में, भटका मेरा जीवन बीता
साबित हुई यहबस म्रगतृष्णा, हर दाव गया रीता रीता
मेरा स्वभाव तो है अक्षत, अक्षत द्रव्य,  गुण अक्षत है
अक्षत के अक्षत सेवनसे, नित पर्याय प्रकटती अक्षत है
जड़ अक्षत में अटक प्रभो, क्षतविक्षत अबतक तन पाया
अब अक्षत की चाह त्यागकर, मैंने अक्षय  संवल पाया

                    (पुष्प)
मनभावन इनकी सुन्दरता, वा दिल छूनेवाली कोमलता
मादक इनकी सुरभि चितमें, बस पैदा करती आकुलता
हें क्षणभंगुर ये प्रसून सभी, ये आजखिलें कल मुरझाएं
शाश्वत सुख के चाहक जो, वे क्योंकर इनको अपनाएँ
निजात्म लोकमें सुन्दरतम, परमें क्योंफिर अटके मन
जिसको रुचती कोमलता, कभी न हुआ बो अपना तन
सुमनोंपर मोहित मैं अबतक,ना निजकी ओर लुभापाया  
निज स्वरूप पर मुग्ध हुआ मैं, अबतज पुष्पोंकी माया

                  (नैवेध्य)
अन्यान्य जगत की सामग्री ये,भर न सकी मेरी गगरी
परसे तो कुछ पा न सका, मेरी अपनी निधियां बिखरीं
भोगों से सुख की अभिलाषा, भोगों से तृप्ति की चाहत
भोगों की भ्रामक म्रगतृष्णा, मुझको करती रहती आहत
स्वयंपूर्ण निजआतम है तब, है पर से क्यों, क्या चाहत
अपनी ओर निहारूं मैं तो, तत्क्षण मिलती मुझको राहत
दौड़ा इनके पीछे अब तक, पर ना इनको पा मैं तडपाया

अनाथ हुआ यह नैवद्य आज, मैं निज नाथ पा हर्षाया

                  (दीप)
जग की भूलभुलैया में जग, ले दीपक पथ खोजा करता
जग में भरमाये जग का पथ, उससे कैसे शिव मिलता
यूं भी दीपक से पथ पानेको, है नयनों की आवश्यक्ता
है चक्षु तो दीपक पथदर्शक, नैनहीन को दीपक क्या
चैतन्य स्वयं है ज्ञानसूर्य, आतम स्वपर प्रकाशक है
तन्मय निज का हो अनुभव, अन्य स्वयं ही भासत है
तब क्यों दीपक की रहे चाह, जब मेरी दुनिया मुझमें सिमटी
अंधियारा जगपर राज करे, मेरे ज्ञान ज्योति प्रकटी

                                  (धूप)
ज्यों संयोग अग्नि का पाकर, यह धुप धूममय हो जाता
यों संयोग रागद्वेष का, निज  चेतन को झुलसाता
यह धुप सुगंधी तथाकथित, बस मादक करती है मनको
संयोग सुखी करते मुझको, ये पोषाकरती इस भ्रमको
ये धूमसी चंचल पर्यायें, स्थिर स्वरूप कैसे पायें
ध्रुवधाम में स्थित साधक को, ध्रुव ही प्रकटें पर्यायें
लक्ष्यहीन यह धूम धूप का, और नहीं मुझको भाता
ताज कालिख से ओतप्रोत पथ, अब मैं शिवपथ पर जाता

                                    (फल)
यों भ्रमते मकरन्दों ने कुछ, न जग को दिया ना खुद पाया
पहुँच सका जो केन्द्रक में, वह सुन्दर सा फल बन पाया
अनंत ज्ञान पर्यायें भी यों, अटकी-भटकी नष्ट हुईं
आतम को उनने मलिन किया, स्वयं मलिन वा भ्रष्ट हुईं
रे! छिनाल बहिर्मुख पर्यायें, क्या अबतक कभी निहाल हुईं
निज द्रव्य बना जिनका स्वामी, पर्याय वही त्रिकाल हुईं
यह भेंट जगत को भंगुर फल, जिसने भव में ही भरमाया
क्या उसको इसकी चाह रहे, जिसने मोक्ष महल पाया

                             (अर्घ्य)
मैं तो अनादि से अपने को, पाता था रीता रीता
क्षतिपूर्ति की चाहत में, हरपल मेरा दुखमय बीता
जग के अर्घ्य जुटाने में मैं , जीवन अर्पित कर बैठा
कंचन की हेराफेरी में, मेरा वैभव मुझसे रूठा
आज विमुख होकर इससे, अब मैं जाता चेतन में
इसकी क्या आवशयक्ता अब, मेरे मोक्ष निकेतन में  
उपयोग ज्ञान का अब मेरा, निज की और समर्पित है
जग का यह सम्पूर्ण अर्घ्य, आज जगत को अर्पित है

                           (जयमाला)
भवसागर में अनादिकाल से, भटका, डूबा-उतराया
आशा त्रण पर टिका रहा, अबतक न मैंने तट पाया
तृष्णा तंद्रा भंग हुई अब, पार उतरने की ठानी
लक्ष्य बने जिनवर मेरे, मारग गुरु दीपक जिनवाणी

श्री जिनवर की प्रतिमा में , मम स्वरूप प्रतिबिम्बित है
द्रव्य निरंतर रहे त्रिकाल ही, पर्याय मात्र ही दूषित है
निर्ग्रथ दिगम्बर मुनिवरों के, पद चिन्हों पर चल पाऊं
पर द्रव्यों से द्रष्टि हटा, अब मैं निजआतम ध्याऊं
श्री जिनवर की वाणी ही अब, मेरे पथ का दीपक हो
हो रागभाव का लोप अभी, वीतरागता विकसित हो
निज वैभव को भूला भटका, जीता था जीवन विस्थापित
अब द्रष्टि को अंतर्मुख कर, करता जीवन में स्थापित
निज स्वभाव से विमुख रहा मैं, संयोगों पर द्रष्टि डारी
छेदन भेदन की पीर सही, ज्यों केलों की कंटक से यारी
संयोगों से आच्छादित पर, उनसे अलिप्त अस्पर्श्य प्रभू
ज्यों कीच कुम्भ में पड़े-पड़े, ना कंचन में आती उसकी बू
आतम की ज्ञान पर्यायों में, पर ज्ञेय स्वयं झलका करता
उस पर्याय का ज्ञाता आतम है, कुछ और नहीं कर्ता-धर्ता
आसक्ती पर ज्ञेयों की, करती ह्वास निज शक्ति का
अनन्तवीर्य परिणाम प्रभु, निज भगवान् की भक्ती का
स्वलक्ष्यी ज्ञान पर्यायें तो, स्वयं स्वयंमय हो जातीं
एक सामान रहा करतीं, यद्यपि इक जाती दूजी आती

देव शास्त्र औ गुरु मिले, लक्ष्य का है निर्धार
निज स्वभाव की है नैया, फिर क्यों ना उतरे पार 

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