Saturday, April 8, 2023

"कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले"

"कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले" 
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल 


वर्तमान विद्वानों और साहित्यकारों में से एक बाबू जुगलकिशोरजी "युगल" पर यह उक्ति सम्पूर्णत: चरितार्थ होती है.
यूं यदि उनके दीर्घ जीवनक्रम पर द्रष्टिपात किया जाए तो उनकी साहित्य साधना अपर्याप्त ही प्रतीत होगी, पर साहित्य का मूल्यांकन उसकी मात्रा से नहीं, उसके पैनेपन से किया जाता है, उसके सौन्दर्य से, उसके लालित्य से, उसकी भाषा और शैली की तीक्ष्णता और उसके कथ्य से किया जाता है.
उक्त कसौटी पर उनका साहित्य निश्चित ही खरा उतरता है.
यदि यह कहा जाए तो भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि वे मात्र  "कमसे कम लिखकर अधिक से अधिक प्रसिद्धी पाने वाले साहित्यकार ही न थे वरन वे  "कमसे कम कहकर अधिक से अधिक कह देने बाले "साहित्यकार भी थे.

अपने उक्त कथन के समर्थन में मैं उनकी देव-शास्त्र-गुरु पूजन प्रस्तुत करना चाहूंगा, जहां मात्र कुछ ही छंदों के माध्यम से उन्होंने देव-शास्त्र-गुरु का सम्पूर्ण स्वरूप विल्कुल सही परिपेक्ष्य में इस प्रकार प्रस्तुत कर दिया है मानो साक्षात मुनिराज हमारे समक्ष बिराजमान हों.

वे इस सिद्धांत के मूर्तरूप थे कि - 
"धर्म परम्परा नहीं, स्वपरीक्षित साधना है".
पूज्य गुरुदेवश्री के संपर्क में आने पर उन्होंने धर्म का सही स्वरूप समझा और अपने लिए वही मार्ग चुना.
पूज्य गुरुदेवश्री के प्रति संबोधित उनकी वे पंक्तियां स्वयं उनके चरित्र का भी दिग्दर्शन करती हें कि - 
"धर्म शिशु जननी के आँचल में नहीं पलता है, और मातपिता की परम्परा से बंधकर धर्म नहीं चलता है"

वे साधनों की पवित्रता के प्रवल प्रवक्ता थे व सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की साधना के सन्दर्भ में चर्चा करते हुए अपने व्याख्यानों में वे सदैव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की पात्रता के बारे में विस्तार से बड़ी सूक्ष्मता के साथ चर्चा किया करते थे.

जिज्ञासु, पात्र श्रोताओं को उनका संबोधन बड़ा सटीक, स्पष्ट और द्रढ़तापूर्ण हुआ करता था जिसमें अन्यथाप्ररूपण के लिए अवकाश नहीं रहता था.
उनकी धाराप्रवाह भाषा एवं शैली मात्र भी सहज ही श्रोताओं का मन मोह लेने और उन्हें बांधे रखने में सक्षम थी.
वे उन चंद भाग्यशाली पात्रों में से एक थे जिनका आदर स्वयं पूज्य गुरुदेवश्री भी करते थे.

तन से अत्यंत कोमल बाबूजी अपने विचारों में अत्यंत कठोर थे और अवसर आने पर किसी भी प्रकार की परवाह के बिना अपने विचार बड़ी द्रढ़ता के साथ प्रस्तुत करते थे.
उनके व्यक्तित्व ने ऊँचाइयों को छुआ पर वे सदा ही जमीन से जुड़े रहे, जनसामान्य ने कभी भी उन्हें अपने से प्रथक अनुभव नहीं किया.
वे ऐसे जीवंततीर्थ थे जिनके समक्ष उनके जीवनकाल में सदा ही मेले से लगे रहे.
आज उनका महाप्रयाण हम सभी के लिए निश्चित ही एक अपूरणीय क्षति है.
वे शीघ्र भवभ्रमण से मुक्त होकर मुक्ति वधु का वरण करें यही मंगल कामना है .

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