Friday, June 21, 2013

जो बात आज ४७ बर्ष पाहिले मुफ्त में ही समझ में आ गई थी उसे द्रढ़ता के साथ स्वीकार करने में व्यर्थ ही अमूल्य ४७ साल ( पूरा जीवन ही ) गंबा दिए .

उस ५-६ बर्ष की कच्ची उम्र में , जब जीवन की शुरुवात ही हुई थी , मुझे अनायास ही जीवन का मर्म समझ में आग़या था , मेरे मानस पटल पर गहरे से अंकित भी हो गया ( नहीं तो आज कैसे याद आता ) पर जीवन की आपाधापी में ऐसा खोया कि उस इबारत को पढने का , विचार करने का , स्वीकार करके अपनाने का अवसर ही नहीं आया और यह जीवन व्यर्थ ही निकल गया , अन्य सभी लोगों की ही तरह .
जब जागो तभी सबेरा , अभी भी देर कहाँ हुई है ?


बात सन १९६४ - ६५ तब मेरी उम्र यही कोई ५-६ साल की रही होगी , हम लोग मेरी जन्म स्थली अशोकनगर , मध्यप्रदेश में रहते थे .
घर के सामने एक बड़ा सा पीपल का पेड़ था , मेरा हाथ तो पत्तियों तक नहीं पहुंचता था पर यदाकदा १-२-४ पत्तिया मेरे हाथ लग जाया करती थीं , बड़ी चीज थी , खिलोने के नाम पर बस ऐसी ही वस्तुएं हुआ करती थी , हम दोस्त लोग उन पत्तियों को मोड - तोड़कर कुछ खिलौने बनाया करते थे , मुझे याद है उनमें एक ताला बनाना बहुत कोमन था .
एक दिन किसी ने न जाने क्यों उस पीपल के पेड़ की कुछ टहनियां काट डालीं और वहीं पेड़ के नीचे ही छोड़ दीं .
बस फिर क्या था , हम लोगों को तो मानों निधियां ही मिल गईं . कहाँ तो १-२ पत्तियों के लिए ललचाते रहते थे और कहाँ सेकड़ों - हजारों पत्तियाँ  , एक साथ !
जिस बटोर सकता था , बटोरलीं और घर ले गया . 
आज मैं धन्ना सेठ था और सचमुच ही मैंने धन्ना सेठों जैसा ही व्यवहार किया .
मैं सारी पत्तियाँ बटोर कर अपनी पीठ पीछे सहेजकर खिलौने बनाने के इरादे से कमरे में जमीन पर बैठ गया .
पर यह क्या ?
रोज तो मुझे जो एकाध पत्ती मिलती थी उसे मोड़ तोड़कर मिनिटों में ही ठिकाने लगा दिया करता था और भूल जाता था पर आज मैं ऐसा नहीं कर पाया , इतनी विशाल राशि देखकर मेरी तृष्णा वलवती हो गई , अब मैं एक भी पत्ती नष्ट नहीं करना चाहता था , सारी की सारी सहेजकर रख लेना चाहता था ( जाने कबके लिए , किसके लिए ) .
आखिर मैंने अपना दिल थोड़ा बड़ा किया और एक पत्ती उठाकर उसका आधा टुकडा करके कोई खिलौना बनाने की कोशिश की पर अधिक कुछ कर नहीं पाया , बस उन्हें सहेजकर बैठा रहा .
वक्त वीता , रात हो गई और मैं सारी पत्तियाँ सम्भाल कर रखकर सो गया .
सुबह उठा तो सबसे पहिले उन पत्तियों के खजाने की ओर लपका , पर यह क्या , सारी की सारी पत्तियाँ सूख कर मुरझा चुकी थीं .
मैं तो लुट गया .
सर्वनाश हो गया , कुछ भी शेष न रहा .
रोज तो एक दो पत्तियाँ मिलतीं थीं तो उनसे खेल तो लेता था , कल इतनी सारी मिल गईं तो वह भी नसीब न हुआ , उन्हें सहेजने , सम्भालने में ही वक्त चला गया और अब आज उस कचरे को ठिकाने लगाने की जिम्मेबारी भी गले पड गई सो अलग .
उस दिन की वह घटना मेरे कोमल मष्तिष्क पटल पर गहराई से अंकित हो गई .
उस ५-६ बर्ष की कच्ची उम्र में मुझे समझ आ गया कि संयोग कितने क्षणिक हें और उनकी उपयोगिता कितनी सीमित है और पागलों की तरह उनके पीछे दौड़ने , उन्हें जुटाने और सहेजने में शक्ति , श्रम और समय नष्ट करने से कोई लाभ नहीं .
सब संयोग स्वकाल में स्वयं ही जुट जायेंगे और स्वकाल में स्वयं ही बिखर जायेंगे , इसमें तेरा विकल्प कार्यकारी नहीं है .
तब से आधी सदी बीत गई , अनेकों विकल्प किये , उक्त निर्णय को झुठलाने के अनेक प्रयास किये , कथित रूप से कठोर पुरुषार्थ किये पर वही निर्णय दृढ होता गया है , उसमें परिवर्तन नहीं हो सका . 
हाँ ! आज यदि कोई अफ़सोस करने का कारण हो तो यह हो सकता है कि जो बात आज ४७ बर्ष पाहिले मुफ्त में ही समझ में आ गई थी उसे द्रढ़ता के साथ स्वीकार करने में व्यर्थ ही अमूल्य ४७ साल ( पूरा जीवन ही ) गंबा दिए . 
यदि उसी दिन द्रढ़ता के साथ इस सत्य को स्वीकार कर लेता तो शायद इस जीवन की तस्वीर कुछ और ही होती , पर फिर वही बात "हर काम स्वकाल में ही होता है "
अब आपका क्या ख्याल है ?
आज या ५० साल बाद या कभी नहीं ?
जैसा आपका भवितव्य .

1 comment:

  1. Nice. Bilkul satya he our esi gtna shyad her ek k jivan me hu e hogi per un ko vah labh nahi huva hoga jo apko huva he.
    JAI JINENDRA

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