Friday, December 12, 2014

भगवान से अपने कुकर्मों की माफी की यह प्रक्रिया भी बड़ी रोचक है.भगवान् के साथ कुछ लेदेकर अपने कुकर्मों के फल से बचने का अवसर दिखाई तो देने लगा--------

धर्म क्या,क्यों,कैसे और किसके लिए ? (गतांक से आगे, दूसरी क़िस्त)

-    परमात्म प्रकाश भारिल्ल
गत अंक में हमने पढ़ा- सचमुच हम धर्मात्मा नहीं सिर्फ धर्मभीरू हें.धर्म और धार्मिक आचरण हमारी चाहत नहीं आशा,आकांक्षा,लोभ और भय से प्रेरित मजबूरी है.धर्मात्मा तो दूर हम पुजारी भी नहीं,हमतो सौदागर हें.सौदागर भी इमानदार नहीं,बेईमान.-----------------म सभी  लोग न तो यह जानते हें कि धर्म कहते किसे हें,धर्म क्या है,न हमने यह सोचा है कि हमें क्यों धर्मात्मा होना चाहिए,या धर्म किस प्रकार धारण-पालन किया जाये और कौन ऐसा कर सकता है ? अब आगे पढ़िए -
भगवान से अपने कुकर्मों की माफी की यह प्रक्रिया भी बड़ी रोचक है.भगवान् के साथ कुछ लेदेकर अपने कुकर्मों के फल से बचने का अवसर दिखाई तो देने लगा पर आखिर किस कीमत पर ?
भगवान् किस कीमत पर हमारे कौनसे पाप के फल से हमें मुक्ति दिला सकते हें या किस कीमत पर कौनसा वरदान उनसे प्राप्त किया जा सकता है,यह कौन तय करे ?
जाहिर है इस सारी प्रक्रिया में भगवान् तो कुछ बोलते नहीं,इसलिए जो कुछ भी करना था हमें ही करना था.
यह तो हम बहुत अच्छी तरह समझते ही हें कि “जैसा काम बैसे दाम” सो प्रारम्भ में तो हमने काम के अनुसार ही दाम लगाने शुरू किये,बड़ा काम तो बड़ा दाम और छोटा काम तो थोड़े दाम पर धीरे-धीरे हमारी बनियाबुद्धी जाग्रत होने लगी.यह तो आपको भी अनुभव होगा ही कि यदि कोई ग्राहक बिना मोलभाव किये ही दुकानदार को मुंहमांगी कीमत देदे तो दुकानदार को इस बात का अफ़सोस होने लगता है कि उसने मात्र इतनी ही कीमत क्यों माँगी , यदि अधिक मांग ली होती तो वह भी मिल ही जाती.बस इसी प्रकार जब हमने देखा कि कितने ही बड़े काम की कितनी भी कम कीमत देदो तब भी भगवान् की ओर से कोई प्रतिकार ही नहीं आता तब हमारी ख्बाहिशें बढ़ती गईं और उनकी कीमत घटती गई और हम मात्र सवा रूपये के परसाद के बदले भगवान् से राजपाट तक मांगने लगे.
ऐसा भी कब तक चलता,जहां व्यापार हो बहाँ दलाल न हो यह कैसे संभव है,ये दलाल तो कहीं भी अपने लिए जगह बना ही लेते हें.
एक ओर तो कुछ लोगों ने देखा कि भगवान् के दरबार में तो सबकुछ माटी के मोल लुट रहा है क्यों न इस बहती गंगा में हमभी अपने हाथ धोलें,इस बंदरबांट में हमें भी कुछ तो मिलना ही चाहिए न !
दूसरी ओर उस याचक की भी एक पीड़ा थी कि वह कोई  भी कीमत चुकाने का बायदा करके भगवान् से अपना काम करबा लेने का एग्रीमेंट तो कर लेता था पर उसका यह एग्रीमेंट इकतरफा ही बना रहता था,उसे भगवान् की ओर से कोई ठोस आश्वासन नहीं मिल पाता था कि आपका काम हो ही  जायेगा,इस प्रकार उसकी बेचैनी मिटती नहीं थी,कायम ही रहती थी.
“जहां चाह वहां राह” एक मार्ग निकल ही आया.
दाता भगवान् और याचक भक्त के बीच एक और वर्ग अवतरित हो गया-विधिविधान सम्पन्न करबाने वाले पंडित और पुजारी का.
अब पंडितजी कार्य विशेष की सिद्धी के लिए भगवान् की ओर से विशेष कीमत मांगने लगे और बदले में निश्चित ही कार्यसिद्धी का आश्वासन देने लगे,इस प्रकार दोनों का ही काम होगया,पंडितजी को अपना हिस्सा मिल गया और भक्तों को पक्का आश्वासन.इतना ही नहीं,पहिले न तो कोई याचकों की शंकाओं का समाधान करने वाला था और नही उनके शिकवे-शिकायतों को दूर करने वाला,यदि मन्नतें मागने और अनुष्ठान्न करलेने के बाबजूद प्रयोजन सिद्धी न होती तो याचक किससे अपनी व्यथा कहता ? पर अब वह पंडितजी से जबाब-तलब कर सकता था.पंडितजी ने अपना यह कर्तव्य बखूबी निभाया भी.
जब कोई पंडितजी से शिकायत करता कि आपके कहे अनुसार सबकुछ तो कर लिया पर कष्ट तो दूर हुआ ही नहीं तब बे यह कहकर उसका मुंह बंद कर देते कि कष्ट दूर नहीं हुआ तो क्या हुआ पर कष्ट बड़ा भी तो नहीं न ! कष्ट का बढना तो रुक गया न !
इस पर जब सहमते-झिझकते हुए याचक कहता है कि रुका भी नहीं,संकट तो बढ़ा ही है तब भी पंडितजी कहाँ हार मानने वाले थे , बे कहते हें कि यह तो इस अनुष्ठान्न का ही परिणाम है कि तू मात्र इतने से संकट से निपट गया अन्यथा तो तू किस भयंकर विपत्ती में पड़ने वाला था इसकी तुझे कल्पना ही नहीं है.
इस प्रकार आप पायेंगे कि पंडितजी ने यदि आपके द्वारा भगवान् के प्रति समर्पित राशि में से अपना हिस्सा प्राप्त किया है तो उन्होंने उसके बदले भगवान् की ओर से अपना कर्तव्य भी बखूबी निभाया है .अन्यथा आप ही बतलाइये कि आखिर भक्तों के सामने भगवान की ओर से पैरबी कौन करता ? भगवान् स्वयं तो अपने मुख से कुछ बोलते नहीं हें.
 प्रारम्भ में काम की कीमत भी काम के अनुसार बड़ी भारी हुआ करती थी पर कालान्तर में इस धंधे को फलता-फूलता देखकर यहाँ भी भीड़ बढ़ने लगी काम की कीमत काम के महत्त्व के आधार पर नहीं वरन याचक का मुंह और पॉकेट देखकर तय होने लगी,कम्पीटीशन बढ़ जाने पर लोग कमसेकम कीमत पर अधिक से अधिक दिलाने का बायदा करने लगे और आज हालत यहाँ तक आ पहुँची है कि गली-गली में भिखारी भी भगवान् के एजेंट बनकर मात्र एक पैसे के बदले भगवान् से १० लाख दिलाने का बायदा करते फिर रहे हें. 
क्रमश:

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