Tuesday, February 24, 2015

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (छठी क़िस्त,गतांक से आगे)

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (छठी क़िस्त,गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा - दरअसल अपने वर्तमान के दुखड़ों में ही हम इतनी गहराई तक डूबे हुए हें कि हमें अपने त्रैकालिक लक्ष्य के बारे में सोचने का अवकाश ही नहीं है. बस ! हमें तो अपने वर्तमान के झंझटों से निजात चाहियेहर कीमत परइसी वक्त. धर्म का अवलंबन हमें अपने वर्तमान दर्द की दवा नहीं दिखाई देता है----यही कारण है कि हमारी भगवानों की लिस्ट में नित नए नाम जुड़ते जारहे हें और हम पाते हें कि इन नये भगवानों के दरबार में पुराने स्थापित भगवानों की अपेक्षा ज्यादा भीड़ जुटती हैज्यादा मन्नतें माँगी जातीं हें और ज्यादा चडाबा आता है.
अब आगे पढ़िए कि सच क्या है ? हम अपने भविष्य के प्रति सजग हें या नहीं हें –
अपने इन वर्तमान कष्टों के निवारण के लिए हम इतने अधिक व्यग्र हें कि इसके लिए हम कुछ भी करने को तैयार रहते हेंकोई भी कीमत चुका सकते हेंकिसी के भी सामने नाक रगड़ने को तैयार हें और किसी को भी भगवान् मान सकते हेंकिसी नीमहकीम कोदरिद्री भिखारी कोयहाँ तक कि वेचारे निरीह जानवरों को और पेडपौधों को तक भी. हम इन सब पर कुछ भी न्योछाबर करने तक को तैयार होजाते हेंकुछ भी क्यों सबकुछ तकवह भी मात्र सुनीसुनाईमनगड़ंत कहानियों के आधार पर. हमें इतना भी विचार नहीं आता है कि ये वेचारे तो स्वयं ही अनंत दुखीअसहायअशरण और करुणा के पात्र हेंऔर कोई कुछ कर पाए या न कर पाए पर ये तो हमारी क्या मदद कर सकते हें ?
हमें लगता है कि एक बारबस एक बार हमारे इस वर्तमान दुःख से हमें मुक्ति मिल जाए फिर हम चैन से धर्मध्यान करेंगे पर न तो नों मन तेल होगा और न ही राधा नाचेगी”. न कभी हमारे वर्तमान दुःख और झंझट कम होंगे और न ही हमें धर्म धारण करने के लिए अवकाश मिलेगा क्योंकि एक तो हमारे दुखड़े कम नहीं अनंत हेंफिर कभी कदाचित एक दुःख कम होता सा प्रतीत होता हो तो दूसरे चार दर्द उभर आते हेंभूंख मिटती है तो नींद उभर आती हैनींद टूटती है तो घूमनेफिरने की तड़फ पैदा होती है,घूमते हुए थक जाता है तो फिर कुछ खाने को जी चाहता हैखाकर पेट भर जाता है पर मन नहीं भरतालालसा में कुछ अधिक खालेता है तो और चार नई मुश्किलें पैदा हो जाती हें,   इस तरह इन दुखों का सिलसिला कभी थमता नहीं और हमें अवकाश मिलता नहीं. यूं तो कभी भी ऐसा होने वाला ही नहीं है कि संसार में हमें कोई दुःख-दर्द न हो पर कदाचित कभी ऐसा छद्म आभास होही जाए तब भी हम कहाँ पीछे रहने वाले हेंतब हम दुसरे के दुखों पर दुखी होना शुरू कर देते हेंकरुणावानदयालू औरपरोपकारी बनकर.
आखिर महान बनने का शौक तो हमें भी है ही न !
अब करुणा को तो हम दुःख मानते ही नहींकरुणा को तो हम गुण मानते हें और करुणावान को महान.
एक हिन्दी साहित्यकार ने लिखा है दूसरों के दुःख को देखकर उत्पन्न होने वाले हमारे दुःख को करुणा कहते हें
इस प्रकार हम देखते हें कि करुणा तो कषाय का ही एक प्रकार हैयह तो आर्तध्यान है.
जो जितना अधिक दयालू है वह उतना ही अधिक दुखी है.
हमारा कमाल तो देखिये !
हम भगवान् को दयानिधान समझते हेंअब यदि भगवान् दयालू हों तो जगत में सबसे अधिक दुखी तो वही होंगे क्योंकि जगत के दुःख तो कभी कम हो नहीं सकते हें तब दया के कारण वे तो सदैव दुखी ही रहेंगेक्योंकि वे किसी के दुःख दूर तो कर नहीं सकते हेंकर सकते होते तो कर ही चुके होते न तब तो कोई दुखी होता ही नहींतब वे करुणा करते भी किस पर ?
हमारी चर्चा बिषय तो यह था कि हम सदा ही वर्तमान की अपनी व्याधियों से व्यथित होकर उनसे छुटकारा पाने के लिए किसी न किसी सहारे की खोज में रहते हेंजब कोई भी द्रश्य शक्ति हमें ऐसा करने में असमर्थ लगी तो अपना मन रखने के लिए हमने एक ऐसी अद्रश्य शक्ति की कल्पना की जो कदाचित ऐसा कर सकेजिसे हम भगवान् के नाम से पुकारने लगे और जिसके सामने गिडगिडाने व भीख मांगने की प्रक्रिया को हमने पूजा-भक्ति नाम दे दिया.
दिल बहलाने को ग़ालिबये ख्याल अच्छा है
सचमुच हम अपनी कमजोरियों और अवगुणों को भी महिमामंडित करने में सिद्धहस्त हें.
क्या यह हमारा घोर अविवेक नहीं कि हम अपने तात्कालिक प्रयोजनों में ही इतने व्यस्त रहते हें कि हमें अपने त्रैकालिक हितों का ख्याल ही नहीं रहता है ?
यदि हम इसी प्रकार अपने वर्तमान को क्षणभंगुर तात्कालिक प्रयोजनों के पीछे वलिदान करते रहेंगे तो कब और कैसे हम अपने अविनाशी कल्याण का उपक्रम कर पायेंगे क्या यह हमारे चिंतन का बिषय नहीं होना चाहिए ?

महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या सचमुच हम इतने नादान हें कि हम सिर्फ अपने आज में ही इतने  उलझे रहें कि हमें अपने भविष्य की सुध ही न रहे ?
अपने आसपास नजर दौडाने पर तो मुझे उल्टा यह नजर आता है कि हम मनुष्य सदा ही अपने भबिष्य के बारे में ही चिन्तित रहते हें और अपने भविष्य की चिन्ता और इंतजाम के प्रयासों में अपने वर्तमान को भी चौपट कर डालते हें. पशुओं और मनुष्यों में एक बड़ा अंतर यह भी है कि एक तो मनुष्य जीवन भर अपने भूत (काल) के बोझे को ढोता हुआ अपनी शक्ति और सामर्थ्य का अपव्यय करता है और दूसरा सदा अपने भविष्य के प्रति असुरक्षा महसूस करता हुआ चिन्तित बना रहता है इस मायने में पशु की चिंताएं मनुष्य की अपेक्षा अनन्तबां भाग ही हें क्योंकि न तो उसे  अनादि भूतकाल से प्रयोजन है और न ही अनंत भविष्य की चिंता  हें . तब यह उल्टा आरोप कैसे कि “हम अपने तात्कालिक प्रयोजनों में ही इतने व्यस्त रहते हें कि हमें अपने त्रैकालिक हितों का ख्याल ही नहीं रहता है” ?
आखिर हमारे ही उक्त दोनों ही परस्पर विरोधी कथनों में से कौनसा कथन सही है और कौनसा गलत ?
उपरी तौर पर देखने में भले ही हमें अपने उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते हों पर गहराई से विचार करने पर हमारा यह भ्रम दूर हो जाएगा और हम पायेंगे कि हमारे दोनों ही कथन अपनी-अपनी जगह पर सही ही हें. इनमें सिर्फ वर्तमान औरभविष्य के काल की मर्यादा की गड़ना का अंतर है.
यदि अपने उक्त कथनों की स्पष्टता के साथ व्याख्या की जाए तो हम पायेंगे कि-
हम अपने इस मनुष्य जीवन के भविष्य के बारे में तो सदा चिन्तित रहते हें और भविष्य की चिंता और इंतजाम के फेर में सदा ही अपने वर्तमान को भी व्यथित बनाए रखते हें पर हमारी यह चिंता सिर्फ इसी मनुष्य पर्याय के भविष्य तक ही सीमित है इस मानव जन्म के बाद के भविष्य के प्रति हममें कदाचित किसी भी प्रकार की जागरूकता, गम्भीरता, चिंता या सारोकार दिखाई नहीं देता है.(यदि हम इस जीवन के बाद की चिंता करते भी हें तो अपनी नहीं वरन अपने उन वंशजों की चिंता करते हें जो न तो मैं हूँ और न ही सचमुच मेरे हें) इसलिए यह कहना भी सही है कि हम वर्तमान में ही मग्न हें और हमें भविष्य की कोई चिंता ही नहीं है.
आखिर ऐसा क्यों ?
यदि हम भविष्य के प्रति जागरूक हें तो हमें अपने अगले भव का विचार क्यों नहीं आता और यदि हम सिर्फ वर्तमान में जीने वाले स्वभाव के हें तो अपने इसी जीवन के आगामी काल (जोकि अत्यंत अनिश्चित है) की चिंता भी क्यों ? 
इसके मायने विल्कुल साफ़ हें कि हमें द्रश्य की चिंता (विचार) होती है क्योंकि हमें उसी का भरोसा होता है, अद्रश्य का हमें भरोसा ही नहीं होता है और इसीलिये हमें उसका विचार भी नहीं आता है और चिंता भी नहीं होती है, हम उसके प्रति गंभीर नहीं होते हें.
अपने इस जीवन का आगामी काल और अपनी आगामी पीढी (हालांकि यह हम स्वयं नहीं हें) भी हमें हमारी कल्पना में स्वीकृत है इसलिए हम उनकी चिंता भी करते हें और इंतजाम भी; पर इस जीवन के बाद हमारे अपने अस्तित्व का भी असंदिग्ध (संशय रहित) भरोसा हमें नहीं है, बस इसलिए उसके  प्रति हमारा रबैया भी लापरवाही भरा होता है. यदि हमें इस जीवन के बाद भी अपने अस्तित्व के बारे में संशय रहित विश्वास हो तो हम उसके लिए कुछ भी न करें और उसके प्रति लापरवाह बने रहें यह सम्भव ही नहीं.
-क्रमश:

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