Friday, May 8, 2015

विवेक का उपयोग कर, विकास व कल्याण को अवरुद्ध करने वाली सीमाओं को तोड़कर सच्चे वस्तुस्वरूप का निर्णय कर

कल्याण चाहता है तो अपने विवेक का उपयोग कर, विकास व कल्याण को अवरुद्ध करने वाली सीमाओं को तोड़कर सच्चे वस्तुस्वरूप का निर्णय कर
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल



क्या यह तेरे लिये हितकारी, उचित व तर्क संगत है कि धर्म के नाम पर मात्र अपनी पूर्वाग्रह युक्त मान्यताओं व परम्पराओं से ही बंधा रहे ?
क्या तुझे मालूम हें कि कौनसी मान्यताएं व परम्पराएँ कब, कैसे और किसके द्वारा धर्म के साथ जुड़ गई हें ?
हम अपनी माता-बहिनों के द्वारा सावधानी पूर्वक बनाए गये शुद्ध भोजन को भी आँख मूंदकर यूं ही ग्रहण नहीं कर लेते हें, सावधानी पूर्वक देख-परखकर ही ग्रहण करते हें न ?
तब धर्म के मामले में ही यह उदासीनता क्यों ?
क्या धर्म से तेरा कोई वास्ता ही नहीं है ?

सत्ता का प्रेमी नेता अपना या पराया दल नहीं देखता, वोटर की जाति या धर्म नहीं देखता, अमीर-गरीब, छूत-अछूत, देशी-परदेशी कुछ नहीं देखता है, उसकी द्रष्टि सिर्फ वोट पर और सत्ता पर रहती है, जहां से यह मिले बहाँ से पाने के लिए तत्पर रहता है.
अपने आपको किसी भी सीमा में सीमित नहीं करता है, अपने विकास के मार्ग में किसी को बाधक नहीं बनने देता है.

धन का प्रेमी व्यापारी भी यह सब कुछ नहीं देखता है और हर उस व्यक्ति से व्यापार करने के लिए तत्पर रहता है जिससे धन मिले.
व्यापार में उसका प्रयोजन धन से है , यदि धन मिलता हो तो यहाँ भी वह अपने को किसी सीमा में नहीं बाँधता है.

यदि धर्म के नाम पर तू सिर्फ अपनी कुल की परम्परा, जाति, सम्प्रदाय या पूर्व मान्यताओं के बाड़े में ही कैद रहना चाहता है तो तू धर्मात्मा नहीं है, आत्मार्थी नहीं है, मोक्ष का अभिलाषी नहीं है, धर्म के प्रति गंभीर नहीं है.

तू आज जहां जन्मा है उस कुल की परम्परा को सच्चा-अच्छा मानकर पालता है, इस सिद्धांत के अनुसार तो यदि तू उसके विपरीत मान्यता वाले कुल में जन्म लेलेता तो क्या उसे सच्चा नहीं मान लेता ? क्या तब तू उसके प्रति ही समर्पित नहीं हो जाता ? क्या तुझे कल्पना में भी यह स्वीकार है ?
तो क्या दो परस्पर विरुद्ध मान्यताएं भी सच हो सकती हें ?
यदि नहीं तो उस धर्म के मामले में उस गलत पैमाने को मानने के लिए कैसे सहमत हो सकता है जिसके अपनाने से गलत निर्णय होने की अनन्त संभावनाएं हें ?

अब भी यदि तू सिर्फ कुल परम्परा से ही चिपका रहना चाहता है, तो तेरा कल्याण संभव नहीं है क्योंकि परम्पराओं के पालन का जो परिणाम हो सकता है वह तो सामने है. 

यदि तू संसार की परम्परा का पालन करेगा तो संसार में ही तो रहेगा, मोक्ष कैसे जाएगा?

यदि तू अपना कल्याण चाहता है तो विकास व कल्याण को अवरुद्ध करने वाली सारी सीमाओं को तोड़कर सच्चे वस्तुस्वरूप का निर्णय कर, तेरा कल्याण होगा.

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