Friday, July 10, 2015

“मैं” किसी के सापेक्ष कोई आधी अधूरी वस्तु नहीं वरन अपने आप में सम्पूर्ण, निरपेक्ष वस्तु हूँ इसलिए किसी एक नय का कथन मेरी (मैं“ की) सम्पूर्ण परिभाषा (लक्षण) नहीं हो सकता है.

"मैं” के वे लक्षण जो आंशिक रूप से “मैं” का प्रतिनिधित्व करें, “मैं” को इंगित करें, सही नहीं हो सकते हें.'

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (बारह्बीं क़िस्तगतांक से आगे) 

-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि “ मुझे समय-समय और स्थान-स्थान पर विभिन्न अपेक्षाओं से दिए गये नाम और उनकी अप्रासंगिकता क्या हें ” अब आगे पढ़िए -



अहम् बात यह है कि हालांकि यह बात सही है कि मुझे जो भी नाम दिए जाते रहे हें बे किसी न किसी अपेक्षा दोषपूर्ण अवश्य हें पर यह भी तो उतना ही बड़ा सत्य है कि कुछ अंशों में ही सही, बे नाम मुझे इंगित भी करते ही हें, मेरा प्रतिनिधित्व भी करते हें, तब उन्हें आप सम्पूर्णत: कैसे झुठला सकते हें?
आपके इस प्रश्न के उत्तर में मैं आपसे ही एक प्रश्न पूंछता हूँ –
एक वर्तन में 100 आम रखे हें, एक बालक से कहा गया कि वह गिनकर बतलाये कि उस वर्तन में कितने आम हें.
उसने बतलाया 99.
अब आप बतलाइये कि उस बालक का उत्तर सही है या गलत ?
यदि आप कहते हें कि गलत है, तो मेरा आपसे प्रश्न है कि गलत क्यों है? उत्तर सम्पूर्णत: गलत तो नहीं है, सम्पूर्णत: गलत तो वह तब होता जब वह आमों की सत्ता से ही इनकार कर रहा होता, वह कहता कि “ एक भी नहीं “ उसमें आम हें ही नहीं. यदि वह 99 आमों का होना स्वीकार का रहा है तो उसका उत्तर 99 प्रतिशत तो सही है न !
क्या आप इससे सहमत हें?
नहीं?
अच्छा मानलें कि वह कहे “101”, तब आप उसे क्या कहेंगे, सही या गलत?
आप कह सकते हें कि 101 में 100 तो अंतर्निहित हें, उसमें 100 तो आ ही जाते हें, इसलिए यह उत्तर सही है क्योंकि उसने एक भी आम के होने से इनकार नहीं किया है, उसने पूरे 100 आमों का होना तो स्वीकार किया है न , अब वह 101 बां आम नहीं है इतने मात्र से 100 आमों की सत्ता और उस सत्ता की स्वीकृति से कैसे इन्कार किया जा सकता है?
पर नहीं उक्त दोनों ही जबाबों 99 एवं 101 को सत्य नहीं कहा और माना जा सकता है क्योंकि प्रश्न न तो मात्र आमों के बारे में था और न सिर्फ संख्या के बारे में, प्रश्न “आमों की संख्या“ के बारे में संयुक्त रूप से था.
एक और सवाल; यदि उक्त प्रश्न के जबाब में वह कहता कि 1 आम है तो क्या यह जबाब भी 99 की ही तरह गलत होगा?
क्या 99 और 1 दोंनों ही जबाब एक जैसे ही गलत हें, इन दोनों में कोई फर्क ही नहीं, 99 में और 1 में कोई फर्क ही नहीं ? 99 सत्य के एकदम निकट है और 1 सत्य से अत्यंत दूर, तब भी?
एक गणित के मास्टर की नजर में तो दोंनों ही जबाब शतप्रतिशत गलत ही हें और 99 भी सत्य से उतना ही दूर है जितना 1.
यदि कोई बटन १०० बार दबाने से कोई ताला खुलता है तो न तो वह 99 बार दबाने से खुलेगा और न ही १ बार दबाने से, इस प्रकार 99 बार बटन दबाने से भी शतप्रतिशत असफलता ही हाथ लगेगी, 99 प्रतिशत नहीं.
उक्त उदाहरण की ही भाँति “मैं” के वे लक्षण जो आंशिक रूप से “मैं” का प्रतिनिधित्व करें, “मैं” को इंगित करें, सही नहीं हो सकते हें.
हलांकि नीबू खट्टा होता है पर “ जो खट्टा हो उसे नीबू कहते हें,” यह परिभाषा सही नहीं हो सकती है क्योंकि, मात्र इस परिभाषा के आधार पर नीबू की पहिचान नहीं हो सकती है, यदि इस परिभाषा के आधार पर किसी से नीबू लाने के लिए कहा जाए और वह इमली लेकर आजाये तो आप उसे कैसे झुठलायेंगे ?
शास्त्रीय भाषा में कहें तो “जो खट्टा हो उसे नीबू कहते हें “ यह परिभाषा “अतिव्याप्ति दोष” से दूषित है क्योंकि अन्य अनेकों पदार्थ भी खट्टे होते हें.
“जो पीला हो उसे नीबू कहते हें” नीबू की यह परिभाषा “अतिव्याप्ति” दोष से तो दूषित है ही क्योंकि नीबू के अलावा अन्य अनेकों पदार्थ भी पीले होते हें पर साथ ही यह “अव्याप्ति” दोष से भी दूषित है क्योंकि नीबू अन्य रंगों का भी होता है, यथा कच्चा नीबू हरा होता है. नीबू को मीठा कहना “असंभव” दोष है, क्योंकि नीबू मीठा होता ही नहीं.
मात्र वही परिभाषा किसी वस्तु की पहिचान का लक्षण हो सकती है जो अतिव्याप्ति, अव्याप्ति और असंभव तीनों प्रकार के दोषों से रहित हो.
ऊपर मेरे (“मैं” के) जिन-जिन नामों की चर्चा की गई है वे सब संयोगाधीन हें निरपेक्ष नहीं जबकि मैं निरपेक्ष हूँ संयोगाधीन नहीं. मुझे “मैं” होने के लिए किसी संयोग की आवश्यक्ता नहीं, यह संयोग हो या वह; या संयोग हो ही नहीं पर मैं रहूँगा तब संयोग से अपनी पहिचान करना कहाँ तक उचित और सही हो सकता है ?
यहाँ एक और अत्यंत गम्भीर प्रश्न उपस्थित होता है कि “ यदि “मैं” को समय-समय पर दिए जाने वाले नाम 100 प्रतिशत गलत ही हें, तो क्या उनमें कोई सत्यता नहीं है ?
यदि ऐसा ही है तो उसे (“मैं” को) उन नामों से पुकारा ही क्यों गया ?
मात्र पुकारा ही नहीं गया, वरन उन नामों से अब तक मेरी (“मैं” की) पहिचान भी होती ही रही है न? तब वह सर्वथा गलत कैसे हो सकते हें?
उक्त प्रश्न का जबाब पाने के लिए हमें जैन दर्शन में वर्णित “नय व्यवस्था” का अध्ययन करना होगा, जिसके अनुसार उक्त समस्त कथन व्यवहारनय के कथन हें और व्यवहारनय असत्यार्थ है. क्योंकि व्यवहारनय की परिभाषा ही यह है कि -“जो सत्यार्थ तो है नहीं पर निमित्तादिक की अपेक्षा उपचार से कथन किया गया हो वह व्यवहारनय है“
 (जैन दर्शन में नय व्यवस्था अपने आप में एक विषद बिषय है, जिसकी सम्पूर्ण चर्चा यहाँ संभव नहीं है, रुचिवंत लोगों को डा. हुकमचंद भारिल्ल द्वारा रचित ग्रन्थ “द्रव्य स्वभाव प्रकाशक नयचक्र“ का स्वाध्याय करना चाहिए)
व्यवहार वस्तु का सम्पूर्ण कथन नहीं करता है वरन किसी अपेक्षा से कथन करता है, वह कथन उक्त अपेक्षा से सही होता है और यथास्थान कुछ अंशों में अपने प्रयोजन की सिद्धी भी करता है पर अपने आप में वह सम्पूर्ण व निरपेक्ष सत्य नहीं है.
“मैं” किसी के सापेक्ष कोई आधी अधूरी वस्तु नहीं वरन अपने आप में सम्पूर्ण, निरपेक्ष वस्तु हूँ इसलिए किसी एक नय का कथन मेरी (मैं“ की) सम्पूर्ण परिभाषा (लक्षण) नहीं हो सकता है.
प्रश्न यह है कि “मैं” कौन हूँ ?
जो हर हाल में कायम रहता है वह “मैं” हूँ या जो हर पल बदलता रहता है वह “मैं” हूँ ?
जो निरपेक्ष है वह “मैं” हूँ या जो संयोग सापेक्ष है वह “मैं” हूँ ?
जो “कायम” है उसके हित-अहित हमेशा एक रहेंगें, एक जैसे रहेंगे, अपरिवर्तित रहेंगे और जो बदलता रहेगा उसके हित-अहित, उसके सुख-दुःख, उसकी अनुकूलता-प्रतिकूलता प्रतिपल बदलती रहेगी.
हमें क्या इष्ट है, क्या अभीष्ट है ?
स्थिरता या अस्थिरता ?
निरपेक्षता या सापेक्षता ?
अब तक हमने अपनी “मैं” की परिभाषा निर्धारित करने में क्या भूलें कीं और “मैं” की निर्दोष परिभाषा क्या है, यह जानने  के लिए पढ़िए अगला अंक.
क्रमश:


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