Friday, September 2, 2011

क्यों एक ब़ार ना नजर घुमाता, तू ही है तेरा भगवन

नजर जहाँ पर पडती है , तुरत वहीं झुक जाता मन
यह दोष नहीं है नजरों का , यह तो है आवारा मन
-सूरदास को आँखें फोड़ने की क्या जरूरत थी ?

निर्बंध नहीं बो बंधन हें , हों सोने या लोहे के कंगन
तुझको उसमें कंचन दिखता,मुझको दिखता बस बंधन

चाहत-चाहत, कितनी चाहत, बिलकुल ना शर्माता मन
अरे ! सड़े बेर के सजे ढेर पर, कैसा मिट-मर जाता मन

रहे हमेशा,प्यासा-प्यासा,दिन रात मुझे तड़पाता मन
श्रीमंत बन जाता भिक्षुक,जब बीडी को मचलाता मन

दिन-रात इसे बस चाय चाहिए,जंगल हो,पर हाय चाहिए
अरे चाय की दो चुस्की पर , क्यों इतना ललचाता मन

उठते ही अखबार चाहिये,हर पल बस व्यापार चाहिए
सबको कोठी कार चाहिए,नकद नहीं ये उधार चाहिये
अभी एक ना मिलपाती ,अरु दूजी को ललचाता मन
मैं चाहूं उलझन सुलझाना , सुलझे को उलझाता मन

दुनिया भर का दूषण घर में , क्योंकर लेकर आता मन
क्योकि घर में टिकता कब है ,बाहर नित भरमाता मन

विवेक शून्य हो जाता है ,जब अपनी पर आ जाता मन
अरे ! गाल के काले तिल पर , कितना ये इठलाता मन

जब दुनिया पै नजर घुमाता,तो ललचा जाता मन ही मन
एक ब़ार तो अनुभव कर , कैसा चाहत बिन जीवन

अरे तृप्ति की चाहत में,किस किस की ठोकर खाता मन
क्यों एक ब़ार ना नजर घुमाता, तू ही है तेरा भगवन

-parmatm prakash bharill

No comments:

Post a Comment