रामू की कहानी -
क्या रामू की गाथा हमारे जीवन का सबसे काला अध्याय नहीं है ? आखिर क्या अंतर था हम सभी में व उसमें ? उसने लगभग सारा जीवन ही तो हमारे ही घर में हमारे साथ ही बिता दिया , हम सभी की सेवा करते हुए. अभी वमुश्किल १०-१२ साल का ही तो रहा होगा जब उसकी माँ उसे हमारे घर पर छोड़ गई थी, यह कहते हुए क़ि "यहीं किसी कोने में पड़ा रहेगा ,बचा-खुचा , बासी खाकर पल-बड़ जायेगा बाबूजी ! और बदले में घर के कामों में हाथ बंटा दिया करेगा .
उस दिन छोड़कर क्या गई मानो मातृत्व के दायित्व से मुक्त हो गई ,फिर तो उसने मुड़कर कभी उसकी खोज-खबर तक न ली .
रामू यहीं इसी घर में ,इन्हीं बच्चों समकित और सुरभित के साथ ही तो खेलते-खाते बड़ा हो गया,फर्क था तो सिर्फ इतना क़ि जब बे साथ खेलते तो वे जीतते रहे ,वो हरता रहा ,वे रूठते रहे वो मनाता रहा वे फैलाते रहे वो समेटता रहा .
लगभग साथ-साथ जन्मे ,पाले-बड़े व रहे ,पर वे क्या बन गए और वो क्या बनकर रह गया .
रसोइघर के कामों में हाथ बंटाते-बंटाते रामू एक सिद्धहस्त रसोइया बन गया था ,यह तो उसकी काबिलियत थी क़ि रसोइघर पर वह एकछत्र काबिज हो गया था ,उसके रहते कभी किसी को बहां जाने की जरूरत ही नहीं पड़ती ,शायद उसके सिवाय कोई और जानता भी न था क़ि चाय में किसे कितनी चीनी चाहिए और सब्जी में किसे कितनी मिर्ची ,या क़ि किसका फुल्का कितना सिकना चाहिए .आलम तो यह हो चला था क़ि यदा-कदा जब कभी उसे अपने गाँव जाने का मन हो आता तो मानो घर-परिवार पर संकट के बादल छाजाते .सबके कारण अपने-अपने थे ,पर उसके जाने की खबर सुनकर सांप सभी को सूंघ जाता था .
अम्मा को लगता था क़ि दिन का अधिकांश समय अब रसोइघर में ही बीतेगा , मुझे चिता होए लगती क़ि शायद दिन में दो-तीन कप चाय की कटौती तो हो ही जायेगी. समकित जानता था क़ि अब उसे समय पर स्कूल पहुँचने के लिए विशेष सावधानी रखनी होगी तो सुरभित को चिंता थी अपनी पसंद का भोजन न मिल पाने की ,क्योंकि माँ का जोर स्वादिष्ट खाने की अपेक्षा पौष्टिक व स्वास्थ्यवर्धक भोजन पर अधिक था .
वह साल में मुश्किल से १०-१५ दिन के लिए गाँव जाता था और एक खुली जेल के आजन्म कैदी की भांति पैरोल की अबधि खत्म होते ही फिर बापिस अपने उसी रसोइघर में आकर कैद हो जाता था ,लगभग बर्ष भर के लिए .
इसी तरह बर्षों बीत गए , कभी किसी ने गौर ही नहीं किया क़ि कब वह शादी कर आया व कब उसके बाल-बच्चे हो गए और माता-पिता मर खप गए . उसका और सबकुछ हमारा अपना था ,शिवाय उसकी उन व्यक्तिगत खुशियों व ग़मों क्र तथा उसकी पगार (तनख्वाह) लगभग १०००/- रूपये माहबार के .
मैं गवाह हूँ क़ि किस तरह उसका बचपन बड़ी तेजी से झटपट गायब हो गया था ,पर एक सीजन तो बीच में छूट ही गया , मानो योवन तो उसके आया ही नहीं और अभी जब समकित और सुरभित की जबानी उनके सबाब पर थी , वह असमय ही बढ़ाने लगा .बाल पाक गए,चेहरा लटक गया ,व कमर झुकने लगी . न जाने ऐसे किस रोग ने आ घेरा क़ि यकायक वह बिखरने लगा . हालाँकि न तो उसकी बीमारी के बारे में मालूम करना मुश्किल काम था और न ही बीमारी का इलाज करना , पर यह सब करता कौन ? आखिर किसी के पास फालतू वक्त ही कहाँ था ?कोई अपने जीवन की उपलब्धियों को भोगने में व्यस्त था तो किसी का करियर अपने सबाब पर था और कोई अपने जीवन की आधारशिला को मजबूत करने में जी-जान से जुटा हुआ था,ऐसे में उस बिखरते खंडहर की तरफ ध्यान देने की फुर्सत ही किसे थी ? हाँ एक चिंता कभी-कभी जरूर हो जाया करती थी क़ि कहीं उसे कोई चेपी रोग तो नहीं है ? कहीं ऐसा न हो ----------.
१५ मिनिट बचने के लिए लाइन में लगकर सिनेमा के टिकिट लेने की बजाय जिन्हें १०-२० टिकिट भी १०० रूपये प्रति टिकिट ब्लेक में लेना पोसाता हो , वे उसे लेकर कई दफा घंटों तक म्युनिसिपल हॉस्पिटल के आउटडोर की लाइन में खड़े रहते थे क्योंकि आखिर उसका इलाज किसी प्रायवेट डाक्टर से कैसे कराया जा सकता था , उसकी फीस तो १०० रुपया है न !
और एक दिन जब पानी सर से ऊपर बढ़ने लगा तो परिवार के सभी सदस्यों की एक आवश्यक मीटिंग हुई जिसमें आबाल-गोपाल सभी ने अपने विचार व्यक्त किये ,उसके बिगड़ते स्वास्थ्य के प्रति अपनी-अपनी चिंता व्यक्त की ,तद्जनित दुष्प्रभावों का आकलन किया गया और फिर एक सर्वसम्मत निर्णय के तहत अगले ही दिन उसे उसकी जीवन भर की सेवाओं के पुरुष्कार स्वरुप २००००/- रूपये नकद इनाम देकर ,बिना उसके गाँव का पता पूंछे ही उसके गाँव जाने बाली बस में बिठा दिया गया .और हाँ ! इस बार उसके बैग की तलाशी भी नहीं ली गयी थी .
उस दिन रामू गया सो गया ,उसके बाद आजतक किसी को मालूम नहीं क़ि उसका क्या हुआ .
एक दिन वह था जब रामू के बिना घर का पत्ता भी नहीं हिलता था . घर में कोई भगवान का नाम ले या न ले ,पर रामू का नाम दिन में सेकड़ों दफे लिया जाता था . यदि चार बार आदेश दिए जाते थे तो दश बार चिरौरियाँ (request ) भी की जातीं थीं,पर आज उसे कोई याद भी नहीं करता है .मानो वह दुस्वप्न जीवन में कभी आया ही न हो .
आज उसकी जगह गोपाल ने लेली है .
अन्तर्द्वन्द्व -पेज-15 , by - परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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