Sunday, November 13, 2011

आप पूंछते हें क़ि हम शाकाहारी भोजन पर ही इतना जोर क्यों देते हें ?

भैया ! आप पूंछते हें क़ि हम शाकाहारी भोजन पर ही इतना जोर क्यों देते हें ?
भैया ! आप  भी यदि सोच विचार कर तय करते तो आप भी ऐसा ही करते .
अरे ज़रा विचार तो करो ! 

अपना एक जीवन पालने के लिए अपने एक जीवन में हजारों अपने ही जैसे सुख- दुःख का अनुभव करने वाले , जीवन से प्यार करने वाले , जीवन बचाने के लिए भाग-दौड़ करने वाले , आँखों ही आँखों में दया याचना करने वाले , वियोग के दुःख को अनुभव करने वाले प्राणियों के जीवन का वलिदान लेना भला किसको पसंद आयेगा ?

अरे ! यह जीवन इस सबके बिना भी तो बहुत अच्छी तरह से चल सकता है .
इसके विना क्या कमी रह जाती है जीवन में ?
जैन समाज शाकाहार के लिए जाना जाता है , भला वह औरों से किस बात में पीछे है ? किस बात में कम है ?
बुद्धी में , वल में , स्वास्थ्य में , शिक्षा में , धंधे-व्यापार में , धन में , किस बात में कमी है ?
सभी में तो आगे है .

मेरे भाई ! मांसाहार में अकेले हिंसा ही नहीं है , छल - कपट भी है .
मांसाहार के लिए कुछ पशुओं को छल-कपट से पकड कर मारा जाता है और अन्य पशुओं को विश्वासघात से .
मछलियों के लिए चारा लगाकर उन्हें पकड़ना छल-कपट और विश्वासघात का सबसे बड़ा उदाहरण है, जहां उन्हें भोजन देने का दिखाबा किया जाता है और भोजन देने की जगह उनका जीवन छीन लिया जाता है .

1 comment:

  1. बहुत ही शुभ प्रयास है यह!! अभिनन्दन स्वीकार करें

    मनुज प्रकृति से शाकाहारी
    माँस उसे अनुकूल नहीं है !
    पशु भी मानव जैसे प्राणी
    वे मेवा फल फूल नहीं हैं !!

    वे जीते हैं अपने श्रम पर
    होती उनके नहीं दुकानें
    मोती देते उन्हे न सागर
    हीरे देती उन्हे न खानें
    नहीं उन्हे हैं आय कहीं से
    और न उनके कोष कहीं हैं
    केवल तृण से क्षुधा शान्त कर
    वे संतोषी खेल रहे हैं
    नंगे तन पर धूप जेठ की
    ठंड पूस की झेल रहे हैं
    इतने पर भी चलें कभी वें
    मानव के प्रतिकूल नहीं हैं

    अत: स्वाद हित उन्हे निगलना
    सभ्यता के अनुकूल नहीं है!
    मनुज प्रकृति से शाकाहारी
    माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

    नदियों का मल खाकर खारा,
    पानी पी जी रही मछलियाँ
    कभी मनुज के खेतों में घुस
    चरती नहीं वे मटर की फलियाँ
    अत: निहत्थी जल कुमारियों
    के घर जाकर जाल बिछाना
    छल से उन्हे बलात पकडना
    निरीह जीव पर छुरी चलाना
    दुराचार है ! अनाचार है !
    यह छोटी सी भूल नहीं है
    मनुज प्रकृति से शाकाहारी
    माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

    मित्रो माँस को तज कर उसका
    उत्पादन तुम आज घटाओ,
    बनो निरामिष अन्न उगानें--
    में तुम अपना हाथ बँटाओ,
    तजो रे मानव! छुरी कटारी,
    नदियों मे अब जाल न डालो
    और चला हल खेतों में तुम
    अब गेहूँ की बाल निकालो
    शाकाहारी और अहिँसक
    बनो धर्म का मूल यही है
    मनुज प्रकृति से शाकाहारी,
    माँस उसे अनुकूल नहीं है !!

    रचनाकार:-----श्री धन्यकुमार

    निरामिष: मानव शरीर की आहार अनुकूलता

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