Thursday, June 28, 2012

हमारी ख्बाहिश और हमारी करतूतों में तालमेल ही कहाँ है ? हम चाहते कुछ और हें और करते कुछ और हें . हम चाहते हें सुख और शुकून और कृत्य ऐसे करते हें जिससे हमारा सुख - चैन छिन जाए , रातों की नींद हराम हो जाए .

हमारी ख्बाहिश और हमारी करतूतों में तालमेल ही कहाँ है ?
हम चाहते कुछ और हें और करते कुछ और हें .
हम चाहते हें सुख और शुकून और कृत्य ऐसे करते हें जिससे हमारा सुख - चैन छिन जाए , रातों की नींद हराम हो जाए .
यदि हमें सुख से रहना है तो सबसे पहिली शर्त तो यह है क़ि हम औरों का सुख - चैन न छीनें , उन्हें डिस्टर्ब न करें , पर हम तो अपने आप को ऐसा करने से रोक ही नहीं सकते हें .
हमारी तो आदत है क़ि जहां जाते हें वहीं कोलाहल मचाते हें , प्रत्येक के काम में दखल देते हें , प्रत्येक को डिस्टर्ब करते हें .
कहीं हेरा - फेरी करने की कोशिश करते हें तो कहीं रोक - टोक करने की .
यदि यह सब न भी कर पायें तो ताकाझांकी ही सही .
यदि कोई हमें ताकाझांकी करने की इजाजत भी न दे तो हम उसके बारे में गप-शप ही करने लगते हें , अफबाहें फैलाने लगते हें .
आखिर हम औरों से , अन्यों से , परायों से इतना सारोकार क्यों रखते हें ?
यदि हम उनमें ही उलझे रहेंगे तो हमारा काम कौन करगा ?
यदि हम उन्हें अपने में उलझाए रखेंगे तो उनका काम कौन करेगा ?
यदि वे हमसे उलझ गए तो हम दोनों का ही काम कौन करेगा ?
अरे सिर्फ दोनों का हे नहीं , तब तो और भी लोग तमाशा देखने के लिए जुट जायेंगे और अपने कर्तव्य से विमुख हो जायेंगे , उनका क्या होगा ?
बेहतर यह़ी है क़ि हम अपने में सीमित रहें , अपना कार्य करें और सुखी हो जाएँ .

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