अरे भोले !
तू व्यर्थ ही अपराध भावना से ग्रस्त होकर हीन भावना लिए घूमता है .
अरे ! जो तू कर रहा है , करने योग्य तो वही है .
फर्क सिर्फ इतना है क़ि तू राग - द्वेष से ग्रस्त होकर करता है , पर करना चाहिए तटस्थ होकर .
राग-द्वेष पूर्वक जो पाप है , तटस्थता पूर्वक वही धर्म है .
नहीं समझा ?
अरे ! तू निरंतर मात्र अपने बारे में ही सोचता है , अपने हित का ही विचार करता है , यह़ी तो करने योग्य है ; इसमें गलत क्या है ?
गल्ती यह है क़ि तू दूसरों को नुकसान पहुंचाकर अपना हित करना चाहता है .
दरअसल तू यह़ी मान बैठा है क़ि दूसरों को नुकसान पहुंचाकर ही अपना फायदा किया जा सकता है , पर तेरी यह धारणा गलत है .
वस्तु स्वरुप यह है क़ि किसी के हितों का दूसरों के हितों से कोई टकराव ही नहीं है .
इसलिए मात्र तू अपने हित का विचार कर , अन्यों के प्रति द्वेष बुद्धी छोड़ दे .
अरे ! दूसरे को नुकसान पहुंचाने की तेरी दबी - छुपी व्रत्ति ही दूसरों के प्रति तेरा अनन्त द्वेष है जो तेरी अभिनय क्षमता के कारण ऊपर से दिखाई नहीं देता है .
तेरा भला इसी में है क़ि तू पर पदार्थों और अन्य लोगों पर से अपनी द्रष्टि सर्वथा हटाले , उनके पार्टी न तो शत्रुता का भाव रख और नही मित्रता का , क्योंकि दोद्नों ही बाव तेरे हित में बाधक हें .
शत्रुता का भाव द्वेष भव है तो मित्रता का भव राग भव है .
दोनों ही बाव इस मायने में एक जैसे हें क़ि दोनों ही बंध के कारण हें .
वीतरागता बंध से मुक्ति का उपाय है .
आत्मा बंध स्वभावी नहीं है वह तो मुक्त है , मुक्ति में ही उसका कल्याण है .
इसलिए तू तटस्थ भव धारण कर , तेरे अन्दर वीतरागता प्रकट होगी .
यदि तू ऐसा कर सका तो तेरा कल्याण होगा ,
तू व्यर्थ ही अपराध भावना से ग्रस्त होकर हीन भावना लिए घूमता है .
अरे ! जो तू कर रहा है , करने योग्य तो वही है .
फर्क सिर्फ इतना है क़ि तू राग - द्वेष से ग्रस्त होकर करता है , पर करना चाहिए तटस्थ होकर .
राग-द्वेष पूर्वक जो पाप है , तटस्थता पूर्वक वही धर्म है .
नहीं समझा ?
अरे ! तू निरंतर मात्र अपने बारे में ही सोचता है , अपने हित का ही विचार करता है , यह़ी तो करने योग्य है ; इसमें गलत क्या है ?
गल्ती यह है क़ि तू दूसरों को नुकसान पहुंचाकर अपना हित करना चाहता है .
दरअसल तू यह़ी मान बैठा है क़ि दूसरों को नुकसान पहुंचाकर ही अपना फायदा किया जा सकता है , पर तेरी यह धारणा गलत है .
वस्तु स्वरुप यह है क़ि किसी के हितों का दूसरों के हितों से कोई टकराव ही नहीं है .
इसलिए मात्र तू अपने हित का विचार कर , अन्यों के प्रति द्वेष बुद्धी छोड़ दे .
अरे ! दूसरे को नुकसान पहुंचाने की तेरी दबी - छुपी व्रत्ति ही दूसरों के प्रति तेरा अनन्त द्वेष है जो तेरी अभिनय क्षमता के कारण ऊपर से दिखाई नहीं देता है .
तेरा भला इसी में है क़ि तू पर पदार्थों और अन्य लोगों पर से अपनी द्रष्टि सर्वथा हटाले , उनके पार्टी न तो शत्रुता का भाव रख और नही मित्रता का , क्योंकि दोद्नों ही बाव तेरे हित में बाधक हें .
शत्रुता का भाव द्वेष भव है तो मित्रता का भव राग भव है .
दोनों ही बाव इस मायने में एक जैसे हें क़ि दोनों ही बंध के कारण हें .
वीतरागता बंध से मुक्ति का उपाय है .
आत्मा बंध स्वभावी नहीं है वह तो मुक्त है , मुक्ति में ही उसका कल्याण है .
इसलिए तू तटस्थ भव धारण कर , तेरे अन्दर वीतरागता प्रकट होगी .
यदि तू ऐसा कर सका तो तेरा कल्याण होगा ,
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