क्या हम सचमुच मानवीय गुणों के धारी मानव हें ?
हमारे जीवन में किसी भी मार्ग से एक कमजोर व्यक्ति प्रवेश कर सकता है , वह हमारे दादा - दादी हो सकते हें , माता - पिता हो सकते हें , भाई - बहिन या पुत्र - पुत्री हो सकते हें , पति या पत्नी हो सकते हें , दूर पास के रिश्तेदार , पडौसी या मित्र भी हो सकते हें .
इनमें से किसी को अपने जीवन में आने से रोकना या किसी हद तक चुनकर लाना हमारे हाथ में नहीं है , यह
हमारे जीवन में किसी भी मार्ग से एक कमजोर व्यक्ति प्रवेश कर सकता है , वह हमारे दादा - दादी हो सकते हें , माता - पिता हो सकते हें , भाई - बहिन या पुत्र - पुत्री हो सकते हें , पति या पत्नी हो सकते हें , दूर पास के रिश्तेदार , पडौसी या मित्र भी हो सकते हें .
इनमें से किसी को अपने जीवन में आने से रोकना या किसी हद तक चुनकर लाना हमारे हाथ में नहीं है , यह
तो जैसे लोग हमें मिल जाएँ उनके साथ निभाना ही हमारी नियति है .
हमारे उक्त साथी कई मामलों में कमजोर हो सकते हें ; वे कुरूप , मंदबुद्धी , बीमार , अपंग , अशिक्षित , बुरी आदतों या संस्कारों वाले , गंदे तरीके से रहने वाले हो साकते हें जो कई प्रकार से हमें परेशानी में डालने वाले हो सकते हें .
उनकी हरकतें हमें नापसंद हों , वे हमें लगातार डिस्टर्व करते हों , मुसीबतों को आमंत्रण देते हों , अपने क्रियाकलापों में व्यस्त रखते हों , बदनामी का कारण बनते हों , उपेक्षित होने का कारण बनते हों , उन्नति में या कार्य सम्पन्नता में रुकाबट बनते हों , शांति भंग करते हों , शारीरिक या मानसिक आघात पहुंचाते हों , गंदगी फैलाते हों , तोड़ - फोड़ करते हों या आर्थिक हानि करते हों .
कई मामलों में उन लोगों की यह कमजो
क्या हम सचमुच मानवीय गुणों के धारी मानव हें ?रियां उनकी अपनी उपार्जित व्याधियां भी हो सकतीं हें और कभी प्रक्रति प्रदत्त अभिशाप भी . उक्त दोनों ही प्रकार की व्याधियों में से किन्हीं को कुछ हद तक या सम्पूर्णत: ठीक करना भी संभव हो सकता है या कई मामलों में ऐसा होना संभव न भी हो .हमारे उक्त साथी कई मामलों में कमजोर हो सकते हें ; वे कुरूप , मंदबुद्धी , बीमार , अपंग , अशिक्षित , बुरी आदतों या संस्कारों वाले , गंदे तरीके से रहने वाले हो साकते हें जो कई प्रकार से हमें परेशानी में डालने वाले हो सकते हें .
उनकी हरकतें हमें नापसंद हों , वे हमें लगातार डिस्टर्व करते हों , मुसीबतों को आमंत्रण देते हों , अपने क्रियाकलापों में व्यस्त रखते हों , बदनामी का कारण बनते हों , उपेक्षित होने का कारण बनते हों , उन्नति में या कार्य सम्पन्नता में रुकाबट बनते हों , शांति भंग करते हों , शारीरिक या मानसिक आघात पहुंचाते हों , गंदगी फैलाते हों , तोड़ - फोड़ करते हों या आर्थिक हानि करते हों .
कई मामलों में उन लोगों की यह कमजो
यदि उन्हें सुधारना संभव भी हो , पर हो न हो यह सब अत्यंत मुश्किल हो , व्यय साध्य , श्रम साध्य और समय साध्य हो और
हमारे पास ये सब साधन पर्याप्त मात्रा में न हों . हो न हो वे अभिशप्त लोग ही हमें उनके उपचार में सहयोग भी न करते हों .
अहम् प्रश्न यह है कि हम सब लोग इन स्थितियों को किस प्रकार डील करते हें , इनसे कैसे निपटते हें और इससे भी अहम् प्रश्न यह है की हमें इनसे कैसे निपटना चाहिए .
अमूमन यह देखा गया है की हम लोग ऐसे मामलों को डील करने में निपुण नहीं हें और शायद यह हमारी प्राथमिकता भी नहीं है .
यह तो सत्य है की अन्य आपदाओं की तरह ही यह भी एक अनचाही स्थिति है पर क्या इसके लिए भी हमारे पास वही इक्षाशक्ति नहीं होनी चाहिए जो बीमारी , दुर्घटना या अन्य आपदा के लिए होती है ?
क्या कोई भी इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि वे लोग भी हमारे ही अंग हें , हमारे अपने हें और उसी तरह से यहाँ तक पहुंचे हें जिस तरह से हम ; और वे भी हमारी ही तरह सम्मानित और सुविधापूर्ण जीवन जीने के अभिलाषी भी होते हें और हक़ भी रखते हें .
वे तो अपूर्ण हें ही , अभिशप्त हें ही पर यदि हम भी उन्हें उपयुक्त तरीके से नहीं निभा सकते हें तो क्या यह हमारी कमी नहीं है ?
यह सब किये बिना हम कैसे परिपूर्ण कहला सकते हें ?
ऐसी स्थिति में क्या यह कहना गलत होगा कि हममें भी उन सहज मानवोचित संवेदनाओं और गुणों का अभाव है जो एक मानव में होने ही चाहिए .
दुनिया में बहुत ऐसे लोग हें जिनके पास साधन हें , दौलत है तो वे लोग उसका उपयोग समाज के ऐसे ही अभिशप्त लोगों के विकास और उत्थान के लिए करते हें , यदि वे औरों के लिए करते हें तो क्या हम अपनों के लिए भी नहीं कर सकते हें , नहीं करना चाहिए ?
यह अपनों के लिए भी कहाँ है , यह तो अपने लिए है ; यदि वे ठीक हो जायेंगे तो उनके द्वारा पैदा होने वाली हमारी ही तो परेशानियां मिट जायेंगी , दूर हो जायेंगी .
यदि ऐसा कोई व्यक्ति आज हमारा निकट का व्यक्ति नहीं दूर का संबंधी है तो कल कोई अपेक्षाकृत निकट का व्यक्ति भी हो सकता है , हमारे पूज्य माता - पिता , हमारे प्रिय भाई - बहिन , हमारी लाडले पुत्र और पुत्री हो सकते हें . तब भी क्या हम इतने ही निष्ठुर बने रहेंगे ?
अरे ! यदि हम और आप अभी तक इतने सौभग्यशाली बने हुए हें की हमें अब तक ऐसा कोई विपरीत संयोग नहीं मिला है तो ऐसा मान बैठने की गलती मत कर बैठिएगा कि अब कभी ऐसा नहीं हो सकता है , यह अब भी हो सकता है .
आप कहेंगे की अब तो जो होना था हो चुका है , अब तो निकट भबिश्य में हमारी फैमिली में अन्य कोई व्यक्ति जुड़ने की उम्मीद ही नहीं है पर भाई ! आप एक बात भूल जाते हें कि यह जरूरी नहीं कि कोई नया व्यक्ति जुड़े , जो वर्तमान में अपने हें उनमें से ही कोई व्यक्ति परिवर्तित होकर ऐसा हो सकता है न ?
कौन जान एकाब किसकी खिसक जाबे , कब किसके साथ कोई भी दुर्घटना हो जाबे , कब किसी को कैसी बीमारी आ घेरे ? तब क्या होगा ? तब क्या आप उसका साथ छोड़ देंगे . उसे त्याग देंगे ? क्या आप इतने भी निष्ठुर हो सकते हें ? यदि आपको ऐसा लगता है की हाँ इस सवाल का जबाब भी हाँ में हो सकता है , तो सुन लीजिये -
वह व्यक्ति आप भी तो हो सकते हें !
आप ही के साथ कभी कोई दुर्घटना हो जाबे , कोई बीमारी आ घेरे , आप शारीरिक या मानसिक रूप से कमजोर या अपंग हो जाएँ . आप अपने नित्यकर्म के काम भी स्वयं न कर सकें , आपकी यह अवस्था अन्य परिजनों में ग्लानी पैदा होने का कारण बनने लगे , आपकी मानसिक स्थिति कमजोर हो जाए , मस्तिष्क का कोई पुर्जा ढीला हो जाए तब आप क्या करेंगे ?
यह सब असंभव तो है ही नहीं वल्कि इसकी संभावना बहुत अधिक है , क्योंकि वृद्धावस्था में यह सब होना बहुत सामान्य बात है .
तब क्या होगा ?
तब क्या आपके स्वयं के द्वारा दूसरों के प्रति किया गया व्यवहार आपके परिजनों के समक्ष उदाहरण नहीं प्रस्तुत करेगा कि आपके साथ किस प्रकार का व्यवहार होना चाहिए ?
आपने अपने बच्चों को जो शिक्षा दी होगी , उनके सामने जो उदाहरण प्रस्तुत किया होगा वैसा ही व्यवहार आपके साथ होगा .
अब आपको चुनना है कि आप अपने लिए क्या व्यवहार चाहते हें ?
हमें अपने जीवन में यह दिन न देखना पड़े इसके लिए यह आवश्यक है कि हम अपने परिवार , समाज और देश में ऐसी परम्परा स्थापित करें कि मानव मात्र को मानवोचित व्यवहार और जीवन जीने की सुविधा मिले .
यदि ऐसा हो सका तो निश्चित ही यह धरा जीवन जीने के लायक स्थल बन सकेगी .
इस सारी प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि देश , समाज , परिजनों और स्वयं अपने रुख में यह सुधार हमें अपनी नहीं अन्यों की शर्तों पर करना है क्योंकि अभी तो हम सहमत हुए हें की यह सब होना चाहिए , यह जरूरी है , अभी अन्यों को अपने से सहमत करना बाकी है , यदि वे आपसे सहमत ही नहीं तो सहयोग क्यों और कैसे करेंगे ? अरे ! और तो और ; स्वयं वह व्यक्ति जिसके उत्थान के लिए आप काम कर रहे हें वही आपका बिरोध करेगा (क्योंकि वह तो कुबुद्धी का धारक है न , वह यह समझने में सक्षम नहीं है की यह उसीके हित की बात है , जब साधू उस तपते रेगिस्तान में झुलस रहे विच्चू को हथेली पर उठाता है तो बिच्छू यह नहीं समझ पाटा है की वह उसकी मदद कर रहा है और बिच्छू उसे अपना अहितकारी मानकर डंक मार देता है , पर साधू पुरुष तब भी अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होते हें ) और आपको तब भी यह करना है , जिस प्रकार मान अपने बीमार पुत्र को जब दवा देने का प्रयास करती है तो वह उसका भरपूर प्रतिरोध करता है, चीखता है , चिल्लाता है , तब भी मां रुक नहीं जाती है , अपना पुरुषार्थ छोड़ नहीं देती है .
हमारे पास ये सब साधन पर्याप्त मात्रा में न हों . हो न हो वे अभिशप्त लोग ही हमें उनके उपचार में सहयोग भी न करते हों .
अहम् प्रश्न यह है कि हम सब लोग इन स्थितियों को किस प्रकार डील करते हें , इनसे कैसे निपटते हें और इससे भी अहम् प्रश्न यह है की हमें इनसे कैसे निपटना चाहिए .
अमूमन यह देखा गया है की हम लोग ऐसे मामलों को डील करने में निपुण नहीं हें और शायद यह हमारी प्राथमिकता भी नहीं है .
यह तो सत्य है की अन्य आपदाओं की तरह ही यह भी एक अनचाही स्थिति है पर क्या इसके लिए भी हमारे पास वही इक्षाशक्ति नहीं होनी चाहिए जो बीमारी , दुर्घटना या अन्य आपदा के लिए होती है ?
क्या कोई भी इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि वे लोग भी हमारे ही अंग हें , हमारे अपने हें और उसी तरह से यहाँ तक पहुंचे हें जिस तरह से हम ; और वे भी हमारी ही तरह सम्मानित और सुविधापूर्ण जीवन जीने के अभिलाषी भी होते हें और हक़ भी रखते हें .
वे तो अपूर्ण हें ही , अभिशप्त हें ही पर यदि हम भी उन्हें उपयुक्त तरीके से नहीं निभा सकते हें तो क्या यह हमारी कमी नहीं है ?
यह सब किये बिना हम कैसे परिपूर्ण कहला सकते हें ?
ऐसी स्थिति में क्या यह कहना गलत होगा कि हममें भी उन सहज मानवोचित संवेदनाओं और गुणों का अभाव है जो एक मानव में होने ही चाहिए .
दुनिया में बहुत ऐसे लोग हें जिनके पास साधन हें , दौलत है तो वे लोग उसका उपयोग समाज के ऐसे ही अभिशप्त लोगों के विकास और उत्थान के लिए करते हें , यदि वे औरों के लिए करते हें तो क्या हम अपनों के लिए भी नहीं कर सकते हें , नहीं करना चाहिए ?
यह अपनों के लिए भी कहाँ है , यह तो अपने लिए है ; यदि वे ठीक हो जायेंगे तो उनके द्वारा पैदा होने वाली हमारी ही तो परेशानियां मिट जायेंगी , दूर हो जायेंगी .
यदि ऐसा कोई व्यक्ति आज हमारा निकट का व्यक्ति नहीं दूर का संबंधी है तो कल कोई अपेक्षाकृत निकट का व्यक्ति भी हो सकता है , हमारे पूज्य माता - पिता , हमारे प्रिय भाई - बहिन , हमारी लाडले पुत्र और पुत्री हो सकते हें . तब भी क्या हम इतने ही निष्ठुर बने रहेंगे ?
अरे ! यदि हम और आप अभी तक इतने सौभग्यशाली बने हुए हें की हमें अब तक ऐसा कोई विपरीत संयोग नहीं मिला है तो ऐसा मान बैठने की गलती मत कर बैठिएगा कि अब कभी ऐसा नहीं हो सकता है , यह अब भी हो सकता है .
आप कहेंगे की अब तो जो होना था हो चुका है , अब तो निकट भबिश्य में हमारी फैमिली में अन्य कोई व्यक्ति जुड़ने की उम्मीद ही नहीं है पर भाई ! आप एक बात भूल जाते हें कि यह जरूरी नहीं कि कोई नया व्यक्ति जुड़े , जो वर्तमान में अपने हें उनमें से ही कोई व्यक्ति परिवर्तित होकर ऐसा हो सकता है न ?
कौन जान एकाब किसकी खिसक जाबे , कब किसके साथ कोई भी दुर्घटना हो जाबे , कब किसी को कैसी बीमारी आ घेरे ? तब क्या होगा ? तब क्या आप उसका साथ छोड़ देंगे . उसे त्याग देंगे ? क्या आप इतने भी निष्ठुर हो सकते हें ? यदि आपको ऐसा लगता है की हाँ इस सवाल का जबाब भी हाँ में हो सकता है , तो सुन लीजिये -
वह व्यक्ति आप भी तो हो सकते हें !
आप ही के साथ कभी कोई दुर्घटना हो जाबे , कोई बीमारी आ घेरे , आप शारीरिक या मानसिक रूप से कमजोर या अपंग हो जाएँ . आप अपने नित्यकर्म के काम भी स्वयं न कर सकें , आपकी यह अवस्था अन्य परिजनों में ग्लानी पैदा होने का कारण बनने लगे , आपकी मानसिक स्थिति कमजोर हो जाए , मस्तिष्क का कोई पुर्जा ढीला हो जाए तब आप क्या करेंगे ?
यह सब असंभव तो है ही नहीं वल्कि इसकी संभावना बहुत अधिक है , क्योंकि वृद्धावस्था में यह सब होना बहुत सामान्य बात है .
तब क्या होगा ?
तब क्या आपके स्वयं के द्वारा दूसरों के प्रति किया गया व्यवहार आपके परिजनों के समक्ष उदाहरण नहीं प्रस्तुत करेगा कि आपके साथ किस प्रकार का व्यवहार होना चाहिए ?
आपने अपने बच्चों को जो शिक्षा दी होगी , उनके सामने जो उदाहरण प्रस्तुत किया होगा वैसा ही व्यवहार आपके साथ होगा .
अब आपको चुनना है कि आप अपने लिए क्या व्यवहार चाहते हें ?
हमें अपने जीवन में यह दिन न देखना पड़े इसके लिए यह आवश्यक है कि हम अपने परिवार , समाज और देश में ऐसी परम्परा स्थापित करें कि मानव मात्र को मानवोचित व्यवहार और जीवन जीने की सुविधा मिले .
यदि ऐसा हो सका तो निश्चित ही यह धरा जीवन जीने के लायक स्थल बन सकेगी .
इस सारी प्रक्रिया का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि देश , समाज , परिजनों और स्वयं अपने रुख में यह सुधार हमें अपनी नहीं अन्यों की शर्तों पर करना है क्योंकि अभी तो हम सहमत हुए हें की यह सब होना चाहिए , यह जरूरी है , अभी अन्यों को अपने से सहमत करना बाकी है , यदि वे आपसे सहमत ही नहीं तो सहयोग क्यों और कैसे करेंगे ? अरे ! और तो और ; स्वयं वह व्यक्ति जिसके उत्थान के लिए आप काम कर रहे हें वही आपका बिरोध करेगा (क्योंकि वह तो कुबुद्धी का धारक है न , वह यह समझने में सक्षम नहीं है की यह उसीके हित की बात है , जब साधू उस तपते रेगिस्तान में झुलस रहे विच्चू को हथेली पर उठाता है तो बिच्छू यह नहीं समझ पाटा है की वह उसकी मदद कर रहा है और बिच्छू उसे अपना अहितकारी मानकर डंक मार देता है , पर साधू पुरुष तब भी अपने कर्तव्य से च्युत नहीं होते हें ) और आपको तब भी यह करना है , जिस प्रकार मान अपने बीमार पुत्र को जब दवा देने का प्रयास करती है तो वह उसका भरपूर प्रतिरोध करता है, चीखता है , चिल्लाता है , तब भी मां रुक नहीं जाती है , अपना पुरुषार्थ छोड़ नहीं देती है .
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