मेरी "ना "
(लघु कथा )
यूं तो जिन्ना से दूर-दूर तक मेरा कोई रिश्ता नहीं ,पर जाने कब और कहाँ से उनका यह राजरोग मुझे भी लग गया .
दरअसल मेरी धर्मपत्नी के साथ हर बिषय पर मेरी असहमतियों का एक लंबा सिलसिला है और इसी के परिणाम स्वरूप यह मेरी आदत में शुमार हो गया कि वह कोई भी प्रस्ताव करें या यूं कहिये की प्रस्ताव प्रस्तुत करने का प्रयास करे तो बिना सुने-समझे ही मेरा " ना-ना " का रिकॉर्ड भी शुरू हो जाता .
अब और क्या चाहिए ; उस दिन या कुछ दिनों के लिए कलह का मसाला जुट जाता , फिर पूरी बात सुनने के बाद शायद मुझे उसका वह प्रस्ताव उतना बुरा न भी लगे या यूं कहिये की अच्छा ही लगे , पर अब क्या हो सकता था , अब तो ना हो चुकी थी वह हाँ में कैसे बदल सकती थी ? अब यदि हाँ करता हूँ तो मेरी मूंछों का क्या होगा ?
और अखाड़ा जम जाता .
तमाम उम्र बीत गई और यही सिलसिला चलता रहा , कभी अपनी आदत के कारण और कभी औरों की परवाह या सुसुप्त डर या संकोच के कारण .
वक्त के साथ-साथ एक -एक कर वे सारे परिंदे भी उड़ गए जिनकी मुझे परवाह , संकोच या डर था पर मेरी यह "ना-ना " की क्रोनिक बीमारी मुई तब भी ना गई .
कल की रात भी जीवन की अन्य रातों के सामान ही एक सामान्य सी ही रात थी और वह भी उसी प्रकार काल कवलित हो जाती जैसी शादी के बाद से आज तक की सारी रातें होती आई हें , यदि सही समय पर मुझे सदबुद्धी न आ गई होती .
हुआ यह कि यह शनिवार की एक सुहानी संध्या थी और रोज की ही तरह मैं अपने लेपटोप पर कुछ लिखने में व्यस्त था क़ि उसने बिना मांगे ही मेरी मनपसन्द की एक कप चाय प्रस्तुत करदी .
इस अप्रत्याशित आक्रमण से में घबरा गया और सशंकित हो उठा , यह कोई साधारण घटना नहीं थी और निश्चित ही किसी आसन्न महासंकट का संकेत दे रही थी , फिर क्या था , उसका मुकावला करने के लिए मेरे अन्दर की प्रबल प्रतिरोध शक्ति अपनी पूरी क्षमता के साथ सक्रिय हो गई .
अब वह शान्ति से मेरे बगल में आकर बैठ गई और जैसे ही मैंने इत्मीनान के साथ चाय की चुस्कियां लेना प्रारम्भ किया ; वह बोली " मैं कल अपनी फ्रेंड्स के साथ पिकनिक पर चली जाऊं " ?
वक्त के साथ यह परिवर्तन हो गया था ; अब साथ-साथ पिकनिक पर चलने के प्रस्ताव आने तो बंद हो गए थे . अब तक यह सत्य तो वह स्वीकार कर चुकी थी क़ि यह तो साथ चलेंगे ही नहीं .
उसका यह कहना था कि बस तोप का गोला छूट गया - वही सदाबहार "ना".
कहने को तो मैं कह गया पर आज मुझे सचमुच अपनी इस "ना" पर अफ़सोस होने लगा .
यह अफ़सोस भी असमय या अकारण नहीं था , इसके भी एक नहीं , कई कारण थे -
एक तो उसका आज का यह आग्रह हमेशा की तरह आक्रामक और चेलेंजिंग नहीं था जिसमें हमेशा ही यह अकथित ध्वनि छुपी रहती थी कि भले मैं तुमसे पूँछ जरूर रही हूँ पर तुम्हें ना करने का हक़ नहीं है , तुम्हें तो बस हाँ करनी है क्योंकि कार्यक्रम तो बन चुका है और मैं जाउंगी तो अवश्य ही . आज उसका यह आग्रह अनुनय पूर्ण था , आज वह सचमुच मुझसे परमीशन चाहती थी और आज मुझे यह महसूस हो रहा था की यदि मैं सचमुच ही अपनी "ना" पर कायम रहा तो वह न जायेगी .
दूसरी बात यह भी थी कि अब तक मैं समझ चुका हूँ कि किसी की आकांक्षाओं के उद्दाम प्रवाह को यूं ही रोका नहीं जाना चाहिए , रोका भी नहीं जा सकता है , यह घातक है . न सही यह जीवन का घात करे , पर फिर जीवन में बचता भी क्या है ?
तीसरी बात यह भी थी कि यदि यही " ना-ना " जारी रही तो अनुनय भी जारी ही रहेगी और भले ही कल वह न जाए पर आजकी इस रात और कल के दिन को अवश्य ही अंधकारमय बना देगी .
मुझे सदबुद्धी आई कि क्यों नहीं आज की इस रात को वलिदान होने से बचालूं और कल के रविवार को भी एक शांतिपूर्ण हौलीडे के रूप में सुनिश्चित करलूं . इसकी भी मनोकामना पूर्ण हो जायेगी और मेरी आवश्यकता भी .
ह्रदय परिवर्तन तो हो चुका था पर रस्सी की ऐंठन अभी भी शेष थी , सीधी हाँ कैसे करदूं ? यह चिरकालीन " ना " इतनी आसानी से कैसे "हाँ " में परिवर्तित हो सकती थी ?
मैंने उससे तनिक तुनक मिजाजी के साथ पूंछा - "कहाँ जाना है ?"
बस फिर क्या था , एक क्षण में सब कुछ बदल गया , वातावरण की बोझिलता ख़त्म हो गई , उसकी मुद्रा में अनुग्रह का पुट आ गया , वह सुबह निकलने की तैयारी में जुट गई .
मैं तो अपने लेखन में व्यस्त रहा , मुझे पता ही नहीं चला की कब उसकी तैयारी पूर्ण हो गई और वह सोने के लिए विस्तार पर आ गई .
जब वह सो गई तब मुझे याद आया कि रोज की तरह आज लाईट बुझा देने और सो जाने का खीझ भरा आदेश भी जारी नहीं हुआ था .
आज मैं न तो सोजाने के लिए मजबूर ही था न ही जागकर डिस्टर्ब बने रहने के लिए अभिशप्त ही , लिहाजा देर तक लिखता रहा और फिर थककर एक शुकून भरी नींद सोया .
सुबह जब मेरी नींद खुली तब तक वह जाने के लिए तैयार हो चुकी थी , न जाने कब और कैसे , कहीं कोई आबाज नहीं , डिस्टर्वेन्स नहीं , यहाँ तक कि मेरी सुविधा का ख्याल रखते हुए लाईट तक भी न जलाई गई थी , हालांकि पर्याप्त अन्धेरा था और लाईट जलाने की जरूरत अवश्य रही होगी .
मेरी नींद खुली तो मैं उठ बैठा और चुपचाप फिर से लेपटोप खोलकर लिखने बैठ गया .
वह आई और पूंछा , तुम्हारी चाय बनादूँ ?
मेरे लिए यह सब नया था , मैं तो कभी भी जीवन में इस तरह की लग्जरी का आदी नहीं रहा .
मैंने यूं ही बस लापरवाही के साथ सहमति में गर्दन हिलादी और अपने लेखन में व्यस्त बना रहा .
थोड़ी देर में चाय बनकर आ गयी , और उसने मुझे कुछ जरूरी हिदायतें दीं .
थोड़ी ही देर में वह आई और हमेशा ही की तरह बोली- " वाय ! मैं निकलती हूँ , जल्दी आजाउंगी , देर हो जाए तो चिन्ता मत करना , फोन करूंगी , वाय !
हमेशा की ही तरह उसके लिए मुझसे किसी भी तरह के उत्तर या प्रतिक्रया की आशा रखना व्यर्थ था सो वह चल दी .
आज मुझसे न रहा गया , मैं उठा और उसे छोड़ने के लिए दरबाजे की ओर बढ चला .
आश्चर्य मिश्रित हर्ष के साथ वह वोली " मुझे दरबाजे तक छोड़ने के लिए आ रहे हो ? "
पहिले तो कभी ऐसा नहीं हुआ था .
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया , बस शांत और गंभीर ही बना रहा . शायद एक रात में इतनी यात्रा तय कर लेना पर्याप्त था .
अब जल्दी क्या है ?
अब हंसने और खिलखिलाने के लिए सारी उम्र तो पडी है .
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
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