आँख की शर्म वह मजबूत दीवार है जिसके रहते यह दुनिया बहुत हद तक सुरक्षित है और यदि आँख की शर्म टूटी तो --------------------------.
- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
"एक और महत्वपूर्ण बात - यदि परिस्थितिवश कोई व्यक्ति भावावेश में अपनी आँख की शर्म को दाब पर लगा देता है तो उसके शुभचिंतकों और निकटवर्ती लोगों का कर्तव्य है कि वे अपनी आँखें बंद करलें, उस झीने से परदे को ध्वस्त न होने दें, इसी में सभी का हित है."
ये खुजली नाचीज भी बड़ी खतरनाक चीज है, मुई आदमी को कहीं का नहीं छोडती है. अच्छे -भले आदमी को बेचारा बना देती है.- परमात्म प्रकाश भारिल्ल
इसी आलेख से -
"एक और महत्वपूर्ण बात - यदि परिस्थितिवश कोई व्यक्ति भावावेश में अपनी आँख की शर्म को दाब पर लगा देता है तो उसके शुभचिंतकों और निकटवर्ती लोगों का कर्तव्य है कि वे अपनी आँखें बंद करलें, उस झीने से परदे को ध्वस्त न होने दें, इसी में सभी का हित है."
अब कौन जाने कब कहाँ पर खुजली चलने लगे?
ये कोई मौका-बेमौका भी तो नहीं देखती है.
अब न तो खुजलाते बने और न ही खुजलाये बिना रहा जाबे.
" न तो कहा जाबे और न सहा जाबे."
कभी-कभी तो हद हो जाती है, आदमी खुजलाते-खुजलाते लहूलुहान हो जाता है पर संतोष ही नहीं मिलता, खुजली मिटती ही नहीं.
अब यहाँ मैं कोई ऐसी-वैसी खुजली की बात करने नहीं बैठा हूँ, मैं बात कर रहा हूँ जबान की खुजली की.
जब खुजली चले तो फिर आदमी से बोले बिना रहा नहीं जाता है और बोले तो खुजली मिटे न मिटे बाकी सब कुछ मिट जाता है.
अब उसको ही ले लो!
वेचारे ने जिन्दगी भर लोगों की खुशामद कर-करके सम्बन्ध बनाए.
क्या-क्या नहीं किया सम्बन्ध बनाने के लिए?
एक दिन ये जबान की खुजली ऐसी चली कि सभी को आइना दिखला गई, सब किये-धरे पर पानी फिर गया.
जिन्दगी भर का किया-धरा एक ही पल में मिट्टी में मिल गया.
यूं तो कौन नहीं जानता है कि हम कैसे हें?
हम सभी तो बड़ी अच्छी तरह जानते हें कि हम कैसे हें, कैसे दिखना चाहते हें और फिर कैसे दिखाई देते हें.
हम सभी बहुत ही मैले हें, हमारे अन्दर दुनिया भर की विकृतियाँ भरी हुई हें - क्रोध, मान, मायाचार, लोभ, हिंसा, झूंठ, चौर्य वृत्ति और चरित्रहीनता (कुशील).
इन सभी को अपने अन्दर दबाए हुए हम ऊपर से सुन्दर से मुलम्मे ओढ़कर शरीफ और सुन्दर दिखने का प्रयास करते हें, और दुनिया भी हमें इसी रूप में देखना चाहती है (वरना कोई हमारे अन्तरंग के बारे में, किसी भ्रम में नहीं है, असलियत सभी समझते हें).
जैसे हम हें, सारी दुनिया भी 19-20, वैसी ही तो है; फिर भ्रम को स्थान कहाँ है?
सब कुछ जानते-समझते हुए भी दुनिया का सारा व्यवहार बाहरी प्रदर्शन के आधार पर ही चलता है. हमारा अन्तरंग सिर्फ हमारे लिए है.
कैसी आश्चर्य की बात है, सारी नंगी हकीकत समझने के बाबजूद दुनिया भर के सारे बड़े से बड़े व्यवहार उपरी दिखावे बाली छवि के आधार पर चलते हें और अच्छी तरह से चलते रहते हें.
सही तो है! झूंठे तो सभी हें पर एक व्यक्ति खुल्लमखुल्ला सफ़ेद झूंठ बोलता है और उसे झूँठा साबित होने में भी कोई संकोच नहीं है परन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसा झूंठ नहीं बोलता है जो पकड़ा जाबे, क्योंकि उसे झूँठा दिखना पसंद नहीं है.
क्या इन दोनों में कोई फर्क नहीं है?
दोनों में बहुत बड़ा फर्क है!
जो झूँठा दिखना नहीं चाहता है उसके साथ व्यवहार में हम सुरक्षित रहते हें क्योंकि वह इसलिए कभी हमसे झूंठ नहीं बोलेगा कि वह झूँठा दिखना नहीं चाहता है.
जो झूँठा दिखना नहीं चाहता है उसके साथ व्यवहार में हम सुरक्षित रहते हें क्योंकि वह इसलिए कभी हमसे झूंठ नहीं बोलेगा कि वह झूँठा दिखना नहीं चाहता है.
थोड़ा और स्पष्ट उदाहरण दूं तो - कदाचित मन से व्यभिचारी तो सभी हें पर उनसे दुनिया सुरक्षित है जो व्यभिचारी दिखना नहीं चाहते हें क्योंकि वे वलात्कार नहीं करते, नहीं करेंगे.
जिन्हें व्यभिचारी दिखने में संकोच नहीं उनके रहते यह समाज सुरक्षित नहीं है.
आँख की शर्म वह मजबूत दीवार है जिसके रहते यह दुनिया बहुत हद तक सुरक्षित है और यदि आँख की शर्म टूटी तो --------------------------.
उक्त तथ्य से यह स्पष्ट है कि आदमी के बाहरी व्यक्तित्व का भी उतना ही महत्व है और हमें उसे भी संभालकर रखना चाहिए और किसी तात्कालिक भावावेश में अपनी उस छवि को ध्वस्त नहीं होने देना चाहिए.
एक और महत्वपूर्ण बात - यदि परिस्थितिवश कोई व्यक्ति भावावेश में अपनी आँख की शर्म को दाब पर लगा देता है तो उसके शुभचिंतकों और निकटवर्ती लोगों का कर्तव्य है कि वे अपनी आँखें बंद करलें, उस झीने से परदे को ध्वस्त न होने दें, इसी में सभी का हित है.
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