किसी भी व्यक्ति का इससे बढ़कर और अन्य क्या दुर्भाग्य हो सकता है जब गुरु और शिष्य दोनों ही एक दूसरे की कजोरियों का पोषण करने लगें .
शिष्य-गुरु के सम्बन्ध में यही उचित है कि वे मात्र अपने इस गुरु शिष्य सम्बन्ध तक ही सीमित रहें , इससे आगे बढ़कर एक दुसरे के गिरेवान में झाँकने में दोनों का ही अहित है , ऐसी स्थिति में न तो गुरु प्रभावशाली गुरु रह सकता है और न ही शिष्य शतप्रतिशत ग्रहण शक्ति युक्त शिष्य .
शिष्य-गुरु के सम्बन्ध में यही उचित है कि वे मात्र अपने इस गुरु शिष्य सम्बन्ध तक ही सीमित रहें , इससे आगे बढ़कर एक दुसरे के गिरेवान में झाँकने में दोनों का ही अहित है , ऐसी स्थिति में न तो गुरु प्रभावशाली गुरु रह सकता है और न ही शिष्य शतप्रतिशत ग्रहण शक्ति युक्त शिष्य .
गुरु की निगाह में शिष्य एक विनीत , श्रद्धालु , ज्ञान पिपासु , सरल स्वभावी और आज्ञाकारी शिष्य ही रहना चाहिए , उसके व्यक्तित्व के अन्य पहलू यदि अद्रश्य ही बने रहें तो अच्छा है और शिष्य की निगाह में गुरु मात्र एक ज्ञानी , निशंक , निस्पृह और दृढ व्यक्ति बना रहे यही उचित है , गुरु की मानवोचित स्वाभाविक कमजोरियां शिष्य के सामने उद्घाटित न ही हों यही उत्तम है .
आध्यात्मिक गुरु-शिष्यों के मामले में तो यह बात और भी महत्वपूर्ण है .
यदि गुरु को शिष्य में मात्र एक आत्मार्थी ही दिखाई न दे और उसके व्यक्तित्व के अन्य पहलू जैसे कि स्वार्थी , बेइमान , स्मगलर , टेक्सचोर , व्यभिचारी , क्रोधी , मानी , इर्ष्यालू , कंजूस , उदार , देश द्रोही , समाज द्रोही आदि भी दिखाई दें तो फिर वह गुरु उसमें भगवान् आत्मा के दर्शन कैसे करेगा ? तब उसे किस प्रकार उसमें एक भव्य आत्मार्थी के दर्शन होंगे , वह कैसे उसे भगवान् आत्मा कह कर पुकार सकेगा ?
इसी प्रकार यदि शिष्य को भी गुरु में इसी प्रकार के दुर्गुणों या कमियों के दर्शन होंगे तब कैसे वह अपने गुरु की हर बात को श्रधा और इतने उग्र पुरुषार्थ के साथ स्वीकार करेगा कि अनादि मिथ्यात्व का नाश हो सके ?
किसी भी व्यक्ति का इससे बढ़कर और अन्य क्या दुर्भाग्य हो सकता है जब गुरु और शिष्य दोनों ही एक दूसरे की कजोरियों का पोषण करने लगें .
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