दुर्भाग्य हो या सौभाग्य , कर्म का उदय किस तरह से आता है , किस तरह की परिस्थितियाँ निर्मित होती हें और किस तरह हमें विवश और अकर्मण्य बना देतीं हें कि हम शिवाय असहाय बने रहकर देखने के कुछ भी नहीं कर सकते हें , इस तथ्य के उदाहरण ढूँढने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है ; नित्य ही यह सब हमारे इर्दगिर्द ही होता रहता है .
यह सब जान और देखकर भी क्यों हमारी कर्ताबुद्धी टूटती नहीं है , शिथिल तक नहीं होती है .
हमारे जीवन घटित होने वाली अधिकतम घटनाएं हमारी इक्षा और प्रयत्नों के विपरीत घटित होती हें तब भी हमारा भ्रम टूटता नहीं है और हजारों में से एकाध घटना हमारी इक्षा के अनुरूप घटित हो जाती है तो हम यह भ्रम पाल लेते हें कि सब कुछ हमारे करने से हमारी मर्जी के अनुरूप होता है .
जब कुछ हमारी मर्जी के विपरीत घटित होता है तो हम दुखी होते हें और संयोग वश यदि कुछ हमारे इक्षा के अनुकूल घटित हो जाए तो हम फूले-फूले फिरते हें , हमारी ये दोनों ही प्रकार की प्रतिक्रियाएं नए कर्मों के बंधन में निमित्त होती हें और फिर उन कर्मों के उदय में आने पर फिर से अनुकूल और प्रतिकूल संयोग प्राप्त होते हें .
उक्त दुष्चक्र तब तक चलता रहेगा जब तक हम प्रत्येक द्रव्य के स्वाधीन परिणमन के स्वभाव को जानकार द्रढ़ता के साथ स्वीकार नहीं कर लेते हें और अपने आपको पर पदार्थों का अकर्ता नहीं मान लेते हें .
जब हम इसे स्वीकार करके जगत के घटनाक्रम के मात्र तटस्थ ज्ञाता-द्रष्टा (जानने और देखने वाले) बन जायेंगे उसी क्षण हम सुखी हो जायेंगे . इतना ही नहीं तब नए कर्मों का बंधन रुक जाने से हमारा मोक्ष का मार्ग भी प्रशस्त हो जाएगा .
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