कहीं पढ़ा हुआ याद आ रहा है -
"चाह मिटी , चिता मिटी , मनुआ है स्वाधीन "
अव्यक्त मन में पडा यह संस्कार अनायास ही आज
मेरी अंतरात्मा की आबाज बन गया है
ना चाह रही , चिंता रही , अब मन मेरा स्वाधीन
जब कुछ भी मुझे नचाहिए , क्यों अनुबंध नवीन
अब याद आया , वह पद ऐसा है -
चाह मिटी , चिंता मिटी,मनुआ बेपरवाह
जिन्हें कछू नहीं चाहिए , ते नर शाहंशाह
"चाह मिटी , चिता मिटी , मनुआ है स्वाधीन "
अव्यक्त मन में पडा यह संस्कार अनायास ही आज
मेरी अंतरात्मा की आबाज बन गया है
ना चाह रही , चिंता रही , अब मन मेरा स्वाधीन
जब कुछ भी मुझे नचाहिए , क्यों अनुबंध नवीन
अब याद आया , वह पद ऐसा है -
चाह मिटी , चिंता मिटी,मनुआ बेपरवाह
जिन्हें कछू नहीं चाहिए , ते नर शाहंशाह
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