Saturday, June 22, 2013

जीवन में आजीविका का महत्वपूर्ण स्थान है ,पर वही तो सब कुछ नहीं ! आजीविका तो जीवन का साधन है साध्य नहीं .

हम घर चलाने के लिए व्यापार करने निकलते हें फिर व्यापार चलाने में घर को ही भूल जाते हें .
हम निकले थे व्यापार चलाने , व्यापार हमें चलाने लगता है .
क्यों होता है ऐसा ?
सोच का अभाव , विचारों की दरिद्रता .
जीवन के बारे में हमारा कोई निश्चित सोच नहीं है , कोई दिशा नहीं है , हम बस बहाव में बह जाते हें .
जैसे भोजन में नमक आवश्यक है अत्यंत आवश्यक पर सीमा में , नमक अधिक हो जाने पर भोजन खारा हो जाएगा , खाने योग्य नहीं रहेगा .
भोजन में मिर्च भी जरूरी है पर सीमित मात्रा में , थोड़ी ही अधिक हो जाने पर क्या होगा ?
भोजन में मिठाई भी चाहिए पर अधिक होजाने पर उबकाई आने लगेगी .
थोड़ी चटनी और थोड़ा आचार भी चाहिए पर क्या कोई सिर्फ चटनी और आचार से ही पेट भर सकता है ?
दवा भी जरूरी है पर बस सही समय पर ,सही और सीमित मात्रा में . सिर्फ दवा के सेवन से ही कोई स्वस्थ्य नहीं रह सकता है . 
हर वस्तु महत्वपूर्ण और अत्यंत आवश्यक है पर अपनी सीमा में .
जीवन में आजीविका का महत्वपूर्ण स्थान है ,पर वही तो सब कुछ नहीं !
आजीविका तो जीवन का साधन है साध्य नहीं .
उचित आजीविका के बाद अब हमें जीवन जीना शेष है , पर हम जीना तो भूल ही जाते हें , बस आजीविका में ही लगे रहते हें ,जीवन भर .
वह भी अकेले नहीं , सभी को उसमें ही जोतने लगते हें , घर बनाने बाली घरवाली को भी और आँगन में किल्लोलें करते बचपन को भी . और तो और उस टिमटिमाते दिए को भी नहीं छोड़ते हें हम जो अब न जाने कब बुझ जाए .
मेरा तात्पर्य हमारे उन बुजुर्गों से है जिनका भी सारा ही जीवन इसी तरह मजदूरी करते हुए ही बीता है और अब जीवन के नाम पर जो कुछ भी बचा है हमारी यह घर की दुकानदारी उसका भी शोषण करने पर उतारू बनी रहती है , और कुछ नहीं तो देखरेख ही सही , पर हम उन्हें भी चौकीदार की ड्यूटी पर बिठाना नहीं भूलते.
क्या सचमुच यह कमाना इतना आवश्यक है ? इतना कमाना आवश्यक है ?
अरे भाई ! ठीक है , कमाओ अपनी जरूरतों को सीमित रखो और उन सीमित जरूरतों के लिए पर्याप्त कमाओ ; पर फिर बचे समय में वह तो करो जिसके लिए धन की जरूरत थी .
यूं भी आवश्यकताएं तो सभी की सीमित हें ही , आवश्यकताएं अनंत नहीं हें , हमारी कल्पना की उड़ान अनंत है बस .
हम कल्पना में ख़्वाब बुनते हें , कहने को उसे अपनी आवश्यकता बना लेते हें और फिर उस काल्पनिक आवश्यकता की पूर्ती के लिए दौड़ते रहते हें जीवन भर , क्योंकि वह कभी पूरे होती नहीं , यदि हो भी जाए तो कल्पना के घोड़े तो अपने ही हें न , उन्हें फिर दौड़ा देते हें , कुछ और आगे .
फिर हम कभी मुड़कर देखते ही नहीं की हम कहाँ से मार्ग भटक गए , हम क्या करने निकले थे और क्या करने में लग गए .
हम जिस आवश्यकता की पूर्ती के लिए निकले थे वह कब पीछे , कहाँ दम तोड़ गई .
हमें धन चाहिए था परिवार के लिए पर धन के लिए परिवार टूट गया .
हमें धन चाहिए था बचपन जीने के लिए , जबानी भोगने के लिए पर धन कमाने के फेर में बच्चे का बचपन और हमारी जबानी पीछे छूट गई .
हमें धन चाहिए था अच्छी शिक्षा के लिए पर उसकी शिक्षा पाने की तो उम्र ही निकल गई , न तो हम उसे शिक्षा दिला सके और न दे सके , फुर्सत ही कहाँ थी .
धन की जरूरत थी स्वास्थ्य के लिए और हम धन कमाने के फेर में स्वास्थ्य ही चौपट कर बैठे , और अब जैसे -तैसे चलते फिरते बने रहने के लिए धन फूंकने की स्थिति में पहुँच गए .
धन चाहिए था भोजन के लिए , शान्ति के साथ सम्पूर्ण भोजन के लिए पर भोजन के लिए तो हमारे पास वक्त ही न रहा , वह तो अंतिम प्राथमिकता पर ही छूट गया .
धन की जरूरत थी घूमने - फिरने के लिए , मनोरंजन के लिए पर उसके लिए तो वक्त ही नहीं बचा न !
धन कमाने के लिए धंधा करने निकले थे , पर धंधे के लिए ही धन की जरूरत बढ़ती गई और हम धंधा छोड़ फायनांस जुटाने के काम में जुट गए .
धंधे में जो कमाते , धंधे में ही लगता जाता , घर बालों के लिए तो बस बही ढाक के तीन पात .
धंधा बढ़ता गया - जीवन लुटता गया .
और अब रह गए लुटे हुए , फुके हुए , बीते हुए , चुके हुए हम . 

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