“ बड़े
नादान हें वे डेढ़अकल लोग “ – एक अन्योक्ति
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल
कुछ
लोग इतने स्मार्ट होते हें कि वे पतझर के ठूंठ को एक दिन भी पानी नहीं पिलाना
चाहते हें , अरे ! पानी पिलाना तो दूर दूसरे हरे-भरे दिखने वाले दरख्तों के
व्यामोह में वे उनके बीच खड़े इस ठूंठ को तो काट ही फेकना चाहते हें .
वे
यह भूल जाते हें कि अभी कुछ ही दिनों पहिले तक यह ठूंठ भी कैसा हराभरा था और फलों
से लदा हुआ था और उन नादानों को यह मालूम नहीं कि न तो उन दरख्तों की वह
बहार अंतिम थी और न ही यह पतझार ही इनकी अंतिम नियति और इनका अंतिम सत्य है
. बस कुछ ही दिनों की तो बात है इन पर फिर बहार आयेगी .
और
हाँ ! पतझर के बे सूखे ठूंठ किसी के दो बूँद पानी के मोहताज भी नहीं होते ,
प्रकृति को मालूम था कि ये कैसे निष्ठुर , मूर्ख , स्वार्थी और कृतघ्न मनुष्यों के
हत्थे चड़े हें , उसने उनके उन दिनों के दानापानी का इंतजाम पहिले ही कर रखा है .
अब
देखना है तो बस यह कि सचमुच ही ये उताबले लोग बहार आने का इन्तजार किये बिना ही इन
ठूंठों को काट न फेकें , क्योंकि इनका ऐसी नादानियों का इतिहास पुराना है . हमने
पहिले भी देखा है कि इन्होंने अनेकों पौधे खुद रोप हें और उनके फलने तक का सब्र भी
नहीं कर सके , खुद ही उन्हें अपने ही हाथों उखाड़ फेका है .
ऐसा
नहीं है कि तब भी इन्हें किसी ने बतलाया न हो कि तुम जो यह पौधा रोप रहे हो यह कल
ही नहीं फलने लगेगा , इसमें वक्त लगता है , वक्त लगेगा ; पर तब भी इन्होंने किसी
की नहीं सुनी , यह तब भी शेखचिल्ली की तरह ख़्वाब ही देखते रहे कि –
“
लगता होगा और लोगों को वक्त , हम तो विरले हें , देखना हम क्या कमाल करते हें , और
फिर हमारा बिगड़ता क्या है यदि नहीं फला तो काट डालेंगे , उखाड़ फेकेंगे , हमारा जाता
ही क्या है ? न तो खेत हमारा है और न ही बीज , पानी सीचने की जिम्मेदारी भी किसी
और की ही है , हमारी तो सिर्फ होशियारी है , जिसका आँगन खुदेगा , कचरा ( मलबा )
जिसके खेत में फैलेगा बो समेटेगा , हमारा क्या ; हम तो आगे बढ़ जायेंगे , हमें कोई
और (कर्म फूटा ) मिल ही जाएगा , जब इतने मिले तो एक और न मिलेगा ? “
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