धर्म क्या,क्यों,कैसे और किसके लिए –
-
परमात्म प्रकाश भारिल्ल
धर्म दुनिया में सर्वोत्कृष्ट है.
धर्म,धर्म की क्रिया,धार्मिक आचरण और व्यवहार तथा
धार्मिक जीवन ही आदर्श हें,सर्वोत्कृष्ट हें,कल्याणकारी हें,सुख है,सुखी करने वाले
है और मोक्ष का मार्ग है.
उक्त तथ्य के बाबजूद धर्म के उद्देश्य,स्वरूप,क्रिया
और परिणाम के बारे में हम अन्धकार और भ्रम में ही हें.हम नहीं जानते हें कि धर्म
क्या,क्यों,कैसे और किसके लिए ?
अपने कल्याण के लिए उक्त स्पष्ट समझ अपरिहार्य है.
क्रमश: कई किस्तों में प्रकाशित होने वाले इस लेख में
हम उक्त सभी पहलुओं पर गंभीर चिंतन करेंगे.
हमारी वर्तमान दशा -
हममें
से बहुत से (अधिकतम) लोग भ्रम के साथ जीते हें,अपनेआप को धर्मात्मा मानते हें पर
यदि तनिक गहराई से विचार किया जाए तो हम पायेंगे कि सचमुच हम धर्मात्मा नहीं
सिर्फ धर्मभीरू हें.
धर्म
और धार्मिक आचरण हमारी चाहत नहीं आशा,आकांक्षा,लोभ और भय से प्रेरित मजबूरी है.
धर्मात्मा
तो दूर हम पुजारी भी नहीं,हमतो सौदागर हें.
सौदागर
भी इमानदार नहीं,बेईमान.
हमें
न्याय नहीं चाहिए,न्याय से भी कुछ नहीं चाहिए,सही समय और स्थान पर पूरी और उचित
कीमत चुकाकर भी हमें कुछ नहीं पाना है,हमें तो समय से पहिले बिना उचित कीमत
चुकाए,दूसरों का हक़ छीनकर और उन्हें
नुक्सान पहुंचाकर सब कुछ पाना है,धन-दौलत,शक्ति और स्वास्थ्य,सत्ता और शोहरत,घर-परिवार,इष्टजन-परिजन,सहयोगी
और सेवक.
उक्त
सभी वस्तुओं को अर्जित करने के अनेक संभावित साधनों में से हमारी नजर में कथित
धर्म भी एक संभावित साधन हो सकता है,हालांकि जिसपर न तो पूरी तरह भरोसा ही किया जा
सकता है और न ही निर्भर ही रहा जा सकता है,तथापि उसे नजरअंदाज करना या उसकी
उपेक्षा करना भी हमारी द्रष्टि से बुद्धीमत्तापूर्ण आचरण नहीं है.बस इसीलिये
यह कथित धर्म नाम की वस्तु हमारे जीवन में स्थान पाती है
धर्म
की चर्चा करने वाले,धर्म धारण करने की इक्षा रखने वाले,धर्मात्मा कहलाने के चाहक हम
सभी लोग न तो यह जानते हें कि धर्म कहते
किसे हें,धर्म क्या है,न हमने यह सोचा है कि हमें क्यों धर्मात्मा होना चाहिए,या धर्म
किस प्रकार धारण-पालन किया जाये और कौन ऐसा कर सकता है ?
संभव
है कि धर्म का सच्चा स्वरूप जानने-समझने,धर्मात्माओं के आचरण-व्यवहार की समझ होने
और धर्म धारण करने के परिणाम जानने के बाद हममें से अधिकाँश लोगों के मन में नतो
धर्म के प्रति भय शेष रहे और न ही धर्म की चाहत ही रहे,क्योंकि धर्म वह देता
नहीं जिसकी सर्वसाधारण को चाहत है और धर्म जो प्रदान करता है उसकी हमें चाहत नहीं.
हम
सभी निरंतर एक दूसरे को धर्म के मार्ग पर लाने के लिए चिन्तित रहते हें,पर क्या हम
स्वयं भी धर्म के मार्ग पर हें,क्या हम स्वयं भी धर्मात्मा हें ?
हम
धर्म को जानते नहीं हें,धर्म क्या है हमें मालूम नहीं;बस हमारे अवचेतन में एक
धारणा बसी हुई है कि धर्म एक ऐसा कानून है जो हमारे सुख-दुःख को नियंत्रित करता
है,हमारे कर्मों का लेखाजोखा रखता है,हमारे सत्कर्मों के लिए पुरूस्कार और अपराधों
के लिए दंड का विधान करता है और मात्र यह जन्म ही नहीं वरन इस जन्म के बाद भी यह
धर्म का क़ानून ही हमें नियंत्रित करता है.बस इसीलिये हम धर्म से डरते हें.
एक
बात और है,उक्त तथाकथित धर्म के कथित अस्तित्व से हम डरते तो अवश्य हें,पर हम
उसके अस्तित्व के बारे में सदैव ही सशंकित भी बने रहते हें क्योंकि उक्त धर्म की
सत्ता का कोई चिन्ह हमें कहीं दिखाई ही नहीं देता है.
यही
कारण है कि न तो हम धर्म को अनदेखा करके उसकी उपेक्षा ही कर पाते हें और न ही धर्म
के प्रति समर्पित ही हो पाते हें.अनदेखा करने की अवस्था में हम डरते हें कि कहीं
अनजाने ही हम किसी भयंकर दंड के भागी न बन जाएँ और समर्पित होने से इसलिए बचते हें
कि क्या पता धर्म और कर्म जैसा कुछ
है भी या नहीं,होता भी है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम व्यर्थ ही इससे डरकर
अपने मन की करने से बंचित रह जाएँ.
बात
सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रहती है कि धर्म को हम अपने कर्मों का लेखाजोखा (record) और तदनुसार हमारी नियति (destiny) को तय करने वाला एक तटस्थ (neutral),स्वचालित नियंत्रक (automatic
controller) मानते हें वल्कि हमारी
कल्पना है कि कोई एक नियंत्रक (administrature controlar) है जो कि हमारे उन
कर्मों का लेखाजोखा रखता है और फिर उस रेकोर्ड के आधार पर हमारी नियति तय करता है,इस
प्रकार हमारी कल्पना में उक्त कथित धर्म और हमारे बीच एक एजेंट और आ खड़ा होता है जिसे हम भगवान
कहते (मानते) हें.
उसपर
तुर्रा यह कि हम मानते हें कि वह नियंत्रक यदि चाहे तो हमारी पूजा-भक्ति से
प्रसन्न होकर या मिन्नतों-प्रार्थनाओं से पिघलकर या मन्नतों के प्रलोभन में पड़कर
या नास्तिक होजाने की धमकी से घबराकर हमारे कर्मों के अनुरूप नियत हमारी नियति को
बदल भी सकता है.इस प्रकार हमें लगता है कि हमारी नियति तय करने वाला मात्र
हमारा धर्म और हमारे कर्म ही नहीं वरन एक वह (लेखाजोखा रखने वाला भगवान) और भी है
जिसे संभालना बहुत आवश्यक है.हम मानते हें कि यदि वह चाहे तो हमारी
पूजा-भक्ति से प्रसन्न होकर हमारे कुकर्मों को अनदेखा करके हमें दण्डित होने से
बचा भी सकता है और हमारे शत्रुओं का नाश करके भी हमें लाभान्वित कर सकता है.
जब
हमारे कर्मों और कर्मफलों के बीच वह भक्ति से प्रसन्न होने वाला और अवहेलना से
क्रुद्ध होने वाला , निहाल कर देने या बर्बाद कर देने वाला एजेंट (भगवान) प्रवेश
कर जाता है तब हमारे प्रयासों का जोर बुरे कर्म करने से बचने पर कम और अपने
कुकर्मों को माफ़ करबा लेने के प्रयासों पर अधिक हो जाता है. अब हम इन प्रयासों में लग जाते हें कि हमें
अपने अपराधों का दंड न भोगना पड़े और हमें बे सब इष्ट संयोग प्राप्त हों जिनके लायक
हामारी योग्यता और कर्म नहीं हें
writing in progress
writing in progress
No comments:
Post a Comment