Wednesday, April 8, 2015

इस जीवन के बाद हमारे अपने अस्तित्व का भी असंदिग्ध (संशय रहित) भरोसा हमें नहीं है

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (सातबीं क़िस्त, गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा - अपने इस जीवन का आगामी काल और अपनी आगामी पीढी (हालांकि यह हम स्वयं नहीं हें) भी हमें हमारी कल्पना में स्वीकृत है इसलिए हम उनकी चिंता भी करते हें और इंतजाम भी; पर इस जीवन के बाद हमारे अपने अस्तित्व का भी असंदिग्ध (संशय रहित) भरोसा हमें नहीं है, बस इसलिए उसके  प्रति हमारा रबैया भी लापरवाही भरा होता है. यदि हमें इस जीवन के बाद भी अपने अस्तित्व के बारे में संशय रहित विश्वास हो तो हम उसके लिए कुछ भी न करें और उसके प्रति लापरवाह बने रहें यह सम्भव ही नहीं.
अब आगे पढ़िए कि किसप्रकार हम अपने भविष्य के लिए कुछ भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हें –

यदि हमें अपने भविष्य का भरोसा हो, भविष्य के होने का भरोसा हो, झूंठा ही सही, अनिश्चित ही सही, कल्पनाओं में ही सही, तो हम उसके लिए कुछ भी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहते हें. अपना विद्यमान वर्तमान, वर्तमान का सुख-दुःख, वर्तमान की सुविधाएं और शुकून आगामी संभावित भविष्य के लिए पूरी तरह कुर्बान कर देते हें.
बालकों को यद्यपि आज खेलना-कूदना, घूमना-फिरना, मिलना-जुलना, खाना-पीना, पहिनना-ओढना, बनाव-श्रृंगार और मौज-मस्ती करना अच्छा लगता है और पढना-लिखना, कसरत-व्यायाम या स्वास्थ्यबर्धक भोजन उन्हें कम ही पसंद होता है. जबतक बालक अपने भविष्य के बारे में जागरूक और सचेत न हो तबतक उन्हें उक्त कामों में लगापाना लगभग असंभव है पर ज्योंही ऊनके चित्त में भविष्य की कल्पना आकार लेती है वे अपने वर्तमान के समस्त आकर्षणों को तिलांजलि देकर शुष्क पढाई-लिखाई और हाड़तोड़ कसरत में जुट जाते हें, उनका जोर वेस्वाद स्वास्थ्यबर्धक भोजन पर बढ़ जाता है.
भविष्य में अच्छी नौकरी मिले, बड़ा व्यापार हो, बहुत धन कमा सकें और ऐश्वर्य का उपभोग कर सकें उसके लिए वर्तमान के वचपन के उस अतुलित आनंद का त्याग कर डालते हें जिसके गीत गाते हुए कवि लोग थकते नहीं.
भविष्य की परवाह में आजकी बेपरवाही ख़त्म हो जाती है और तो और आजका दिन इसलिए कंजूसी से अभावों में व्यतीत करता है कि कल के लिए धन उपलब्ध रह सके.आज व्यायाम का श्रम इसलिए करता है कि कल स्वस्थ्य रह सके, आज इसलिए भूखा रहता है कि कल ख़ा सके.
आगे बचे रहने वाले कुछ संभावित कमजोर, रुग्ण और मरियल से ३०-४०-५० बर्षों की बेहतरी के लिए आजके बचपन के, तरुणाई के और चडते यौवन के ऊर्जावान, सशक्त २५-३० बर्ष अपनी अरुचि की गतिविधियों में बर्बाद कर देता है.
हम अपनी आगामी पीढी के लिए बहुत कुछ करते हें और उससे भी अनन्तगुना और करना चाहते हें क्योंकि हमें उनके होने का भरोसा है. हालांकि उनके उपभोक्ता हम स्वयं नहीं हें तब भी हम स्वयं कष्ट पाकर भी उनके लिए कुछ करना चाहते हें क्योंकि हमें भरोसा है कि वे हें, वे होंगे.
इस प्रकार हम पाते हें यदि हमें अपने भविष्य की एक छीण सी किरण भी दिखाई दे तो हम उसके लिए कोई भी कीमत चुका सकते हें, तब क्यों नहीं हम अपने आगामी भव के लिए कुछ करना चाहते हें ? सिर्फ आगामी भव के लिए ही नहीं वरन आगामी अनंतकाल के लिए.
यदि आगामी संभावित ३०-४० साल के लिए विद्यमान ३०-४० साल कुर्बान कर सकते हें तो आगामी अनंतकाल के लिए क्या नहीं किया जा सकता है ? उसके लिए कौनसी कीमत अधिक है ? उसके लिए तो कोई भी कीमत चुकाई जा सकती है न, चुकाई जानी चाहिये न !
अपने भविष्य के प्रति हमलोग सचमुच ही अत्यधिक संवेदनशील हें, हम अपने सलोने भविष्य के लिए आज कड़ी मेहनत करते हें, कड़ी मेहनत की कमाई को आजकी अपनी सुविधाओं के लिए उपयोग में नहीं लेते हें और कल के लिए बचत करते हें. भविष्य में कोई अनहोनी न होजाए इसके लिए बीमा करबाते हें, जिस पैसे से अपने आजकी सुविधा के लिए कोई उपयोगी वस्तु खरीदी जा सकती थी उस पैसे से हम अपने काल्पनिक भविष्य के लिए काल्पनिक सुरक्षा खरीद लेते हें और आज का विद्यमान वर्तमान जरूरी साधनों के अभावों में ही गुजार देते हें.
अपने भविष्य के लिए इतने सजग और संजीदा हमलोग यदि अपने आगामी भव के बारे में इतने वेपरवाह बने रहें तो इसे क्या कहा जाय ?
हमें आज जिस वस्तु की कोई आवश्यक्ता नहीं, निकट भविष्य में भी जिसके उपयोग की कोई निश्चित संभावना भी नहीं, वह वस्तु बर्षों तक हम अपने छोटे-छोटे, महंगे घरों में यत्नपूर्वक इसलिए सहेजकर रखते हें कि कौन जाने भविष्य में कब इसकी जरूरत पड जाए, अपने भविष्य के लिए इतने संजीदा (गंभीर) हें हम.
ताउम्र हम अनेकों लोगों की मानसिक गुलामी सिर्फ इसलिए करते हें कि कौन जाने वे कब हमारे किसी काम आजाएँ. हम जीवनभर ऐसे अनेकों लोगोंसे बस इसी आशा में व्यवहार रखते और निभाते हें कि हो न हो हमें उनसे कभी कोई काम पड जाए. यही इस बात का प्रमाण है कि हम अपने भविष्य के प्रति कितने चिन्तित रहते हें.
तब क्यों नहीं हमें अपने आगामी आनंतकाल और अगले भाव की परवाह नहीं है ?
इसका मतलब साफ़ है कि हमें अपने आगामी भव का भरोसा ही नहीं, कल्पना में भी नहीं. हमें अपनी (आत्मा की) अमरता का भरोसा ही नहीं, यानिकि हमें अपना ही भरोसा नहीं.
यदि अन्य शब्दों में कहूं तो हम कह सकते हें कि हम स्वयं अपने को नहीं जानते और पहिचानते हें, हम अपना स्वरूप नहीं जानते हें. हमें यह मालूम नहीं कि “मैं कौन हूँ, मेरा स्वरूप क्या है ?”
एक ओर तो हमें इस जीवन के बाद अपने अस्तित्व का भरोसा नहीं है और दूसरी ओर हमारी आगामी पीढियां जो हमसे सर्वथा भिन्न हें, जिनमें हमारा और हममें जिनका अत्यन्ताभाव है, उनमें हमारा “ममत्व-एकत्व और अपनत्व” इस बात को इंगित करता है कि हम अपने स्वरूप को नहीं जानते-पहिचानते हें.
अपनी आगामी पीढ़ियों को “मैं” या “अपना” मानना तो अत्यंत स्थूल भूल है और यह मान्यता हमारी समझ की स्थूलता ही प्रदर्शित करती है.
हम कहें कुछ भी, बातें कुछ भी करें, पर हमारा व्यवहार हमारे अभिप्राय की पोल खोल ही देता है. हमें स्वयं अपने आगामी अनंतकाल की परवाह नहीं है, हम उसके उत्थान के लिए कुछ नहीं करते हें और (देह परम्परा से) अपनी आगामी पीढ़ियों के इंतजाम के प्रति जिस ढंग से समर्पित रहते हें, इसके मायने स्पष्ट हें कि देह परम्परा की आगामी पीढ़ियों को हम अपनी मानते हें और अपने स्वयं के भविष्य के बारे में हमारा कोई चिंतन ही नहीं है. हमारी सारी समस्याओं की जड़ यहीं है.

हमने कभी यह सोचा ही नहीं कि किस प्रकार “सुख क्या है” इस प्रश्न का जबाब इसके साथ जुडा हुआ है कि “मैं कौन हूँ”. “मैं” की परिभाषा बदलते ही हमारे सुख-दुःख की और हमारे हित-अहित की परिभाषाएं भी बदल जाती हें.
किस तरह ?
यह जानने के लिए पढ़ें इस श्रंखला की आठबीं क़िस्त –
क्रमश:-

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