Wednesday, April 29, 2015

अपनी “मैं” की परिभाषा सुनिश्चित होने पर ही हमारे “सुख-दुःख” और “हित-अहित” परिभाषित हो सकेंगे, सुनिश्चित हो सकेंगे और मात्र तब ही हम अपने उस हितसाधन हेतु प्रयत्न कर सकेंगे.---धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (नवमी क़िस्त, गतांक से आगे)

"------ वह अपने आपको हिन्दुस्तानी मानता है और इसलिए अपने हिन्दुस्तान की रक्षा के लिएअपनी जान देदेता है और हम अपने आपको एक व्यक्ति मानते और इसलिए अपने व्यक्तिगत हितों के लिएदेशहित को ताक पर रख देते हें.-----"

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (नवमी क़िस्त, गतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा - यदि मैं अपने आपको मनुष्य मानकर सम्पूर्ण मानव जीवन के हित के लिए अपने आज की सुखसुविधा और मौजमस्ती को तिलांजलि दे सकता हूँ तो क्या अपने आगामी अनंतकाल के हित केलिए इस मानवजीवन की आज की मौजमस्ती नहीं छोड़ सकता ?
पर इसके लिए संशय रहित होकर द्रढ़तापूर्वक यह तय करना होगा कि “आखिर मैं हूँ कौन”
अब आगे पढिये-
जब अपनी “मैं” की परिभाषा बदलने से इतना सब कुछ बदल जाता है तब क्यों नहीं हमने आजतक अपनी “मैं” की परिभाषा सुनिश्चित करने की कोशिश की ?
अब यह तथ्य तो स्थापित हो ही गया है न कि अपनी “मैं” की परिभाषा सुनिश्चित होने पर ही हमारे “सुख-दुःख” और “हित-अहित” परिभाषित हो सकेंगे, सुनिश्चित हो सकेंगे और मात्र तब ही हम अपने उस हितसाधन हेतु प्रयत्न कर सकेंगे.
मुझे समझ ही नहीं आता है कि हम हें कैसे लोग ? हम कर क्या रहे हें ?
जब हमारे हित-अहित ही सुनिश्चित नहीं हें तब हम कर क्या रहे हें ? यह सारी भाग-दौड़ है किसलिए ?
क्या इस भाग-दौड़ से पहिले अपने लक्ष्य निर्धारित करना जरूरी नहीं ? “मैं“ को पहिचानना जरूरी नहीं ? उस “मैं” के (अपने) हित-अहित पहिचानना आवश्यक नहीं ? “सुख-दुःख” परिभाषित करना जरूरी नहीं ? तो क्याहम अपना लक्ष्य तय किये बिना ही दौड़ पड़ते हें, दौड़ते ही रहते हें, यहाँ से बहाँ ?
इसपर भी हम अपनेआपको पढालिखा कहते हें और बुद्धिमान मानते हें ?
जब यही सब मालूम नहीं है तो फिर एक बार वही सवाल कि “आखिर हम कर क्या रहे हें ?”
अपनी एक अप्रकाशित रचना में मैंने लिखा है –
“अन्जाने में बस गतिशीलता ही हमारे जीवन का लक्ष्य बन गई है, आदर्श बन गई है, बिना रुके बिना थमे, बस दौड़ते रहना, किसलिए; यह कोई नहीं जानता ------- दरअसल न तो चलना महत्वपूर्ण है और न ही रुक जाना, महत्वपूर्ण है साध्य की सिद्धी, साध्य भी अचिन्त्य व अद्रश्य नहीं वरन सुविचारित और स्पष्ट”
एक सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार ने भी लिखा है- “पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहिचान करले”

अब यह एक स्थापित तथ्य है कि चलने से पूर्व हमें अपना लक्ष्य मालूम होना जरूरी है और लक्ष्य तय करने से पूर्व यह पहिचानना आवश्यक है कि आखिर “मैं हूँ कौन” क्योंकि मैं की परिभाषा के अनुसार ही मात्र हमारे हित-अहित और सुख-दुःख ही नहीं वरन हमारे लक्ष्य भी बदल जाते हें.

यदि हम मानते हें कि मैं मानव हूँ, तब सम्पूर्ण मानवता के उत्थान में ही हमें अपना हित दिखाई देता है औरहमारे चिंतन का बिषय देश-काल की मर्यादा से निरपेक्ष और जाति-धर्म के भेदभाव से रहित सम्पूर्ण मानवता बन जायेगी.
यदि हम अपनी “मैं” की परिभाषा बदलकर “मैं हिन्दुस्तानी” करदूं तो क्या होगा ?
तब भी क्या सम्पूर्ण मानवता का उत्थान ही मेरा लक्ष्य बना रहेगा ?
नहीं !
अब मेरी मानवता देश की सीमा में बंट जायेगी, अब हिन्दुस्तान का उत्थान मेरा लक्ष्य होगा, इसीमें मुझे अपना हित दिखाई देगा, इसीमें मुझे सुख मिलेगा.
हिदुस्थान के अतिरिक्त अन्य देशों के नागरिक (मानव) जो मानव होने के नाते मेरी “मैं” की परिभाषा में शामिल थे अब “मैं” नहीं रहेंगे, अब वे पराये हो जायेंगे, अब मुझे उनकी तरक्की और सुख-सुविधा की चिंता नहीं रहेगी. अबतो वे मेरे प्रतिद्वंद्वी हो जायेंगे क्योंकि अब मेरे और उनके बीच हितों का टकराव होगा.
यदि मैं अपने आपको हिदुस्तानी की जगह “मैं राजस्थानी” मानने लगूं तो क्या होगा ?
अब सारे राजस्थनी मेरे अपने हो जायेगे और उनके हित मेरे हित होंगे व राजस्थनियों के अलावा अन्य सभी प्रान्तों के हिंदुस्थानी अब पराये हो जायेंगे और मैं राजस्थानियों  के हितों की रक्षा के लिए उनके विरुद्ध संघर्ष करने को प्रेरित होने लगूंगा.
है न विचित्र बात !
अपने आपको मानव और हिन्दुस्तानी मानकर कलतक जिनके हित के लिए मैं मरमिट जाना चाहता था, आज अपने आपको राजस्थानी मानने पर सम्पूर्ण राज्स्थानियों के हितों की रक्षा के लिए उन अन्य हिंदुस्थानी मानवों के साथ मरने-मारने पर उतारू हो जाता हूँ.
अरे ! अपनेआप को हिंदुस्तानी मानने वाला एक सैनिक अपने हिन्दुस्तान के हितों की रक्षा के लिए अपनी जान गंवाने से भी नहीं हिचकता है और जब वही अपनेआप को “अ-ब-स” नाम वाला एक व्यक्ति (an individual) मानने लगता है तो फिर अपने क्षुद्र से स्वार्थ की पूर्ती हेतु अपने देश को लूटने और बेचने को भी तैयार हो जाता है.
ज़रा विचार तो कीजिये कि देश के लिए लड़ने-मरने वाले उस सैनिक के मन में यदि यह विचार आजाये कि-
“अरे ! मैं तो रामलाल हूँ, दो मासूम बच्चियों का बाप, एक अवला का पति और अपने इस छोटेसे, प्यारे से परिवार का एकमात्र सहारा और अगर मैं मर गया तो ?
तो इन मेरे अपनों का क्या होगा, ये देश मेरे किस काम आयेगा ? यहाँ मेरा कौन है ?”
तब भी क्या वह उसी तरह देश के लिए मर सकेगा ?
अरे ! मरना तो दूर; तबतो होनहो, वह अपने परिवार की खुशहाली के लिए देश के हितों की कुर्बानी करने पर तक उतारू हो जाए.
यही फर्क तो है सीमा पर तैनात उस सैनिक के और हमारे सोच में, और इसीलिये हमारे और उसके व्यवहार में इतना बड़ा अंतर है, वह अपने आपको हिन्दुस्तानी मानता है और इसलिए अपने हिन्दुस्तान की रक्षा के लिएअपनी जान देदेता है और हम अपने आपको एक व्यक्ति मानते और इसलिए अपने व्यक्तिगत हितों के लिएदेशहित को ताक पर रख देते हें.
हमारी ये सब प्रवृत्तियाँ - टेक्स चोरी, रिश्वत खोरी हमारे इसी सोच के परिणाम हें.

यह इतना बड़ा फर्क कैसे पड़ गया ? क्या बदल गया है ?
और कुछ भी तो नहीं , सिर्फ “मैं” की परिभाषा ही तो बदली है, बस !
उपरोक्त अनेकों उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि “मैं” की परिभाषा बदलते ही सब कुछ बदल जाता है, जब “मैं” की परिभाषा हमारे ऊपर इतना बड़ा प्रभाव डालती है तो क्या हमारे लिए यह सबसे महत्वपूर्ण और अत्यंत आवश्यक नहीं कि हम तुरंत ही अपनी “मैं” की दोष रहित, निर्विवाद परिभाषा, खोजें, समझें और स्थापित करें ?
इसमें देरी क्यों ?

हमारा अपने आप को न पहिचानना और मेरी अपनी “मैं” की परिभाषा सुनिश्चित और सुपरिभाषित न होना हमें अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में भी किस प्रकार हास्यास्पद स्थिति ला खडा करता है, यह जानने के लिएपढ़ें, अगली क़िस्त ,क्रमश:-

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