Monday, June 15, 2015

तो क्या मैं कभी भी संपूर्ण सुखी हो ही नहीं पाउँगा ?

धर्म क्या, क्यों, कैसे और किसके लिए (ग्यारह्बीं क़िस्तगतांक से आगे)
-परमात्म प्रकाश भारिल्ल

पिछले अंक में हमने पढ़ा कि – “किस प्रकार अपने स्वरूप के अनिर्णय के कारण हम मात्र अपने परमार्थ से ही वंचित नहीं रहते हें वरन अपने वर्तमान में भी हास्यास्पद और अविश्वसनीय स्थित में बने रहते हें” अब आगे पढ़िए –
अपने स्वरूप के अनिर्णय के कारण मात्र यही नुकसान नहीं है कि हमारे कथन और विचार प्रतिपल बदलते रहते हें और हम अविश्वसनीय बने रहते हें वरन एक सबसे बड़ा नुकसान यह भी है कि हम सब अपने क्षणस्थायी, व्यक्तिगत स्वार्थों से निरपेक्ष कोई ऐसी आदर्श व्यवस्था स्थापित करने में कामयाब नहीं हो पाते हें जो स्थाई हो, सभी के हित में हो, सभी को स्वीकृत हो.
अब यदि मैं अपने स्वरूप का निर्णय करना भी चाहूँ, मैं कौन हूँ यह समझना भी चाहूँ, “मैं” को परिभाषित भी करना चाहूँ; तो क्या यह संभव है ? क्या यह आसान है ?
यदि “मैं” की कोई स्थायी और सुनिश्चित, सर्वमान्य परिभाषा हो तो मैं उसे स्वीकार करने को तैयार हूँ, पर मुझे तो ऐसी कोई परिभाषा दिखाई ही नहीं देती है, समझ ही नहीं आती है, तब मैं क्या करूं ?  
मेरी “मैं” की परिभाषा तो क्षेत्र-काल के अनुरूप बदलती ही रहती है.
यदि क्षेत्र की अपेक्षा बात करूं तो मैं “भारतीय” हूँ, पर मैं सिर्फ भारतीय ही नहीं हूँ क्षेत्र की अपेक्षा ही मैं भारतीय होने के साथ-साथ राजस्थानी भी हूँ, अब मैं क्या करूं ? अपने आपको भारतीय मानूं या राजस्थानी ?
अब यदि मैं राजस्थान छोड़कर महाराष्ट्र में चला जाता हूँ तो राजस्थानी नहीं रहता महाराष्ट्रियन हो जाता हूँ पर मैं हिंदुस्थानी तब भी बना रहता हूँ.
या यूं कहिये कि राजस्थानी भी बना ही रहता हूँ क्योंकि वहां जन्मा हूँ और महाराष्ट्रियन और हो जाता हूँ क्योंकि वहां रहता हूँ तथा भारतीय तो हूँ ही.
अब मैं अपने आपको क्या मानूं ? किसके हित का संरक्षण करूं ?
एक भारतीय के नाते मेरे लिए राजस्थान और महाराष्ट्र के हित सामान हें पर राजस्थान और महाराष्ट्र के बीच तो आपस में हितों का टकराव है, अब यह कैसे संभव है कि हर हाल में मेरे सभी हितों की सुरक्षा हो ?
यदि यह नहीं हो सकता तो क्या मैं कभी भी संपूर्ण सुखी हो ही नहीं पाउँगा ?
यह तो रही क्षेत्र की बात, अब यदि काल की बात करें तो फिर वही द्विधा !
कल मैं बालक था आज युवा हूँ पर कल युवा भी नहीं रहूँगा, बूडा हो जाउंगा.
तो मैं हूँ कौन ? मैं किसके हितों का विचार करूं, किसके हितों का संरक्षण करूं ?
जो नहीं था वह मैं हो जाता हूँ, जो मैं हूँ वह मैं रहूँगा नहीं और सभी स्थितियां एक दुसरे के विरुद्ध हें, सभी के बीच हितों का टकराव है. तब मैं क्या करूं ?
मात्र यही दो कारक भी नहीं हें, और भी अनेकों कारक हें जो मैं की परिभाषा को प्रभावित करते हें.
कदकाठी की द्रष्टि से मैं लंबा-नाटा हो जाता हूँ तो रंगरूप की द्रष्टि से गोरा-काला, डीलडौल की द्रष्टि से यदि मोटा-दुबला कहलाता हूँ तो देख-दिखाव के अनुसार सुन्दर या कुरूप.
मैं कभी स्वस्थ्य कहलाता हूँ कभी रुग्ण, कभी थका-हारा तो कभी तरोताजा, कभी तृप्त तो कभी भूँखा-प्यासा. कोई मुझे बुद्धिमान कहता है तो कोई मूर्ख, कोई मुझे सम्पन्न कहता है कोई दरिद्री, कोई कृपण तो कोई उदार, कोई विद्वान तो कोई गंवार. कभी मैं क्रोधी कहलाता हूँ कभी शान्त, कभी भयभीत कभी निर्भय, कभी कायर कभी वीर.
आखिर मैं हूँ कौन ?
मैं जो भी हूँ, सभी लोग मुझे वैसा ही क्यों नहीं कहते और मानते हें, फर्क सदा ही बना रहता है, मैं बदल जाता हूँ तब भीऔर वही रहता हूँ तब भी. एक ही व्यक्ति मुझे अलग-अलग समय में अलग-अलग नाम से पुकारता है.
समझ नहीं आता कि वे ही मूर्ख हें या मैं ही विचित्र हूँ .
सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण प्रश्न तो यह है कि जब मैं एक हूँ तो मैं की परिभाषाएं अलग-अलग, एक दुसरे से भिन्न औरविपरीत, अनेक कैसे हो सकती हें, मैं की परिभाषा तो एक ही रहेगी, रहनी चाहिए न !
वह मेरी परिभाषा ही क्या जो हर हाल में, हर काल में मेरी पहिचान न कराये.
वह परिभाषा ही कैसी जो कभी भी, कहीं भी बदल जाए.
क्या होना चाहिए यह एक बात है और क्या है, यह दूसरी बात.
यहाँ जब कदम-कदम पर “मैं” की विभिन्न परिभाषाएं सामने आयें और वे उपयुक्त भी लगें तब हम यह कैसे स्वीकार कर सकते हें कि “मैं” की परिभाषा मात्र एक हो सकती है, अनेक नहीं हो सकतीं हें.
प्रत्यक्ष से कैसे इन्कार किया जा सकता है ?
क्या मैं मनुष्य नहीं हूँ, क्या मैं पुरुष नहीं हूँ, क्या मैं युवक नहीं हूँ, क्या मैं पिता नहीं हूँ, तो क्या मैं पुत्र नहीं हूँ ? क्या में स्वस्थ्य नहीं हूँ ? क्या मैं भूँखा नहीं हूँ ? क्या मैं समय-समय पर छात्र, खिलाड़ी, राहगीर, ग्राहक, क्रोधी या थका हुआ नहीं बन जाता हूँ ?
क्या मैं एक साथ “ स्वस्थ्य पर थका हुआ, भूँखा, क्रोधित, युवा राहगीर “ नहीं हो सकता ?
आखिर “मैं पुरुष हूँ” यह मानने से “मैं मनुष्य हूँ” इस सत्य पर कहाँ आंच आती है ? मैं पुरुष भी हूँ और मनुष्य भी. जितना बड़ा सत्य यह है कि “मैं पुरुष हूँ” “मैं मनुष्य हूँ” यह सत्य भी उससे किसी मायने में कम नहीं .
और तो और कल तक मैं मात्र पुत्र था पर आज पिता भी बन गया तो इससे मेरे पुत्रत्व पर कोई आंच तो नहीं आती है न ? कल तक मैं मात्र पुत्र था, आज में पुत्र भी हूँ और पिता भी; इस सत्य को, इस तथ्य को भला कौन झुठला सकता है ?
तो क्या मैं क्षणिक ही हूँ ? क्या मेरा कोई स्थायी स्वरूप नहीं है ?
क्या में बदलता ही रहता हूँ, निरंतर ?
तब भला मैं किस “मैं” का हितसाधन करूं ?
अभी मैं युवा हूँ और आज मैं बुजुर्ग पीढी के साथ अपनी युवा पीढी के हितों की लड़ाई लडूं, पर हो न हो जब तक मैं जीत पाऊं, युवा पीढी के हक़ में कुछ हासिल कर पाऊं, मैं स्वयं ही बूढा हो जाउंगा. तब क्या मैं जीतकर भी हार नहीं जाउंगा ? तब तो मुझे बुजुर्गों की जीत अभीष्ट होगी.
इस प्रकार मैं जिस भी “मैं” का हित साधन करूंगा कुछ ही समय बाद मैं वही नहीं रहूँगा, तब क्या मैं अनंत दुखी नहीं हो जाउंगा ? तब मैं सुखी कैसे होउंगा ?
क्या मुझे अपनी यह नियति स्वीकार है ?
अरे ! सिर्फ बदलने की ही बात भी नहीं है, बिना बदले भी तो मैं एक ही साथ, एक ही समय पर दो ऐसी अलग-अलग पहिचानों का स्वामी होता हूँ जिनके हित एक दूसरे के विपरीत होते हें, तब मैं एक साथ दोनों के हितों का संरक्षण कैसे कर पाउँगा ?
तो क्या मैं कभी भी सुखी होउंगा ही नहीं ?
मैं तो हिन्दुस्तानी भी हूँ और राजस्थानी भी पर दोनों रूप में मेरे हित अलग-अलग भी हें और एक दूसरे से विपरीत भी; तब मैं कौनसे हितों का संरक्षण करूं ?
अगले अंक में पढ़िए कि क्यों मेरे उक्त नाम सत्य और सार्थक नहीं हें, मेरे स्वरूप की सत्यता की कसौटी क्या हो सकती है,और अंतत: “मैं कौन हूँ” . क्रमश: -

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